कोरोना वायरस (Coronavirus) रिटर्न्स - और कॉमन अपडेट्स ये हैं कि अस्पताल में बेड खाली नहीं हैं और श्मशान और कब्रिस्तान में कतार लगी है. घंटों इंतजार करना पड़ रहा है, पहले अस्पतालों में बेड के लिए और भर्ती होने से पहले ही मौत ने दस्तक दे दी तो श्मशान के बाहर.
जहां चुनाव है वहां की छोड़िये, हालात हर जगह एक जैसे ही हैं. जहां चुनाव है वहां के बारे में ऐसे अपडेट नतीजे आने के बाद मिलेंगे, तब तक धैर्य के साथ इंतजार कीजिये. इंतजार के अलावा किसी के पास कोई चारा भी नहीं है.
जो हाल महाराष्ट्र का है, थोड़ा ऊपर नीचे दिल्ली, गुजरात, पंजाब और उत्तर प्रदेश का भी है. केंद्र सरकार ने तो पाबंदिया या लॉकडाउन लागू करने की पूरी जिम्मेदारी पहले से ही राज्यों पर डाल दी है - और नाइट कर्फ्यू से लेकर वीकेंड कर्फ्यू (Weekend Curfew) तक पर विचार विमर्श चल रहा है. दिल्ली में तो वीकेंड कर्फ्यू लागू भी कर दिया गया है.
हाल ही में आज तक से बातचीत में योगी आदित्यनाथ ने यूपी में बिगड़े हालात के बावजूद लॉकडाउन लागू करने से इनकार किया था ताकि आर्थिक गतिविधियां प्रभावित न हों, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी ऐसे ही तर्क दे रहे हैं - लेकिन सवाल ये है कि कोरोना वायरस के ताजा प्रकोप से बचाव के उपाय क्या हैं?
महाराष्ट्र में जरूरी सेवाओं को छोड़ कर बाकी गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी है - और धारा 144 लागू कर ऐसे प्रावधान किये गये हैं - भले ही उद्धव ठाकरे सरकार की तरफ से इसे लॉकडाउन का नाम नहीं दिया गया है, लेकिन जो भी व्यवस्था की गयी है वो नाइट और वीकेंड कर्फ्यू से कुछ ज्यादा है, लेकिन वो जो भी वो लॉकडाउन से थोड़ा कम ही समझा जा सकता है.
कोरोना वायरस से नये सिरे से मुकाबले का महाराष्ट्र मॉडल (Maharashtra Model) फिलहाल यही है. अब तक यही देखने को मिला है कि अपराध नियंत्रण को लेकर देश के कई राज्य MCOCA यानी महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ क्राइम एक्ट जैसे कानून के कायल नजर आये हैं. दिल्ली ने तो 2002 में मकोका को सीधे सीधे ही अपना लिया था, हालांकि,...
कोरोना वायरस (Coronavirus) रिटर्न्स - और कॉमन अपडेट्स ये हैं कि अस्पताल में बेड खाली नहीं हैं और श्मशान और कब्रिस्तान में कतार लगी है. घंटों इंतजार करना पड़ रहा है, पहले अस्पतालों में बेड के लिए और भर्ती होने से पहले ही मौत ने दस्तक दे दी तो श्मशान के बाहर.
जहां चुनाव है वहां की छोड़िये, हालात हर जगह एक जैसे ही हैं. जहां चुनाव है वहां के बारे में ऐसे अपडेट नतीजे आने के बाद मिलेंगे, तब तक धैर्य के साथ इंतजार कीजिये. इंतजार के अलावा किसी के पास कोई चारा भी नहीं है.
जो हाल महाराष्ट्र का है, थोड़ा ऊपर नीचे दिल्ली, गुजरात, पंजाब और उत्तर प्रदेश का भी है. केंद्र सरकार ने तो पाबंदिया या लॉकडाउन लागू करने की पूरी जिम्मेदारी पहले से ही राज्यों पर डाल दी है - और नाइट कर्फ्यू से लेकर वीकेंड कर्फ्यू (Weekend Curfew) तक पर विचार विमर्श चल रहा है. दिल्ली में तो वीकेंड कर्फ्यू लागू भी कर दिया गया है.
