महसा अमीनी के मामले में ईरान में जो कुछ हो रहा है उसे बताने की जरूरत नहीं. पूरे मामले में भले हिजाब एक बड़ा टॉपिक बना है, लेकिन वहां जो कुछ भी हुआ असल में उसके पीछे हिजाब है ही नहीं. हिजाब तो एक तरह से नासूर जख्म से टपकने वाला मवाद भर है. भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ लोग हिजाब के बहाने उठ रही एक व्यापक बहस को कुंद करने की फितरतबाजी में हैं. ऐसे लोग बहुत शातिर हैं और सामने वाले को हमेशा मूर्ख समझते आए हैं. ईरान से जो बवंडर उठता दिख रहा है उसके पीछे की वजहें ठीक-ठीक वहीं हैं जो पाकिस्तान में कभी बाग्लादेश को लेकर थीं. फिलहाल बलूचों, सिंधियों, कश्मीरियों, मुहाजिरों और तमाम दूसरे जातीय समूहों को लेकर हैं. और इन्हीं वजहों से भारत में एक बड़ा तबका हिजाब को संवैधानिक रूप दिलवाने पर आमादा है. दुनिया में तमाम जगह दिखती हैं. समझ नहीं आता कि उपमहाद्वीप में 'महसा अमीनियों' के उत्पीड़न की ऐतिहासिक और अंतहीन सिलसिलों के बावजूद लोग ईरान मामले में ऐसी व्याख्या क्यों कर रहे हैं- "मैं यहां हिजाब के साथ हूं, मैं वहां हिजाब के साथ नहीं हूं." हद है.
अंग्रेजों की विदाई के साथ-साथ धर्म के आधार पर भारत विभाजन किया गया. कहा गया कि मुसलमान, हिंदुओं के साथ रह ही नहीं सकते. उन्हें एक अलग देश चाहिए. और चाहिए ही चाहिए. उसके लिए कुछ भी करने को तैयार थे लोग. जैसे हैदराबाद का निजाम पाकिस्तान में शामिल नहीं होने वाले लाखों गैरमुस्लिमों के नरसंहार तक का विकल्प लिए था. मौजूदा पाकिस्तान के साथ आज का बांग्लादेश एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में उसी जिद का नतीजा है. उसे हमेशा गौर से देखते रहना चाहिए. उपमाहद्वीप का दुर्भाग्य था कि मुस्लिम राष्ट्र पाने के बावजूद वे शांतिपूर्वक नहीं रह पाए. रह भी कैसे पाते भला? भूगोल की खाई गहरी होती है.
कुछ ही सालों में बांग्लादेश और बलूचिस्तान में अलगाववाद की नींव पुख्ता हो गई. वजह क्या थी? सिर्फ एक वजह- धर्म के नाम पर एक धार्मिक और सांस्कृतिक उपनिवेश बनाया जा रहा था जिसपर महज कुछ ताकतवर परिवारों का नियंत्रण था. वहां अभी भी...
महसा अमीनी के मामले में ईरान में जो कुछ हो रहा है उसे बताने की जरूरत नहीं. पूरे मामले में भले हिजाब एक बड़ा टॉपिक बना है, लेकिन वहां जो कुछ भी हुआ असल में उसके पीछे हिजाब है ही नहीं. हिजाब तो एक तरह से नासूर जख्म से टपकने वाला मवाद भर है. भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ लोग हिजाब के बहाने उठ रही एक व्यापक बहस को कुंद करने की फितरतबाजी में हैं. ऐसे लोग बहुत शातिर हैं और सामने वाले को हमेशा मूर्ख समझते आए हैं. ईरान से जो बवंडर उठता दिख रहा है उसके पीछे की वजहें ठीक-ठीक वहीं हैं जो पाकिस्तान में कभी बाग्लादेश को लेकर थीं. फिलहाल बलूचों, सिंधियों, कश्मीरियों, मुहाजिरों और तमाम दूसरे जातीय समूहों को लेकर हैं. और इन्हीं वजहों से भारत में एक बड़ा तबका हिजाब को संवैधानिक रूप दिलवाने पर आमादा है. दुनिया में तमाम जगह दिखती हैं. समझ नहीं आता कि उपमहाद्वीप में 'महसा अमीनियों' के उत्पीड़न की ऐतिहासिक और अंतहीन सिलसिलों के बावजूद लोग ईरान मामले में ऐसी व्याख्या क्यों कर रहे हैं- "मैं यहां हिजाब के साथ हूं, मैं वहां हिजाब के साथ नहीं हूं." हद है.
