महाराष्ट्र (Maharashtra) के सियासी ड्रामे में नया ट्विस्ट उस वक़्त आया जब सूबे में राष्ट्रपति शासन (President Rule In Maharashtra) लगाए जाने की बात हुई. ऐसे में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस (ShivSena, NCP Congress) के ऊपर लटक रही समय-सीमा की तलवार हट गई है. महाराष्ट्र में चल रहा ये गतिरोध अब इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि राउंड टू के दौरान पूरी लड़ाई का स्वरुप ही बदल चुका है. माना जा रहा है कि महाराष्ट्र की राजनीति के अंतर्गत अब जो लड़ाई शुरू हुई है वो असली लड़ाई है. आने वाले समय में वो मुद्दे हथियार बनेंगे, जिन्हें फ़िलहाल इन तीनों ही पार्टियों ने ढाल बनाया और अपने अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते ये एक हुए हैं. शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस एक साथ एक मंच पर आई हैं. भाजपा जो कि पहले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की दौड़ से अपने को अलग कर चुकी थी. सवाल ये भी बरक़रार है कि क्या वो यूं ही चुपचाप बैठेगी और सब कुछ देखती रहेगी? या फिर उसका कोई प्लान बी भी है जिसे वो आने वाले वक़्त में वो अमली जामा पहना सकती है.
शिवसेना: क्या चुनौती?
पहले भाजपा के साथ 30 सालों का साथ छूटना. फिर सरकार बनाने के लिए उचित नंबर न जुटा पाना. कह सकते हैं कि इस पूरे मामले में अगर किसी की सबसे ज्यादा किरकिरी हुई है तो वो शिवसेना और स्वयं पार्टी के मुखिया उद्धव ठाकरे हैं. अब जब बात ऐसी हो तो जाहिर है कि पार्टी और पार्टी के मुखिया उद्धव के सामने तमाम तरह की चुनौतियां भी होगी. तो आइये नजर डालें कि इस दूसरे राउंड में किन किन चुनौतियों का सामना कर सकती है शिवसेना.
सरकार में पदों को लेकर- महाराष्ट्र का पूरा...
महाराष्ट्र (Maharashtra) के सियासी ड्रामे में नया ट्विस्ट उस वक़्त आया जब सूबे में राष्ट्रपति शासन (President Rule In Maharashtra) लगाए जाने की बात हुई. ऐसे में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस (ShivSena, NCP Congress) के ऊपर लटक रही समय-सीमा की तलवार हट गई है. महाराष्ट्र में चल रहा ये गतिरोध अब इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि राउंड टू के दौरान पूरी लड़ाई का स्वरुप ही बदल चुका है. माना जा रहा है कि महाराष्ट्र की राजनीति के अंतर्गत अब जो लड़ाई शुरू हुई है वो असली लड़ाई है. आने वाले समय में वो मुद्दे हथियार बनेंगे, जिन्हें फ़िलहाल इन तीनों ही पार्टियों ने ढाल बनाया और अपने अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते ये एक हुए हैं. शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस एक साथ एक मंच पर आई हैं. भाजपा जो कि पहले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की दौड़ से अपने को अलग कर चुकी थी. सवाल ये भी बरक़रार है कि क्या वो यूं ही चुपचाप बैठेगी और सब कुछ देखती रहेगी? या फिर उसका कोई प्लान बी भी है जिसे वो आने वाले वक़्त में वो अमली जामा पहना सकती है.
शिवसेना: क्या चुनौती?
पहले भाजपा के साथ 30 सालों का साथ छूटना. फिर सरकार बनाने के लिए उचित नंबर न जुटा पाना. कह सकते हैं कि इस पूरे मामले में अगर किसी की सबसे ज्यादा किरकिरी हुई है तो वो शिवसेना और स्वयं पार्टी के मुखिया उद्धव ठाकरे हैं. अब जब बात ऐसी हो तो जाहिर है कि पार्टी और पार्टी के मुखिया उद्धव के सामने तमाम तरह की चुनौतियां भी होगी. तो आइये नजर डालें कि इस दूसरे राउंड में किन किन चुनौतियों का सामना कर सकती है शिवसेना.