हाल ही में आज तक से बातचीत में योगी आदित्यनाथ ने यूपी में बिगड़े हालात के बावजूद लॉकडाउन लागू करने से इनकार किया था ताकि आर्थिक गतिविधियां प्रभावित न हों, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी ऐसे ही तर्क दे रहे हैं - लेकिन सवाल ये है कि कोरोना वायरस के ताजा प्रकोप से बचाव के उपाय क्या हैं?
महाराष्ट्र में जरूरी सेवाओं को छोड़ कर बाकी गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी है - और धारा 144 लागू कर ऐसे प्रावधान किये गये हैं - भले ही उद्धव ठाकरे सरकार की तरफ से इसे लॉकडाउन का नाम नहीं दिया गया है, लेकिन जो भी व्यवस्था की गयी है वो नाइट और वीकेंड कर्फ्यू से कुछ ज्यादा है, लेकिन वो जो भी वो लॉकडाउन से थोड़ा कम ही समझा जा सकता है.
कोरोना वायरस से नये सिरे से मुकाबले का महाराष्ट्र मॉडल (Maharashtra Model) फिलहाल यही है. अब तक यही देखने को मिला है कि अपराध नियंत्रण को लेकर देश के कई राज्य MCOCA यानी महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ क्राइम एक्ट जैसे कानून के कायल नजर आये हैं. दिल्ली ने तो 2002 में मकोका को सीधे सीधे ही अपना लिया था, हालांकि, कई राज्य अपने यहां ऐसे कानून लाने की तैयारी करते दिखे हैं.
देश के कई राज्यों में कोरोना वायरस को लेकर महाराष्ट्र जैसे ही हालात हैं - ऐसे में बेहतर तो यही लगता है कि कोरोना वायरस को काउंटर करने के लिए भी प्रभावित राज्य महाराष्ट्र मॉडल ही लागू कर लें - बाकी उपायों के बीच एक और आजमा लेने में क्या दिक्कत है.
नाइट और वीकेंड कर्फ्यू
कोरोना वायरस के बढ़ते खतरे को देखते हुए पहले महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात और पंजाब जैसे राज्यों के साथ साथ लखनऊ, नोएडा और गाजियाबाद जैसे शहरों में नाइट कर्फ्यू लागू किया गया - अब तो इसे काफी इलाकों में लागू किया जा चुका है.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने पहल करते हुए महज नाइट कर्फ्यू के भरोसे न बैठे रह कर धारा 144 लागू करने का फैसला किया - और अब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी नाइट कर्फ्यू से एक कदम आगे बढ़ कर वीकेंड कर्फ्यू लागू करने का फैसला किया है.
नाइट कर्फ्यू लागू किये जाने के बाद लोगों में खासकर सोशल मीडिया पर एक व्यंग्यात्मक सवाल पूछा जाने लगा था कि क्या कोरोना वायरस सिर्फ रात में घूमने निकलता है? यही वज रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के मुख्यमंत्रियों की मीटिंग बुलाकर चर्चा तो की ही, लोगों को भी नाइट कर्फ्यू के बारे में बताया. प्रधानमंत्री की ये भी सलाह रही कि नाइट कर्फ्यू को कोरोना कर्फ्यू के नाम से प्रचारित किया जाये ताकि लोगों में जागरुकता बढ़े.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना रहा, 'कुछ बुद्दिजीवी डिबेट करते हैं क्या कोरोना रात में आता है - हकीकत में दुनिया ने रात्रि कर्फ्यू के प्रयोग को स्वीकार किया है, क्योंकि हर व्यक्ति को कर्फ्यू समय में ख्याल आता है कि मैं कोरोना काल में जी रहा हूं और बाकी जीवन व्यवस्थाओं पर कम से कम प्रभाव होता है...'
अगर बात जागरुकता फैलाने की है तो तरीके वे ही कारगर हो सकते हैं जो लोगों के दिमाग में आसानी से बैठ जायें और वे ज्यादा हुज्जत में पड़े बिना उसे स्वीकार कर लें. कोरोना वायरस को लेकर लोगों को जागरूक करने में प्रधानमंत्री मोदी की ही पहल जनता कर्फ्यू के साथ साथ ताली और थाली बजाने के अलावा कैंडल या मोबाइल फोन से रोशनी बिखेरने की अपील असर दिखा ही चुकी है - और अगर कोई भी उपाय कारगर हो तो तर्क वितर्क का मतलब नहीं रह जाता. राजनीतिक विरोध की बात अलग है.
