कथित तौर पर मंदिर मठ की राजनीति करने वाली भाजपा को राहुल गांधी ने उन्हीं के अस्त्र से चुनौती दी है. लखनऊ की एक रैली में योगी आदित्यनाथ को यह तक कहना पड़ा कि एक बात समझ लीजिए जब भी बनें मंदिर हम (भाजपा) ही बनवाएगें. धर्म की सियासत का ठप्पा लगी पार्टी के कद्दावर नेताओं को लगने लगा है कि राहुल उनसे उनके इस तुरुप के इक्के को छीन सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो यह भारतीय राजनीति के लिए राहु काल से कम नहीं होगा. नरेंद्र मोदी से भिड़ते-भिड़ते राहुल गांधी कब परिपक्व हो गए मीडिया को पता ही नहीं चला.
कभी राहुल गांधी की चटकारेदार खबरें छापकर टीआरपी पाने वाला मीडिया अब उन्हें गंभीर राजनेता के रूप में लेने लगा है. की-वर्ड्स पर चलने वाला डिजिटल मीडिया जो कभी 'नरेंद्र मोदी' को खबर चलने की गारंटी मानता था उसने इस साल के आखिर में 'राहुल गांधी' को एक गंभीर नेता के रूप में जगह दी. यहां गंभीर कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि राहुल छपते तो पहले भी थे लेकिन सीरियसली उन्हें कोई सीरियस नहीं लेता था. पर लगता है अब राहुल गांधी का राहु काल खत्म हुआ. यह भी कहा जा सकता है कि उनका 14 सालों का वनवास भी खत्म हुआ.
दरअसल राहुल गांधी पहली बार 2004 में सांसद बने. यूपीए वन और यूपीए टू में दस साल तक कांग्रेस की सरकार ही केंद्र में रही. नेहरू-गांधी परिवार के वारिस को चौदह साल लगे राजनीतिक दक्षता लाने में. 2018 में उनके सियासी सफर के करीब-करीब 14 साल पूरे हो गए और इसी के साथ मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आए नतीजों का श्रेय भी निसंदेह उन्हीं को मिला और मिलना भी चाहिए.
2017 में पहली बार राहुल गांधी को लोगों ने नोटिस किया. गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने जिस तरह...
कथित तौर पर मंदिर मठ की राजनीति करने वाली भाजपा को राहुल गांधी ने उन्हीं के अस्त्र से चुनौती दी है. लखनऊ की एक रैली में योगी आदित्यनाथ को यह तक कहना पड़ा कि एक बात समझ लीजिए जब भी बनें मंदिर हम (भाजपा) ही बनवाएगें. धर्म की सियासत का ठप्पा लगी पार्टी के कद्दावर नेताओं को लगने लगा है कि राहुल उनसे उनके इस तुरुप के इक्के को छीन सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो यह भारतीय राजनीति के लिए राहु काल से कम नहीं होगा. नरेंद्र मोदी से भिड़ते-भिड़ते राहुल गांधी कब परिपक्व हो गए मीडिया को पता ही नहीं चला.
कभी राहुल गांधी की चटकारेदार खबरें छापकर टीआरपी पाने वाला मीडिया अब उन्हें गंभीर राजनेता के रूप में लेने लगा है. की-वर्ड्स पर चलने वाला डिजिटल मीडिया जो कभी 'नरेंद्र मोदी' को खबर चलने की गारंटी मानता था उसने इस साल के आखिर में 'राहुल गांधी' को एक गंभीर नेता के रूप में जगह दी. यहां गंभीर कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि राहुल छपते तो पहले भी थे लेकिन सीरियसली उन्हें कोई सीरियस नहीं लेता था. पर लगता है अब राहुल गांधी का राहु काल खत्म हुआ. यह भी कहा जा सकता है कि उनका 14 सालों का वनवास भी खत्म हुआ.
दरअसल राहुल गांधी पहली बार 2004 में सांसद बने. यूपीए वन और यूपीए टू में दस साल तक कांग्रेस की सरकार ही केंद्र में रही. नेहरू-गांधी परिवार के वारिस को चौदह साल लगे राजनीतिक दक्षता लाने में. 2018 में उनके सियासी सफर के करीब-करीब 14 साल पूरे हो गए और इसी के साथ मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आए नतीजों का श्रेय भी निसंदेह उन्हीं को मिला और मिलना भी चाहिए.
