मध्यप्रदेश का सियासी संकट थमने का नाम नहीं ले रहा है. कुछ कांग्रेस विधायकों के रडार से गायब होने और वापस लौट आने का दौर जारी है. एक विधायक ने इस्तीफा दे दिया है, और कई और ऐसे ही तेवर अपनाए हुए हैं. इस आपाधापी में निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह सेरा ने वक्त की नजाकत को देखते हुए कह दिया कि उन्हें गृह मंत्री पद दिया जाना चाहिए. खैर, 'ऑपरेशन लोटस' के नाम पर चल रही यह सियासी जंग दरअसल कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच की कश्मकश है.मध्यप्रदेश में पिछले दिनों से चल रही सियासी सरगर्मी तब उफान आ गया, जब सिंधिया के प्रभाव वाले 4 समेत करीब 16 विधायकों के मोबाइल फोन अचानक बंद हो गए. खबर आई कि वे बेंगलुरु पहुंच गए हैं. राज्य की विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्षी भाजपा के बीच सिर्फ 14 सीटों का ही फासला है. लेकिन जैसे जैसे तस्वीर साफ हुई, ये इस खेल के पीछे कांग्रेस की ही अंतर्कलह दिखाई देने लगी. मध्यप्रदेश की उठापटक भले ऑपरेशन कमल ना हो, लेकिन सारा दबाव मुख्यमंत्री कमलनाथ पर ही है.
मध्यप्रदेश के संकट की टाइमिंग
मध्यप्रदेश के ताजा राजनीतिक संकट को लेकर शुरू से कहा जा रहा है कि यह उठापटक राज्य सभा टिकट को लेकर है. खुद कमलनाथ सरकार में वन मंत्री उमंग सिंघार इस बारे में इशारा कर चुके हैं. लेकिन अब राज्य सभा का टिकट सिर्फ मौका भर है. 13 मार्च राज्य सभा चुनाव के लिए नॉमिनेशन फाइल करने की आखिरी तारीख है. अब इसी तरीख को ध्यान में रखकर मध्यप्रदेश कांग्रेस के सभी धड़े अपना अपना हिसाब पूरा कर लेना चाहते हैं.
किसको किस बात की उम्मीद:
1. ज्योतिरादित्य सिंधिया: लंबे अरसे से सत्ता के हाशिए पर बैठे ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास यही मौका है. विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उनका दावा तो मुख्यमंत्री पद पर था, लेकिन ऐसा न हुआ. इसके उलट उन्हें मध्यप्रदेश कांग्रेस सरकार ही नहीं, संगठन में भी किनारे से लगा दिया गया. कमलनाथ ही मुख्यमंत्री भी हैं, और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी. लंबे अरसे से...
मध्यप्रदेश का सियासी संकट थमने का नाम नहीं ले रहा है. कुछ कांग्रेस विधायकों के रडार से गायब होने और वापस लौट आने का दौर जारी है. एक विधायक ने इस्तीफा दे दिया है, और कई और ऐसे ही तेवर अपनाए हुए हैं. इस आपाधापी में निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह सेरा ने वक्त की नजाकत को देखते हुए कह दिया कि उन्हें गृह मंत्री पद दिया जाना चाहिए. खैर, 'ऑपरेशन लोटस' के नाम पर चल रही यह सियासी जंग दरअसल कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच की कश्मकश है.मध्यप्रदेश में पिछले दिनों से चल रही सियासी सरगर्मी तब उफान आ गया, जब सिंधिया के प्रभाव वाले 4 समेत करीब 16 विधायकों के मोबाइल फोन अचानक बंद हो गए. खबर आई कि वे बेंगलुरु पहुंच गए हैं. राज्य की विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्षी भाजपा के बीच सिर्फ 14 सीटों का ही फासला है. लेकिन जैसे जैसे तस्वीर साफ हुई, ये इस खेल के पीछे कांग्रेस की ही अंतर्कलह दिखाई देने लगी. मध्यप्रदेश की उठापटक भले ऑपरेशन कमल ना हो, लेकिन सारा दबाव मुख्यमंत्री कमलनाथ पर ही है.
मध्यप्रदेश के संकट की टाइमिंग
मध्यप्रदेश के ताजा राजनीतिक संकट को लेकर शुरू से कहा जा रहा है कि यह उठापटक राज्य सभा टिकट को लेकर है. खुद कमलनाथ सरकार में वन मंत्री उमंग सिंघार इस बारे में इशारा कर चुके हैं. लेकिन अब राज्य सभा का टिकट सिर्फ मौका भर है. 13 मार्च राज्य सभा चुनाव के लिए नॉमिनेशन फाइल करने की आखिरी तारीख है. अब इसी तरीख को ध्यान में रखकर मध्यप्रदेश कांग्रेस के सभी धड़े अपना अपना हिसाब पूरा कर लेना चाहते हैं.
किसको किस बात की उम्मीद:
1. ज्योतिरादित्य सिंधिया: लंबे अरसे से सत्ता के हाशिए पर बैठे ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास यही मौका है. विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उनका दावा तो मुख्यमंत्री पद पर था, लेकिन ऐसा न हुआ. इसके उलट उन्हें मध्यप्रदेश कांग्रेस सरकार ही नहीं, संगठन में भी किनारे से लगा दिया गया. कमलनाथ ही मुख्यमंत्री भी हैं, और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी. लंबे अरसे से कमलनाथ सरकार पर दबाव बनाए ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास यही मौका है. अभी नहीं तो कभी नहीं. लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद वे राज्य सभा में तो जाना चाहेंगे, लेकिन इससे पहले वे राज्य की सियासत में अपनी पैठ गहरी कर लेना चाहते हैं. ज्योतिरादित्य को अब वो सब चाहिए, जिसका मजा दिग्विजय सिंह लेते आए हैं. उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद चाहिए. सरकार में अपने समर्थक विधायकों के लिए बड़े मंत्री पद. और राज्य सभा का टिकट. यदि उन्हें यह टिकट न मिले तो प्रियंका गांधी को उम्मीदवार बनाया जाए. यानी दिग्विजय सिंह को नहीं.
