राजनीति के जानकर लोगों का कहना है कि भाजपा आने वाले लोकसभा चुनाव में किसी भी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहती है. हालांकि साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन काफी अच्छा था लेकिन बीते 4 सालों में कई राजनीतिक बदलाव हुए हैं. भाजपा नहीं चाहेगी कि इसका असर लोकसभा के चुनाव पर पड़े इसलिए क्षेत्रीय दलों को साथ लाने के लिए पार्टी पूरी मेहनत कर रही है. अब देखना ये होगा कि 2024 तक भाजपा कौन-कौन सी पार्टी को अपने साथ लाने में सफल हो पाएगी. ध्यान देने योग्य बात है कि नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन ने कहा था कि यह सोचना 'भूल होगी’' कि 2024 का लोकसभा चुनाव एकतरफा तरीके से भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में होगा. उन्होंने कहा था कि आगामी आम चुनाव में क्षेत्रीय दलों की भूमिका 'साफ तौर पर महत्वपूर्ण; होगी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले 303 सीटों का आंकड़ा पार कर लिया था. लेकिन साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में यही पार्टी कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों को अपने पाले में लाना चाहती है.
आने वाले लोकसभा चुनाव से पहले जहां एक तरफ सभी विपक्षी पार्टियां एक दूसरे के साथ गठबंधन कर भाजपा को चुनौती देने की तैयारी में है वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी अपना दल से लेकर लोक जनशक्ति पार्टी तक, नेशनल पीपल’स पार्टी से लेकर टिपरा मोथा तक, सभी क्षेत्रीय पार्टी को अपने साथ मिलाना चाहती है. लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्यों? 2024 के चुनाव में क्षेत्रीय पार्टी का साथ होना भाजपा के लिए कितना जरूरी है?
भले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले अपने दम पर जीत का आकंड़ा पार कर लिया था. 303 सीटें जीतकर पार्टी ने ये साबित कर दिया कि वो अकेले सरकार बनाने में सक्षम है. लेकिन पिछले 4 सालों में जो हुआ उसका अनुमान शायद ही भाजपा ने लगाया होगा. जहां एक तरफ भाजपा अलग-अलग राज्यों में फिर चाहे वो गुजरात हो या मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश हो या हरियाणा सरकार बना रही थी वहीं कुछ राज्यों में भाजपा के दोस्त यानी कि गठबंधन वाली पार्टियां उसका साथ छोड़ रही थी.
बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी, लव हेट रिश्ता रखने वाली जनता दल यूनाइटेड, गोवा में विजय सरदेसाई की गोवा फॉरवर्ड पार्टी, तमिलनाडु की DMDK, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड की मांग करने वाली गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, राजस्थान की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और पंजाब में शिरोमणि अकाली दल. ये वो पार्टियां है जिन्होंने भाजपा का साथ 2019 के बाद छोड़ दिया. इन पार्टियों की अपने-अपने क्षेत्र की राजनीति में अच्छी खासी पकड़ थी.
वहीं इनके अलावा कई पार्टियां ऐसी रही जिन्होंने भाजपा का साथ तो नहीं छोड़ा लेकिन उनके अंदर खुद मतभेद देखने को मिले. जैसे शिवसेना. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा ने मिल कर चुनाव लड़ा था और 48 में से 41 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन अभी एक साल पहले शिवसेना में क्या हुआ ये हम सबने देखा. अब शिवसेना भी दो भाग में बंट गई है.
यहां दिलचस्प बात ये है कि इतने राजनीतिक उठापटक के बाद भी इस राज्य में सरकार बनाने के लिए भाजपा को महाराष्ट्र की पार्टी शिवसेना की ज़रूरत पड़ ही गई और दोनों ने मिलकर वहां सरकार बनाई. और लोकसभा चुनाव में भी यही उम्मीद है कि दोनों साथ चुनाव लड़ेंगे. उसके बाद आती है लोक जनशक्ति पार्टी. लोजपा ने भी साल 2019 में भाजपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था लेकिन 4 साल में गठबंधन का पूरा गणित ही बिगड़ गया.
राम विलास पासवान के निधन के बाद चिराग पासवान ने 2020 में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया था. फिर पार्टी में चाचा पशुपति पारस और चिराग पासवान के बीच मतभेद होने लगा फिर पशुपति पारस ने सांसदों के साथ मिल कर पार्टी का अलग गुट बना लिया और उससे भाजपा को समर्थन दिया. तो उससे भी सीधे तौर भाजपा को कुछ खास नुकसान नहीं हुआ. हालांकि कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है कि ये भाजपा का ही प्लान था.
पिछले 4 सालो में भाजपा को सबसे बड़ा नुकसान खासकर 3 पार्टियों से हुआ है. वह तीन पार्टियां हैं शिरोमणि अकाली दल, जनता दल यूनाइटेड और शिवसेना. अब सवाल उठता है कि क्या इन तीनों पार्टियों के अलग होने से वाकई भाजपा को आने वाले लोकसभा चुनाव में सीटों का नुकसान होगा? पर राजनीति की जानकारी रखने वालों का मानना है कि ये वो पार्टियां है जिनका वर्तमान में उनके राज्य में दबदबा कम हो गया है.'