अंग्रेजों की विदाई के साथ-साथ धर्म के आधार पर भारत विभाजन किया गया. कहा गया कि मुसलमान, हिंदुओं के साथ रह ही नहीं सकते. उन्हें एक अलग देश चाहिए. और चाहिए ही चाहिए. उसके लिए कुछ भी करने को तैयार थे लोग. जैसे हैदराबाद का निजाम पाकिस्तान में शामिल नहीं होने वाले लाखों गैरमुस्लिमों के नरसंहार तक का विकल्प लिए था. मौजूदा पाकिस्तान के साथ आज का बांग्लादेश एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में उसी जिद का नतीजा है. उसे हमेशा गौर से देखते रहना चाहिए. उपमाहद्वीप का दुर्भाग्य था कि मुस्लिम राष्ट्र पाने के बावजूद वे शांतिपूर्वक नहीं रह पाए. रह भी कैसे पाते भला? भूगोल की खाई गहरी होती है.
कुछ ही सालों में बांग्लादेश और बलूचिस्तान में अलगाववाद की नींव पुख्ता हो गई. वजह क्या थी? सिर्फ एक वजह- धर्म के नाम पर एक धार्मिक और सांस्कृतिक उपनिवेश बनाया जा रहा था जिसपर महज कुछ ताकतवर परिवारों का नियंत्रण था. वहां अभी भी है. बांग्लादेश मुस्लिम बहुल क्षेत्र होने के बावजूद खानपान, पहनावा और भाषा के मामले में पाकिस्तान से विपरीत था. जैसे आज की तारीख में बलूच, सिंधियों, पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र में कश्मीरियों और दूसरे जातीय समूहों में अंतर है.
इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बना फिर क्या वजह थी जो वहां दमन का दौर शुरू हो गया
विभाजन के बाद पाकिस्तान की सत्ता और सेना में शीर्ष पर काबिज अशराफ और पंजाबी तबका तमाम चीजों को जबरदस्ती थोपने लगे. सिर्फ अपने नियंत्रण के लिए धर्म का सहारा लिया जा रहा था. नस्ल के आधार पर भेदभाव होने लगे. बांग्ला पर उर्दू थोपा जाने लगा. उर्दू और पंजाबी के सामने दूसरी भाषाएं गर्त में झोंक दी गई. सिंध का समूचा इतिहास पलट दिया गया गया. पाकिस्तान में बांग्ला के अपने इतिहास को तवज्जो नहीं मिली.सरकारी संसाधनों में बंगालियों और तमाम जातीय समूहों का वाजिब हिस्सा मारा जाने लगा और ढांका को इस्लामाबाद ने फ़ौज की ताकत पर अपना उपनिवेश ही बना डाला.
स्वाभाविक है कि संस्कृति और संसाधनों पर अतिक्रमण के बाद दुनिया का कोई भी समाज शांति से नहीं बैठा रहेगा. बांग्लादेश में कुछ ही सालों के अंदर दमन के खिलाफ जनता का विशाल समूह मरने मिटने को तैयार हो गया. पाकिस्तानी सेना ने बहुत बुरी तरह से दमन किया उनका. हत्याएं, बलात्कार, उत्पीड़न और अनगिनत गिरफ्तारियां. पाकिस्तानी सेना का लूटपाट स्वतंत्र बांग्लादेश के अस्तित्व में आने तक आम बात थी. अच्छा हुआ कि भारत सामने आया और पाकिस्तान के खूनी पंजे से बांग्लादेश को असंख्य कुर्बानियों के बाद मुक्ति मिली.