सरकार में पदों को लेकर- महाराष्ट्र का पूरा सियासी गणित देखकर साफ़ है कि यहां शरद पवार किंग मेकर की भूमिका में हैं और साफ़ तौर पर उन्होंने शिवसेना के ऊपर एक बड़ा एहसान किया है. ऐसे में जब बात सरकार बनाने और मलाई खाने की आयगी तो महाराष्ट्र की सियासत में जैसा उनका कद रहा है. कहा जा सकता है वो पीछे नहीं हटने वाले. ऐसे में जब महाराष्ट्र में नया मंत्रिमंडल गठित होगा तो उनका अच्छे पदों की डिमांड करना स्वाभाविक है. देखना दिलचस्प रहेगा कि उद्धव उनकी ये मांग पूरी कर पाएंगे या नहीं.
सरकार के मुद्दों और नीतियों को लेकर- चाहे वो मराठी हितों की बातें हों या फिर किसानों की समस्या. तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिनपर शिवसेना और एनसीपी एक मत हैं. साथ ही जिन्हें आधार बनाकर दोनों ही दल एकसाथ एक मंच पर आ रहे हैं. ऐसे में इन मुद्दों और नीतियों को साधना भी आने वाले वक़्त में शिवसेना के लिए किसी टेढ़ी खीर सरीखा होने वाला है.
कांग्रेस-एनसीपी से खुद को सेक्यूलर मनवा पाना- चाहे हिंदुत्व की राजनीति हो या फिर दलितों पर अपने विचार शिवसेना अब तक अपनी बातों पर बिलकुल स्पष्ट रही है. लोग पूर्व में देख चुके हैं कि इन चीजों को लेकर शिवसेना का स्टैंड कैसा है? वहीं जब बात कांग्रेस और एनसीपी की हो तो इनका मुस्लिम / दलित परस्त होना पूरे देश में मशहूर है. पूर्व में ऐसे तमाम मौके भी आये हैं जब सिर्फ इन्हीं चीजों को लेकर आलोचकों ने कांग्रेस की तीखी आलोचना की है. बात चूंकि शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन की चल रही है तो बताना जरूरी है कि इस गठबंधन में जो सबसे बड़ी चुनौती शिवसेना के सामने रहेगी वो ये कि उसे कैसे भी करके अपने आप को कांग्रेस-एनसीपी के सामने सेक्यूलर घोषित करना होगा. साथ ही उसे ये भी प्रयास करने होंगे कि कांग्रेस-एनसीपी इस बात को मान जाएं.
एनसीपी: क्या बढ़त?
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणामों पर अगर नजर डाली जाए तो मिलता है कि यहां भाजपा नंबर एक, शिवसेना नंबर दो, एनसीपी नंबर तीन और कांग्रेस नंबर 4 की पोजीशन में थी. मगर जैसा गतिरोध राज्य में देखने को मिला है शरद पवार और उनका दल एनसीपी ऊपर आ गए हैं और उन्होंने अपनी बढ़त कायम रखी है. यानी इस समय जैसे हालत हैं ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि महाराष्ट्र की राजनीति के अंतर्गत इस वक़्त शरद पवार किंगमेकर की भूमिका में हैं. यानी उनका सिर कढ़ाई और पांचों अंगुलियां घी में हैं. आइये कुछ बिन्दुओं के जरिये समझा जाए कि कैसे महाराष्ट्र का ये चुनाव शरद पवार के बागों में बहार लाया है और सीधे तौर पर उन्हें फायदा पहुंचा रहा है.
महाराष्ट्र में राजनीतिक अस्थिरता को दूर करने की केंद्रीय भूमिका में - इस समय तक ये बात साबित हो गई है कि महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार का कोई सानी नहीं है. 2019 के इस विधानसभा चुनाव में किसी हीरो की तरह उभरे शरद पवार, हमें साफ़ तौर पर महाराष्ट्र में राजनीतिक अस्थिरता को दूर करने की केंद्रीय भूमिका में नजर आ रहे हैं. जिस तरह उन्होंने अंधेरे में रास्ता खोज रही शिवसेना के लिए दिए का काम किया है. स्पष्ट कर देता है कि वही वो हुक है जो किसी तूफान से महाराष्ट्र की रक्षा कर सकते हैं.