पंजाब की बात करें तो शिरोमणि अकाली दल साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में हमने देखा था कि कैसे एक समय पर पंजाब की सबसे बड़ी पार्टी मात्र 3 सीटों पर सिमट कर रह गई. SAD का साथ छूटने से भाजपा को कुछ खास फायदा या नुकसान नहीं मिलेगा. कांग्रेस से टूटकर बना केप्टन का दल वैसे ही भाजपा के साथ आ चुका है.
महाराष्ट्र में अगर शिवसेना की बात करें तो 48 लोकसभा सीट काफी ज्यादा होते है लेकिन यहां इंटरेस्टिंग बात ये है कि शिवसेना का बड़ा गुट अभी भी भाजपा के साथ है. भाजपा को उसका महत्व पता है इसलिए पार्टी बिलकुल नहीं चाहती है कि ये साथ छूटे. इस राज्य में भाजपा 23 सीट जीत चुकी है. यहां कुल 48 सीटें हैं. पिछले चुनाव में शिवसेना 18 जीती थी. इस बार 25 सीट पर विशेष फोकस है.
क्योंकि कांग्रेस-एनसीपी के साथ उद्धव ठाकरे भी हैं. हाल ही में सीएसडीएस के सर्वे में महाराष्ट्र में भाजपा के सीटों में कमी आने की बात कही गई है एक्सपर्ट्स का मानना है कि बिहार में जेडीयू का साथ छूट जाने से भाजपा को ज़रूर नुकसान होगा क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी+ जेडीयू + एलजेपी ने मिल कर 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी.
बिहार में एकदम क्लीन स्वीप हुआ था लेकिन इस बार ऐसा या इसके आस पास भी पहुंच पाना भाजपा के लिए काफी मुश्किल होगा . इसलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एनडीए से अलग होने के बाद अकेली पड़ी भाजपा अपना कुनबा बढ़ाने की दिशा में कवायद तेज कर दी है. भाजपा बिहार की छोटी पार्टियों पर ज्यादा ध्यान दे रही है. पिछले लोकसभा चुनाव में जेडीयू को 16 सीटें मिली थी. लेकिन इसबार एनडीए से अलग होने के कारण भाजपा को इन 16 सीटों का नुकसान हो सकता है.
यही कारण है कि पार्टी राज्य की क्षेत्रीय पार्टी का रुख कर रही है. भाजपा उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक जनता दल और एलजेपी को अपने साथ ला सकती है. भाजपा का साथ छोड़ने के कारण जो जेडीयू के ओबीसी वोटर्स जो भाजपा के पाले में जाने वाले थे वो पूरे तो नहीं पर कुछ इन पार्टियों पर ज़रूर भरोसा दिखाएंगे. उपेंद्र कुशवाहा का 13 से 14 जिलों में प्रभाव है और वोट के हिसाब से प्रदेश में कुशवाहा की करीब 5 से 6 फीसदी आबादी है.
पासवान समाज दलित में आता है और प्रदेश में उसकी करीब 4.2 फीसदी हिस्सेदारी है. इस तरह मांझी समुदाय की आबादी भी करीब 4 फीसदी है. हाल ही में भाजपा बिहार के अध्यक्ष संजय जायसवाल ने चिराग पासवान से भी मुलाकात की थी. छोटी छोटी पार्टियों में देखे तो एलजीपी का अपना बोलबाला है. ये वो पार्टियां है जो बहुत ज्यादा बड़ी तो नहीं है लेकिन राज्य की राजनीति पर इनका प्रभाव है और भाजपा ऐसी ही पार्टियों के साथ बातचीत कर रही है.
यहां पर राजद और जदयू समेत 7 पार्टियों का गठबंधन सामने है. 2014 में जेडीयू से अलग होकर भाजपा 31 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 9 सीटों पर गठबंधन को जीत मिली थी. बिहार में गठबंधन कर भाजपा 10 सीटों पर मजबूत उपस्थिति दर्ज कराना चाह रही है. 2019 में भाजपा को 17 सीटें मिली थी. यहां भाजपा ने 25 प्लस का टारगेट रखा है.
बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश में भी भाजपा कई क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ लाना चाहती है. फिर चाहे वो निषाद समुदाय को साथ लाने वाली निषाद पार्टी हो या फिर कुर्मी वोट बैंक पर ध्यान देते हुए अपना दल का साथ देना. या फिर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर से बातचीत करना. अगर यहां इन छोटी पार्टियों का साथ मिल जाता है तो भाजपा को लगभग 10 सीटों का फायदा हो सकता है.