नक़्शे की बता छोड़ दें तो फिलहाल बलूचिस्तान भी आज की तारीख में पाकिस्तान के नियंत्रण में नहीं है. और वहां भी आजादी के महज कुछ सालों में ही विद्रोह की सुगबुगाहट दिखने लगी थी. वजह बांग्लादेश वाली ही है. पकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में लगातार सांस्कृतिक हमलों और उत्पीड़न का सवाल उठा रहे हैं. पीओके में इतना सांस्कृतिक अतिक्रमण कराया जा चुका है कि अब वहां 'कश्मीरियत' के अलावा बाकी चीजें दिखती हैं. और मूल कश्मीरियों के सवाल शोर में दम तोड़ रहे हैं. सिंध अपनी पहचान को लेकर आक्रामक हुआ है और भारत के तमाम इलाकों से पाकिस्तान पहुंचे मुहाजिर भी सांस्कृतिक पहचान के लिए कमर कसकर खड़े दिखते हैं.
एक इस्लामिक देश में ही जब मुसलमानों का यह हाल है तो दूसरे अल्पसंख्यक समूहों की भयावह स्थिति का अंदाजा लगाना किसी के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए. महसा अमीनी के बहाने यह आज के समय का अनिवार्य सवाल होना चाहिए कि जब दुनिया के तमाम धर्मों में भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान के लिए जगह है, आखिर एक धर्म को विविधता से इतना ऐतराज क्यों है? और किसी भी धर्म की मनमानी व्याख्या का अधिकार किसी एक सभ्यता या किसी एक देश को कैसे दिया जा सकता है, जो समूची दुनिया पर असर डालती है? अगर असर समूची दुनिया पर है तो यह वैश्विक जिम्मेदारी है कि इसका स्थायी समाधान खोजा जाए. रास्ते चाहे जो भी हों.
महसा अमीनी का वह दोष जिसकी वजह से हुई उसकी हत्या, हिजाब बहस के बहकावे में मत आइए
महसा अमीनी के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप का जरूरी लंबा उदाहरण यहां इसलिए दिया गया कि इस्लाम के नाम पर भारत में भी एक सांस्कृतिक बदलाव जबरदस्ती थोपने की सिलसिलेवार कोशिशें दिखती हैं. बस तरीका दूसरा है जिसे 'लोकतंत्र और संविधान' के हिजाब में ढंककर सामने रखा जाता है. भाषा के रूप में एक तबके के लिए अरबी/फारसी/उर्दू को अनिवार्य बनाया जाता है. जबकि सिर्फ अपनी औपनिवेशिक एजेंडा की वजह से फारसी और उर्दू कई सौ साल गुजारने के बावजूद भारतवंशियों के घर की दहलीज लांघने में नाकाम रही. लेकिन वोट के दबाव में हमारी अपनी सरकारें उसे प्रोत्साहित करने के लिए कोई कमी नहीं रखतीं. मौलानाओं ने खजूर को अनिवार्य कर दिया गया. अरब या मिडिल ईस्ट का खजूर ही सबसे 'शुद्ध' कैसे हो सकता है? इस्लामिक ड्रेस और खानपान के मामले में अरब और टर्की बेंचमार्क हैं. अरब का पहनावा और तुर्की भोजन हमारे कभी कभार की दिनचर्या का हिस्सा हो सकता है. रोज का नहीं. क्या यह संभव है कोई भारतीय दोनों वक्त पिज्जा खाकर सालभर गुजार दे. पंजाबी भी दो चार दिन तक इडली पर गुजारा कर सकता है. आप दक्षिण के लोगों को रोटी-दाल खाने के लिए विवश नहीं कर सकते. लेकिन उधर सिर्फ एक पृथक पहचान दिखाने भर के लिए विवश करने की कवायद शुरू है.