लेकिन सवाल ये भी है कि दुनिया के तमाम देशों में असरदार होने के बावजूद आखिर महाराष्ट्र और दिल्ली में नाइट कर्फ्यू से काम क्यों नहीं चला - और दोनों ही राज्यों को नये सिरे से उपायों पर विचार करने पड़े हैं.
नाइट कर्फ्यू को लेकर कटाक्ष और कमेंट की बात और है, लेकिन ये जरूर देखा जाना चाहिये कि विदेशों का कोई भी प्रयोग भारत के हालात में फिट हो सकता है क्या?
बहुत ही बुनियादी बातें हैं - दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में नाइट लाइफ को बढ़ावा देने की जरूरत तो अरसे से महसूस की जा रही है, लेकिन व्यवहार में कितनी आ पायी है?
मुंबई और दिल्ली और अहमदाबाद जैसे शहरों को छोड़े दें तो देश के बाकी हिस्सों में नाइट लाइफ का ट्रेंड मामूली ही है. देश की ज्यादातर ग्रामीण आबादी तो जल्दी ही सो जाती है और जल्दी ही उठ जाती है, ऐसे में वहां तो नाइट कर्फ्यू बहुत प्रभावी नहीं ही रहने वाला है. शहरों में भी एक खास वर्ग जिसे ऐसी लाइफस्टाइल पसंद है या जिनके कामकाज ही रात के या 24 घंटे वाले हैं उनको छोड़ कर बाकियों का रूटीन भी सामान्य ही है.
हां, नाइट कर्फ्यू की जगह वीकेंड कर्फ्यू बेहतर विकल्प लगता है. वीकेंड कर्फ्यू इसलिए फायदेमंद साबित हो सकता है क्योंकि दूसरे देशों की नाइट लाइफ की ही तरह हमारे यहां वीकेंड लाइफ खास होती है. हफ्ते भर के काम के बाद लोग बाहर घूमने, मूवी देखने और खाने पीने के लिए भी वीकेंड पर ही निकलते हैं - और ये भी सच है कि वीकेंड पर बाकी दिनों के मुकाबले मॉल, सिनेमा हॉल और ऐसे सार्वजनिक जगहों भीड़ भी ज्यादा होती है.
दिल्ली के वीकेंड कर्फ्यू को भी बाकी जगहों पर आजमाया जा सकता है. वैसे भी ये तो लॉकडाउन में छूट देने की कोशिश में वीकेंड पर जैसी पाबंदियां लागू की जाती रहीं, करीब करीब मिलती जुलती ही है.
महाराष्ट्र मॉडल क्यों ठीक है
दिल्ली में तो नाइट कर्फ्यू के बाद अब वीकेंड कर्फ्यू लागू किये जाने का भी ऐलान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कर चुके हैं - टीवी पर अस्पतालों की जो हालत देखने को मिली है या लोगों की जो शिकायतें हैं, अरविंद केजरीवाल उसे एक तरीके से खारिज कर रहे हैं और कह रहे हैं कि एक-दो अस्पताल की बात और है, वरना कोरोना वायरस से लड़ने के लिए न तो बेड की कमी है और न ही दूसरे इंतजामों की.
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कोरोना पॉजिटिव होने के बाद खुद को आइसोलेट किये हुए हैं और वर्चुअल मीटिंग ले रहे हैं. दिल्ली की तरह यूपी सरकार ने तो बेड और बाकी इंतजामों को लेकर मीडिया रिपोर्ट को खारिज नहीं किया है, लेकिन लोगों से सरकार की तरफ से अपील जरूर की गयी है कि हो सके तो कोरोना पॉजिटिव होने के बाद घर पर ही रहें.
कोविड के बढ़ते केस देखते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसी हफ्ते उत्तर प्रदेश में ज्यादा प्रभावित शहरों में दो या तीन हफ्ते के लिए पूर्ण लॉकडाउन लागू करने पर विचार करने का निर्देश दिया था. हाई कोर्ट ने ये भी कहा कि कोई भी शख्स सड़क पर बगैर मास्क के दिखायी न दे वरना अदालत को पुलिस के खिलाफ अवमानना कार्यवाही करनी पडे़गी. कोरोना वायरस से उपजे हालात को लेकर दाखिल याचिका पर अगली सुनवाई 19 अप्रैल को होनी है.