यही कारण है कि भाजपा लगातार छोटी पार्टियों को साथ लाने की कोशिश कर रही है. और ये कोशिश केवल उत्तर प्रदेश बिहार तक ही सिमित नहीं है. - इस राज्य में 16 सीटों पर भाजपा को हार मिली थी. इनमें पूर्वांचल की 10 सीटें हैं. इन इलाकों में राजभर वोटर्स काफी प्रभावी माने जाते हैं. भाजपा इसलिए ओम प्रकाश राजभर को साध रही है. जाट और नॉन जाट की सियासत में भाजपा के लिए हरियाणा की डगर मुश्किल है. पार्टी इस बार जननायक जनता पार्टी से चुनाव से पहले गठबंधन करेगी.
नॉर्थ ईस्ट की बात करे तो त्रिपुरा इलेक्शन में सबसे ज्यादा चर्चा में आई पार्टी टिपरा मोथा के साथ भी भाजपा गठबंधन करना चाहती है क्योंकि आदिवासी इलाकों में टिपरा मोथा की पकड़ काफी अच्छी बन गई है. वही नागालैंड में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी और वही मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी के साथ भाजपा का गठबंधन पहले से है जिससे उस क्षेत्र में भाजपा की पकड़ लोकसभा के लिहाज से काफी मजबूत हो गई है.
अगर बात साउथ की करे तो केरल में भाजपा भरत बीडीजेएस, एआईएडीएमके, जेआरएस, केरल कांग्रेस (राष्ट्रवादी), केकेसी, एसजेडी इन पार्टियों का साथ बरकरार रखना चाहती है. केरल के आर्क बिशप द्वारा भाजपा को लेकर दिए बयान पर ध्यान देना आवश्यक है. बिशप ने कहा है कि चर्च में विश्वास करने वाले भारतीय जनता पार्टी की मदद करेंगे और राज्य से अपना पहला सांसद चुनेंगे.
तमिलनाडु में भाजपा AIADMK को अपने साथ रखने की पूरी कोशिश कर रही है हालांकि लोकल बॉडी इलेक्शन में दोनों पार्टियों ने गठबंधन तोड़ लिया था लेकिन 2024 को लेकर दोनों ही पार्टियों का कहना है कि साथ में ही लड़ेंगे. जहां-जहां भाजपा की बिना गठबंधन की सरकार है वहां-वहां भाजपा रीजनल पार्टीज पर ज्यादा ध्यान है. दक्षिण भारत भाजपा के लिए काफी ज्यादा महत्वपूर्ण है. इस क्षेत्र में 133 लोकसभा सीटों पर चुनाव होने हैं जिस पर जीत हासिल करना भाजपा के लिए बहुत जरूरी है.
अगर कर्नाटक को छोड़ दे तो साउथ के हर राज्य में भाजपा स्ट्रगल कर रही है. और इसी का समाधान निकालने के लिए पार्टी ने 18 साल बाद तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में राष्ट्र कार्यकारिणी की बैठक की थी. जिसमें दक्षिण में पार्टी का विस्तार कैसे हो इस पर खास ध्यान दिया गया था.साउथ में अगर भाजपा को पैर पसारना है तो बहुत जरूरी होगा कि भारतीय जनता पार्टी इन राज्यों के क्षेत्रीय पार्टियों से हाथ मिलाए.
KCR की पार्टी के कई नेता भी कई बार केंद्र सरकार की तारीफ करते हुए नजर आ चुके हैं. भाजपा चाहेगी की ये सब छोटी छोटी पार्टियों का साथ उन्हें ही मिले. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि इस समय भाजपा की संगठित चुनावी मशीनरी और आक्रामक प्रचार शैली ने क्षेत्रीय दलों को इस कदर भयभीत कर रखा है कि वे भारतीय लोकतंत्र को लेकर एक प्रकार के राजनीतिक नियतिवाद में फंस गए हैं. इसका यह अर्थ है कि चुनाव कोई भी लड़े पर जीतेगी भाजपा ही.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में और संघ परिवार के सहयोग से काम कर रही भाजपा को हराना संभव नहीं है. इसलिए वे अब सोचने लगे हैं कि जब भाजपा को टकराना संभव नहीं है और उसी को सत्ता में आना है तो कांग्रेस के साथ गठबंधन करके क्यों उससे कड़ी दुश्मनी पाली जाए. अपनी क्षेत्रीय अस्मिता वाली और आर्थिक राजनीतिक विचार वाली वैकल्पिक दृष्टि को उसी के व्यापक खांचे में रखा जाए ताकि उनकी पार्टियों और सरकारों को केंद्रीय आर्थिक इमदाद देती रहे और उन पर केद्रीय एजेंसियों के माध्यम से कड़ी कार्रवाई न करे.
यह राजनीतिक नियतिवाद लोकतंत्र के भविष्य और उसकी जीवंतता के लिए सबसे घातक सोच है. यह एक प्रकार का पराजयवाद और हताशा है जो हमारे बहुत सारे क्षेत्रीय दलों और उसके नेताओं में व्याप्त है. वह उन्हें नए किस्म से सोचने का मौका नहीं देती और न ही किसी नए मार्ग पर चलने का साहस देती है. यह सोच उनके क्षेत्रीय किलों को ज्यादा समय तक बचा नहीं सकती और उन्हें भाजपा की छत्रछाया में आने को मजबूर कर सकती है.
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