2. दिग्विजय सिंह: 1993 से 2003 मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने करीब 17 साल कांग्रेस में चाणक्य की ही भूमिका निभाई. 2018 विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस जीती तो वे कमलनाथ सरकार के संकटमोचक बन गए. कुछ संकट तो उन्होंने ही खड़े किए, ताकि उसे दूर कर सकें. नतीजे में उनके बेटे सहित सभी प्रमुख समर्थकों को कमलनाथ सरकार के मंत्रिमंडल में जगह मिल गई. लेकिन दिग्विजय अब पर्दे के पीछे का खेल करते करते बोर हो गए हैं. उन्हें संसद जाना है. राज्य सभा का टिकट चाहिए. कमलनाथ की ओर से इस पर कोई आपत्ति भी नहीं है. वे तो सिर्फ ये चाहते हैं कि सरकार के संचालन में कोई विघ्न बाधा न आए. उनके लिए दिग्विजय सिंह इसी बात की गारंटी हैं. दिग्विजय अपने इस रुतबे को अच्छी तरह जानते हैं. उन्होंने कमलनाथ को यह अच्छी तरह समझा दिया है कि ऐसा तभी हो सकता है जब सिंधिया को सूबे की सियासत से दूर रखा जाए. सत्ता से भी, संगठन से भी.
3. कमलनाथ: विधानसभा चुनाव नतीजे कांग्रेस के लिए बहुत ज्यादा उत्साहजनक नहीं थे. 230 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 114 और भाजपा को 109 सीटें मिली थीं. यानी 115 सीटों के बहुमत के आंकड़े से देखें तो टेक्निकली दोनों अल्पमत में दूर थी. लेकिन कांग्रेस के लिए सत्ता का फासला 1 सीट का था, तो बीजेपी के लिए 6 सीट का. ऐसी परिस्थिति में कमलनाथ जैसे नेता के लिए बहुमत जुटा पाना बाएं हाथ का खेल होता, और हुआ भी. कमलनाथ हमेशा यह समझते रहे कि भाजपा और कांग्रेस के बीच सीटों का फासला भले कम हो, लेकिन यदि कांग्रेसी कुनबा एक रहा तो उन्हें परेशानी नहीं होगी. लेकिन, कमलनाथ सभी नेताओं को साधते-साधते दिग्विजय सिंह के कुछ ज्यादा ही नजदीक हो गए. ये नजदीकी इतनी ज्यादा हो गई कि कांग्रेस के अलग अलग धड़ों को साफ साफ दिखाई देने लगी. अब जबकि कांग्रेस के धड़ों की लड़ाई इतनी गंभीर हो गई है कि उनका सिर बचना मुश्किल हो रहा है, तो उनके लिए सबसे चुनौतीपूर्ण होगा किसी 'समझौता-फॉर्मूले' के लिए सबको तैयार कर पाना.
4. कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व: मप्र के सत्ता संघर्ष में रोल तो कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का भी है. देखिए, कर्नाटक में सरकार भले भाजपा की हो, लेकिन बेंगलुरु में रहते तो कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार भी हैं. यदि कांग्रेस के 'बागी' विधायक बेंगलुरु जा रहे हैं तो वहां कोई कांग्रेसी उनका ख्याल रख रहा है. दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद कांग्रेस का नेतृत्व हताश है. राहुल गांधी ने खुद को तमाम जिम्मेदारियों से दूर किया हुआ है. कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच साम्य बैठा पाना कठिन है. लेकिन, कांग्रेस के पुराने फैसलों को देखें तो पार्टी चाहेगी कि मध्यप्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य के बीच वही तालमेल बन जाए जैसा राजस्थान में अशोक गेहलोत और सचिन पायलट के बीच है. एक वरिष्ठ बुजुर्ग नेता और उसका सहायक एक तेजतर्रार युवा नेता. और वैसे भी राहुल गांधी की वापसी पर भरोसा रखने वाले कांग्रेस नेता किसी और युवा नेता को केंद्रीय नेतृत्व में जगह नहीं बनाने देना चाहते. ऐसे में ज्योतिरादित्य के लिए कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में खास स्कोप नहीं है.
समझौता फॉर्मूला: मध्यप्रदेश के मौजूदा राजनीतिक संकट में जो समझौते की गुंजाइश नजर आती है, वो ये है कि कमलनाथ ज्योतिरादित्य की महत्वाकांक्षाओं को शांत करें, और उसमें दिग्विजय सिंह की भी सहमति हो. कमलनाथ चाहेंगे कि ज्योतिरादित्य के कुछ समर्थक विधायकों को मंत्री बनाने से बात बन जाए. वे उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद भी ऑफर कर सकते हैं. हालांकि, ज्योतिरादित्य इस ऑफर को विधानसभा चुनाव नतीजे आने के बाद ठुकरा चुके हैं. कमलनाथ बड़े भारी मन से ज्योतिरादित्य को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद भी दे सकते हैं. बशर्ते सिंधिया उनकी सरकार और मंत्रिमंडल से छेड़छाड़ न करें. इन ऑफर्स से दिग्विजय को भी ऐतराज नहीं होगा. उनके लिए राज्य सभा का रास्ता खुल जाएगा. कमलनाथ का भरोसा उन्हें हासिल है ही.
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