2017 में पहली बार राहुल गांधी को लोगों ने नोटिस किया. गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने जिस तरह भाषण दिए और पीएम नरेंद्र मोदी को चुनौती देते नजर आए वह काबिल-ए तारीफ है. चुनाव प्रचार के दौरान उनकी 'मंदिर दौड़' चर्चा का केंद्र बनी. दूसरी बार राहुल गांधी ने अपनी सुपर सियासी समझ का परिचय दिया कर्नाटक चुनाव में.
अंतरकलह से जूझ रही कांग्रेस के आपसी मतभेद को मिटाकर एकजुट करने का श्रेय भी राहुल को ही जाता है. डी शिवकुमार और सिद्दारमैया के बीच समझौता करवाया. फिर चुनाव नतीजे आने के बाद बेहद सधे हुए ढंग से जनता दल (एस) को वे अपने पाले में ले आए. बड़ी बात यह थी कि भाजपा चुनाव में बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, पर बहुमत नहीं था.
भाजपा की तरफ से जनता दल (एस) के मुखिया कुमारस्वामी को उपमुख्यमंत्री बनने का न्यौता दिया गया. लेकिन बिना देरी किए राहुल गांधी ने नहले पर दहला चल दिया और कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनने का न्यौता भेज दिया. भाजपा को मुंह की खानी पड़ी. फिर आई बारी पांच राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, मिजोरम के विधानसभा चुनाव की. 2018 के नवंबर से सात दिसंबर तक चुनाव हुए और 11 दिसंबर को नतीजे निकले. नतीजों ने एक बार फिर कांग्रेस को खुश होने का मौका दिया.
खासतौर पर उत्तर के तीनों राज्यों में कांग्रेस ने जीत दर्ज की. यहां भी राहुल गांधी सियासी हीरो बनकर उभरे. हालांकि राहुल गांधी का भरी संसद में आंख मारना और फिर पनामा पेपर लीक मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के बेटे की जगह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के बेटे का नाम लेने पर उनके राजनीतिक विरोधियों को चटकारे लेने का मौका मिला.पर राहुल गांधी की इन गल्तियों पर जीएसटी को गब्बर टैक्स कहना, चौकीदार चोर है जैसे वाक्य भारी पड़े.
इस तरह के वाक्य हैशटैग के साथ सोशल मीडिया में वायरल हुए. राहुल गांधी ने जनऊ से लेकर गोत्र तक की राजनीति करने से परहेज नहीं किया. राहुल के परिपक्व होने पर जहां एक ओर भारत की जनता के भीतर उम्मीद जागी तो दूसरी ओर कहीं न कहीं एक डर भी गहराया है. लोकतंत्र तभी सफल होता है जब जनता के सामने चुनने के लिए एक से ज्यादा विकल्प हों.
पीएम मोदी की सुनामी को चुनौती मिलनी बेहद जरूरी थी. सो वंशवाद की राजनीति के इतर अगर देखें तो देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी के वारिस का मजबूत होना शुभ संकेत है. लेकिन डर इस बात का है कि धर्म की राजनीति करने वाली भाजपा को चुनौती देते-देते कहीं राहुल खुद भी तो नहीं धर्म की राजनीति करने लगे हैं? कई बार प्रतिद्वंदी को हराने के चक्कर में हम उसको उसी की चालों से परास्त करते हैं.
परास्त करने तक तो ठीक है लेकिन अगर राहुल गांधी को धर्म की राजनीति की लत लग गई तो जनता के लिए सत्ता नहीं बल्कि केवल चेहरा बदलेगा क्योंकि विचार सत्ता पर जस का तस काबिज रहेगा. राहुल ने इस बीच भाजपा को कई बार उनके अचूक अस्त्र धर्म से ही परास्त किया. मठ-मंदिर, गोत्र, जनेऊ सबकुछ का इस्तेमाल किया.
राहुल गांधी को बुल्ले शाह की ये लाइनें जरूर पढ़नी चाहिए और सावधानी पूर्वक विचार भी करना चाहिए. 'रांझा रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई. रांझा मैं विच्च मैं रांझे विच्च, होर ख़्याल ना कोई.' यानी रांझा-रांझा करते-करते हीर खुद रांझा हो गई. हीर और रांझे में कोई अंतर नहीं रहा. सकारात्मक विचारों का एक दूसरे में घुल जाना ठीक है. लेकिन भाजपा-भाजपा करते हुए खुद राहुल का भाजपा हो जाना देश की सेहत के लिए खतरनाक है.
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