शिवसेना और कांग्रेस के बीच ब्रिज की भूमिका- चाहे मुद्दों की राजनीति हो या फिर विचारधारा की लड़ाई. कांग्रेस और शिवसेना दो बिलकुल अलग धूरियों पर खड़ी रही हैं. अब चूंकि सरकार बनाने के लिए शिवसेना और उसकी धुर विरोधी कांग्रेस एक मंच पर आ गई है तो इस दोनों के बीच एनसीपी या ये कहें कि शरद पवार एक ब्रिज की भूमिका में हैं. आगे अगर कभी किसी बात को लेकर मतभेद हुआ तो निश्चित रूप से शरद पवार समझौता कराने की सलाहियत रखते हैं.
मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए 50-50 बंटवारा करवाने की हैसियत- चूंकि शरद पवार एक बहुत ही मजबूत स्थिति में है तो वो मुंह खोलकर शिवसेना से मुख्यमंत्री का 2.5 साल का कार्यकाल मांग सकते हैं और उनका ये करना वर्तमान परिस्थितियों में उनकी हैसियत को सूट भी करता है. महाराष्ट्र की सियासत में अभी तक जो उनका रुतबा रहा है शिवसेना शायद ही उनकी इस मांग को खारिज करे.
कांग्रेस: क्या पसोपेश?
हालिया महाराष्ट्र चुनाव में कांग्रेस ने 2014 का रवैया दोहराया है और अपनी नंबर 4 की पोजीशन को बरक़रार रखा है. बात अगर केंद्र की राजनीति की हो तो वहां भी कांग्रेस अपने अंतिम दिन गिन रही है. अब जब महाराष्ट्र के अंतर्गत उसे मौका मिला है तो ऐसी तमाम पशोपेश हैं जिसका सामना वो कर रही है. यानी कुल मिलाकर कहा जाए तो महाराष्ट्र में भी कांग्रेस की स्थिति क्या करे क्या न करे वाली है.
सत्ता में स्पीकर और उपमुख्यमंत्री का पद - जिस वक़्त भाजपा मुख्यमंत्री की रेस से बहार हुई और बात आई कि महाराष्ट्र में सरकार तभी बन सकती है जब शिवसेना एनसीपी के साथ हो जाए कांग्रेस के अच्छे दिनों की शुरुआत उसी वक़्त से हुई. अब क्योंकि केंद्र की राजनीति में एनसीपी कांग्रेस के साथ है इसलिए इन कयासों के साथ ही तय हो गया था कांग्रेस को कुछ बड़ा मिलने वाला है. बाद में जब ये गठबंधन पुख्ता हो गया तो कांग्रेस ने एनसीपी और शिवसेना दोनों के सामने शर्त रखी कि सदन में स्पीकर उसी का होगा.
अब जबकि महाराष्ट्र का समर अपने सबसे अहम पड़ाव की ओर आ गया है तब कांग्रेस ने एक और शर्त रख दी है. अंदरखाने में ख़बरें हैं कि अब कांग्रेस अपना उपमुख्यमंत्री मांग रही है. यानी एक ऐसे वक़्त में जब ढाई साल शिवसेना सरकार चलाएगी और बाकी के बचे ढाई साल एनसीपी के होंगे तो इन पूरे पांच सालोँ में उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर कांग्रेस अपने आदमी को बैठाना चाहती है. कांग्रेस के सामने कशमकश ये है कि वो महाराष्ट्र के इस सियासी गतिरोध में ये सब करेगी कैसे ?
सरकार के लिए ऐसी नीतियां तय करवाना, जिससे शिवसेना के साथ गठबंधन के बावजूद उस पर सांप्रदायिक ताकत से हाथ मिलाने का दाग न लगे.