चुनावी राज्य पश्चिम बंगाल को लेकर कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी ऐसी ही सख्ती दिखायी है. कोर्ट ने जिलाधिकारियों को आदेश दिया है कि बतौर चुनाव अधिकारी वे चुनावी रैलियों के दौरान कोरोना प्रोटोकॉल पर सख्ती से अमल करें - और चुनाव आयोग भी चार चरण के चुनाव बीत जाने के बाद एक्टिव नजर आने लगा है.
अदालत ही नहीं, बाहर में ये सवाल तो पूछा ही जा रहा है कि साल भर में हमने कोई सबक क्यों नहीं सीखा?
अगर सीखा भी तो आखिर इतनी जल्दी भुला क्यों दिया गया?
अब भी व्यवस्था की खामियों को लेकर बहस बंटी हुई है - जिसमें एक तबका सरकार और सिस्टम को दोषी मान रहा है तो दूसरा आम लोगों की लापरवाही को.
ये सही है कि आम लोगों को भी अपनी ही लापरवाही का खामियाजा भुगतना पड़ा है, लेकिन व्यवस्था बनायी किसलिए गयी है?
जब तक शराब की दुकाने बंद रहीं लोग वहां नहीं जाते थे. जब दुकाने खोली जाने लगीं, लोग जाने लगे लेकिन गोले में खड़े होकर सोशल डिस्टैंसिंग का ख्याल रखते - जैसे ही पाबंदियां हटीं लोग टूट पड़े. जो नजारा शराब की दुकानों पर रहा वही बाकी सार्वजनिक जगहों पर भी.
हालत तो ये हो गयी थी कि हजारों में कोई एक कहीं मास्क लगाये नजर आता रहा, लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ वे ही जिम्मेदार माने जाएंगे?
बेशक सारे काम सरकार नहीं कर सकती, जिम्मेदारी लोगों की भी होती है, लेकिन ऐसा भी तो नहीं कि सारी बातों के सिर्फ जनता ही जिम्मेदार होगी - जिन पर जनता की भलाई के इंतजामात की जिम्मेदारी है वे क्यों नहीं समझे जाएंगे?
देखा जाये तो कोरोना के ताजा प्रसार में एक टीम वर्क का रिजल्ट है. लोगों की लापरवाही, व्यवस्था की बदइंतजामी - और ये सिर्फ चुनाव, राजनीति या कुंभ के चलते ही नहीं है.
कुंभ को लेकर सोशल मीडिया पर जोरदार बहस चल रही है कि तबलीगी जमात के सम्मेलन से ये कितना अलग है - आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के कोरोना पॉजिटिव पाये जाने के बाद बताया गया कि उससे कुछ ही दिन पहले वो हरिद्वार कुंभ में शामिल हुए थे. योगी आदित्यनाथ को भी तो कहीं न कहीं संक्रमण हुआ ही होगा. पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार भी कर चुके हैं और यूपी में जो हाल है वो तो सबको पता ही है. सिर्फ योगी आदित्यनाथ ही नहीं, बड़ी संख्या में उनके अफसर और कुछ मंत्री भी कोरोना संक्रमित हैं.
रांची में तो मालूम हुआ की जब राज्य के स्वास्थ्य मंत्री एक अस्पताल में हालात का जायजा लेने पहुंचे थे, भर्ती न हो पाये एक कोरोना मरीज ने गेट पर ही दम तोड़ दिया. गुजरात में अस्पतालों के बाहर एंबुलेंस लाइन में खड़ी नजर आयीं और श्मशान घाटों से घंटों बाद बारी आने की खबरें आ रही हैं.
महाराष्ट्र और दिल्ली में न तो चुनाव है और न ही कुंभ लगा हुआ है, लेकिन हालात पिछले दौर के मुकाबले ज्यादा ही खराब हैं. बाकी राज्यों में भी तकरीबन मिलती जुलती ही स्थिति है - ऐसे में जरूरी हो गया है कि बाकी राज्यों के मुख्यमंत्री भी महाराष्ट्र मॉडल या वैसी मिलती जुलती पाबंदियों के बारे में सोचें - और फौरन फैसला लेकर तुरंत अमल में लायें - पहले ही देर हो चुकी है अब और सोचने समझने के लिए ज्यादा वक्त नहीं बचा है.
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