शादियों में नाच-गाना-जश्न, हल्दी लगाने, मंडप गाड़ने की रस्मों पर आपत्ति है. बच्चों को काजल और टीका लगाने तक पर आपत्ति सामने आ रही है. साड़ी-सिंदूर पहनने पर आपत्ति है. लोक त्योहारों से आपत्ति है. मौलानाओं ने बाकायदा फतवे जारी किए हैं. गैरइस्लामी बताया जाता है. गूगल कर लीजिए. बुरका को अनिवार्य बनाया जा रहा है. बुद्धिजीवी बहुत चालाकी से च्वाइस के नाम पर सिद्धांत ठेल जाते हैं. राहुल गांधी केरल में जिस लड़की का हाथ पकड़कर घूम रहे हैं- क्या बुरका को उसकी इच्छा माना जा सकता है? दिलचस्प विरोधाभास है यह. तो महसा अमीनी के मामले में हिजाब पहनना और ना पहनना कोई सवाल नहीं है. उसका दोष उसकी नस्ल है जो दुर्भाग्य से 'कुर्द' है. उसका दोष मिली जुली सभ्यता का हिमायती होना है. जो सुन्नी मुसलमान होकर भी मुसलमान नहीं है. मुसलमान छोडिए- तमाम इस्लामिक देशों ने उन्हें मनुष्य तक नहीं माना.
ईरान को छोड़ दीजिए, इस्लाम के सबसे सभ्य देश टर्की का हाल जान लीजिए
जबकि सबसे पुरानी जनजातियों में से एक- कुर्दों का भी इस्लाम में कम योगदान नहीं है. ऑटोमन साम्राज्य से पहले सीरिया से ईरान तक उनकी तूती बोलती थी. उनके संपन्न राज्य थे. भूगोल उनसे पहचाना जाता था. देखिए कि आज कुर्दों का अपना कोई देश ही नहीं है. भला इतिहास में इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है. एक जनजाति जिसकी आबादी चार करोड़ है, आज की तारीख में दुनिया में ऐसा कोई भूगोल नहीं जिसे वह अपना कह सके. कुर्द- ईराक, ईरान, सीरिया, टर्की, आर्मेनिया और जर्मनी में हैं. सबसे ज्यादा संख्या टर्की में बताई जाती है. करीब-करीब वहां की आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा. इस्लामिक व्यवस्था में टर्की को सबसे आधुनिक देश माना जाता है. लेकिन कुर्दों को वहां सिर्फ नस्ली वजहों से इंसानी दर्जा नहीं मिला. विधिवत रोका गया. उनकी भाषा संस्कृति पर प्रतिबंध है. प्रतिबंधों का उल्लंघन आपको वहां भयावह यातनागृह में पहुंचा सकता है. जी हां, बात प्रगतिशील टर्की की हो रही है अफगानिस्तान की नहीं. टर्की में इस्लाम का बोलबाला है बावजूद वहां दूसरे धर्मों को मानने वाले टर्की मूल के लोगों को नागरिक अधिकार हासिल हैं. फिर कुर्दों से घृणा की वजह क्या है?
कई पश्चिमी देश टर्की के दोस्त हैं. पर टर्की से किसी ने सार्वजनिक रूप से जिम्मेदारी के साथ पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई कि एक नस्ल को लेकर आपके मन में इतनी घृणा क्यों है? आमिर खान का प्रिय टर्की कश्मीर में मानवअधिकार का सवाल हर दूसरे महीने उठा ही देता है. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के साथ-साथ टर्की का भी नक्शा बदला, लेकिन कुर्दों को कुछ नहीं मिला. जबकि टर्की का नक्शा बदलने का बुरा असर भारत ने खिलाफत और उसके बाद भोगा. महात्मा गांधी इस्लामिक आंदोलन में कूदे और उस आंदोलन ने पाकिस्तान के निर्माण की जमीन तैयार कर दी. कुर्दों के लिए मानवीय आधार पर दुनिया के किसी कोने में कहीं भी किसी ने खड़ा होने ई दिलचस्पी नहीं दिखाई. सिर्फ नस्ली घृणा की वजह से हलाब्जा में सद्दाम हुसैन ने कुर्दों का उसी वीभत्स तरीके से नससंहार किया जैसे हिटलर ने यहूदियों का किया था और कश्मीर में गैरमुस्लिमों का हुआ. कुर्दों पर सद्दाम के क्रूर हमलों का शिकार बच्चे-बूढ़े और महिलाएं भी बनीं. सीरिया में भी कुर्दों के साथ यही सब सदियों से हुआ.