जैसा कि हम ऊपर इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि कांग्रेस और शिवसेना की विचारधारा में एक बड़ा अंतर है. इसलिए अब जबकि सरकार बनाने के लिए वो शिवसेना से हाथ मिला चुकी है तो भविष्य में आलोचना का होना स्वाभाविक है. सरकार बनने के बाद कांग्रेस सरकार से अवश्य उन नीतियों का निर्धारण करवाएगी जिसमें उसके दामन पर ये दाग न लगे कि उसने एक ऐसे दल को अपना दामन संभालने का मौका दिया है जो घोर सांप्रदायिक है और ऐसे बयान देती है जिससे देश और सम्प्रदायों का आपसी तानाबाना प्रभावित होता है.
बीजेपी: क्या उम्मीद?
महाराष्ट्र के सन्दर्भ में भाजपा तमाम मौक़े गंवा चुकी है. ऐसी परिस्थिति में अब भाजपा के पास केवल उम्मीद ही बची है, कुछ ऐसा कर जाने की जो पार्टी की किरकिरी की पर्दादारी कर ले. तो आइये जानते हैं कि भाजपा के पास क्या क्या संभावनाएं हैं.
शिवसेना की बेकद्री से बीजेपी का पक्ष मजबूत तो हुआ है, लेकिन शिवसेना यदि सरकार बना ले तो बात धरी रह जाएगी.
सिर्फ़ कुर्सी पाने की लालच में या ये कहें कि सत्ता के मोह में फंसने और बीजेपी से अपना 3 दशकों का गठबंधन तोड़ने के बाद शिवसेना का चाल चरित्र और चेहरा संदेह के घेरों में है. अपने इस फैसले से न सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि पूरे देश के सामने जो किरकिरी शिवसेना की हुई है उसने भाजपा को मजबूती दी है और उसका पक्ष मजबूत हुआ है. मौजूदा वक़्त में सत्ता की लड़ाई जो महाराष्ट्र में चली है उसके बाद भाजपा दोबारा लोगों की गुड बुक में नाम दर्ज कराने में कामयाब रही है. ये बातें एक तरफ़ हैं. लेकिन शिवसेना यदि सरकार बना लेती है तो ये सभी अच्छी बातें धरी की धरी रह जाएंगी और लोगों को अगले 5 सालों तक शिवसेना का शासन झेलना होगा.
उम्मीद/कोशिश है शिवसेना या कांग्रेस के भीतर से कुछ विधायकों को अपने पाले में लाने की, जिसकी उम्मीद कम ही है
तोड़ जोड़ के खेल की भाजपा शिवसेना माहिर खिलाड़ी है. अब जबकि सब कुछ उसके हाथ से छिन चुका है प्रयास उसका यही रहेगा कि कैसे वो अलग अलग प्रलोभन देकर शिवसेना के लोगों को तोड़कर उसे अपने साथ लाए. हालांकि सम्भावना कम है लेकिन उम्मीद करने में क्या हर्ज है. पूर्व में भी कई मौक़े आए हैं जब भाजपा की ये उम्मीदें कामयाब हुई हैं.
इंतजार उस मौके का, जिसमें शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के बीच आए मनमुटाव का फायदा उठाने का मौका हाथ लगे
बात महाराष्ट्र की चल रही है तो हमारे लिए एक कहावत का जिक्र करना भी बहुत जरूरी है. कहावत है कि काठ की हांडी ज्यादा देर नहीं चढ़ती. कुछ ऐसा ही हाल महाराष्ट्र का भी है. यकीनन यहां भी आने वाले वक़्त में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के बीच मनमुटाव देखने को मिल सकता है. बात भाजपा की चल रही है तो बता दें कि पूरी सम्भावना है कि भाजपा इस मौक़े का पूरा फायदा उठाएगी और इसे जमकर भुनाएगी. भाजपा को इस बात की पूरी उम्मीद है सरकार बनने के बाद ये दिन आज नहीं तो कल जरूर आएगा.
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