ईरान में मजहब के नाम पर मनमानी करने वाले मुट्ठीभर हैं
ईरान में एक बड़ी आबादी होने के बावजूद कुर्द कहीं नहीं हैं. यहां भी उन्हें नागरिक नहीं माना जाता तो इंसानी अधिकारों के मिलने का सवाल ही खड़ा नहीं होता. जहां कुर्द आबादी है उसे मिलिट्री के जरिए नियंत्रित किया जाता है और उत्पीडन का सिलसिला चलता है. ईरान की जेलों में जितने लोग बंद हैं उसमें सबसे ज्यादा कुर्दीश ही हैं. फांसी तक की सजा पाने वाले बंदी. तमाम निर्दोष. तमाम लोगों को जेलों में वैसी ही वजहों से ठूसा गया है जैसे अमीनी को टॉर्चर किया गया. कुर्दों की बस इतनी गलती है कि वे ईरान में इस्लाम की मनमानी व्याख्या नहीं मानते. अपनी भाषा, संस्कृति और सनातन परंपरा को छोड़ने के लिए किसी भी सूरत में तैयार नहीं हैं. भले ही इसके लिए उन्हें पिछले आठ सौ साल से भयावह कीमत चुकानी पड़ी है.
ईरान में मजहब के नाम पर मनमानी करने वाले मुट्ठीभर हैं. बहुतायत आवाम तंग है. एक बड़ी आबादी खुद की धार्मिक पहचान बताने में संकोच तक करने लगी है. मंसूर के ईरान की एक हकीकत यह भी है. अगर हिजाब से ही मानवीय मुद्दों को ताकत मिल रही है तो यह बदलाव का मौका होना चाहिए. कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि इस्लाम के दायरे में आकर पिछले कई सौ साल से कुर्द अपने पौराणिक अस्तित्व के लिए किस तरह संघर्ष कर रहे हैं? कोई सोच भी नहीं सकता कि उनका संघर्ष किन तकलीफों से होकर गुजरा होगा?
महसा अमीनी की शहादत से भारत जैसे देशों को अलर्ट हो जाना चाहिए
सद्दाम के पतन के बाद कुर्दों को थोड़ी राहत मिली. आज की तारीख में ईराक में कुर्दिस्तान के रूप में एक बड़ा इलाका कुर्दों के नियंत्रण में है. यह ईरान टर्की और तमाम इलाकों से उत्पीड़न का शिकार बने कुर्दों की शरणगाह भी है. यहां कोमोला का नियंत्रण है जो कुर्दों की राजनीतिक इकाई है. हालांकि ईरान और तमाम अन्य उसे आतंकी संगठन ही मानते हैं. वैसे यह संगठन पहले सशस्त्र संघर्ष में शामिल भी रहा है. ईरान और अन्य देशों में इस्लाम की मनमानी व्याख्या ने ना जाने कितनी आदिम जातियों, बोलियों, संस्कृतियों, परंपराओं की क्रूर हत्या की है.
तो हिजाब जैसी चीजें बस सांस्कृतिक हथियार हैं. जिन्हें लग रहा कि समय के साथ सब सही हो जाएगा- उन्हें दृष्टिदोष है. यह अंतहीन सिलसिला है. शुरुआत से देखने पर एक ही पैटर्न नजर आता है. विविधता से भरे भारत जैसे देशों को सावधान रहना चाहिए. इस्लाम के नाम पर संघर्ष और बंटवारे में हमने जितनी कीमत चुकाई है शायद ही दुनिया के किसी देश ने चुकाई हो. बुद्धिजीवियों, भारत को मानवता, विविधता और धर्मनिरपेक्षता पर किसी चौधरी के भाषण सुनने और गिल्ट से भर जाने की जरूरत नहीं है. ऐतिहासिक शर्म से बाहर निकलो.
अच्छा होगा कि महसा अमीनी की शहादत के बहाने दुनिया को हिजाब-बुरके की बजाए कुर्दों और दूसरी कट्टरपंथी समस्याओं पर बहस करनी चाहिए और उसका समाधान भी खोजने का प्रयास करना चाहिए.
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