ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने पश्चिम बंगाल (West Bengal Election Results) में सत्ता वापसी की सिर्फ हैट्रिक ही नहीं लगायी है - बल्कि, अपने जबरदस्त एक्शन से ये भी साफ कर दिया है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोध की सबसे मजबूत आवाज बन कर दिल्ली में दस्तक देने वाली हैं.
बीजेपी नेतृत्व के लिए तो पश्चिम बंगाल चुनाव एक और राज्य में सरकार बनाने की कवायद भर रही, लेकिन ममता बनर्जी के लिए ये राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई बन चुकी थी. संभव था, चुनाव हार जाने के बाद भी वो मोदी विरोध की आवाज बन कर दिल्ली में बेहद आक्रामक रूप में केंद्र सरकार की नाक में दम किये रहतीं, लेकिन वैसी स्थिति में तमाम अनिश्चितताएं बनी रहती हैं.
ये कहना या समझना मुश्किल है कि ममता बनर्जी के लिए अब तक के तीन चुनावों में सबसे आसान या मुश्किल कौन रहा? देखा जाये तो ममता बनर्जी के लिए तीनों ही चुनाव बेहद मुश्किल रहे हैं - 2011 में लेफ्ट के बरसों पुराने शासन को हटाने की चुनौती रही. 2016 में चुनावों से ऐन पहले स्टिंग ऑपरेशनों ने टीएमसी के कई नेताओं को कठघरे में खड़ा कर दिया था, लेकिन ममता बनर्जी ने अपने अकेले बूते ही पूरी पार्टी को भी चुनाव जिताया और जिन नेताओं पर आरोप लगे थे उनको मंत्री बनाकर चौतरफा मैसेज भी दिया कि वो अपने साथियों पर किस हद तक भरोसा करती हैं.
हो सकता है 2021 की लड़ाई बीती दो से ज्यादा मुश्किल रही हो - क्योंकि ममता बनर्जी को अपने खिलाफ सत्ता विरोधी फैक्टर से भी जूझना था और देश के सबसे ताकतवर राजनीतिक दल के जनरलों की फौज से भी. बहरहाल, एक बार फिर ममता बनर्जी सोने की तरह तप कर और निखर कर निकली हैं - और वो भी बंपर जीत के साथ.
वैसे हालात में जबकि ममता बनर्जी के करीबी और भरोसेमंद शुभेंदु अधिकारी जैसे नेता तृणमूल कांग्रेस में 'तू चल मैं आता हूं...' जैसे खेल खेल रहे थे, ममता बनर्जी के लिए मैदान में अकेले डटे रहना बेहद मुश्किल हो रहा होगा, लेकिन उस मुश्किल घड़ी में भी ममता बनर्जी ने नंदीग्राम (Nandigram Win) से...
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने पश्चिम बंगाल (West Bengal Election Results) में सत्ता वापसी की सिर्फ हैट्रिक ही नहीं लगायी है - बल्कि, अपने जबरदस्त एक्शन से ये भी साफ कर दिया है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोध की सबसे मजबूत आवाज बन कर दिल्ली में दस्तक देने वाली हैं.
बीजेपी नेतृत्व के लिए तो पश्चिम बंगाल चुनाव एक और राज्य में सरकार बनाने की कवायद भर रही, लेकिन ममता बनर्जी के लिए ये राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई बन चुकी थी. संभव था, चुनाव हार जाने के बाद भी वो मोदी विरोध की आवाज बन कर दिल्ली में बेहद आक्रामक रूप में केंद्र सरकार की नाक में दम किये रहतीं, लेकिन वैसी स्थिति में तमाम अनिश्चितताएं बनी रहती हैं.
ये कहना या समझना मुश्किल है कि ममता बनर्जी के लिए अब तक के तीन चुनावों में सबसे आसान या मुश्किल कौन रहा? देखा जाये तो ममता बनर्जी के लिए तीनों ही चुनाव बेहद मुश्किल रहे हैं - 2011 में लेफ्ट के बरसों पुराने शासन को हटाने की चुनौती रही. 2016 में चुनावों से ऐन पहले स्टिंग ऑपरेशनों ने टीएमसी के कई नेताओं को कठघरे में खड़ा कर दिया था, लेकिन ममता बनर्जी ने अपने अकेले बूते ही पूरी पार्टी को भी चुनाव जिताया और जिन नेताओं पर आरोप लगे थे उनको मंत्री बनाकर चौतरफा मैसेज भी दिया कि वो अपने साथियों पर किस हद तक भरोसा करती हैं.
हो सकता है 2021 की लड़ाई बीती दो से ज्यादा मुश्किल रही हो - क्योंकि ममता बनर्जी को अपने खिलाफ सत्ता विरोधी फैक्टर से भी जूझना था और देश के सबसे ताकतवर राजनीतिक दल के जनरलों की फौज से भी. बहरहाल, एक बार फिर ममता बनर्जी सोने की तरह तप कर और निखर कर निकली हैं - और वो भी बंपर जीत के साथ.
वैसे हालात में जबकि ममता बनर्जी के करीबी और भरोसेमंद शुभेंदु अधिकारी जैसे नेता तृणमूल कांग्रेस में 'तू चल मैं आता हूं...' जैसे खेल खेल रहे थे, ममता बनर्जी के लिए मैदान में अकेले डटे रहना बेहद मुश्किल हो रहा होगा, लेकिन उस मुश्किल घड़ी में भी ममता बनर्जी ने नंदीग्राम (Nandigram Win) से चुनाव लड़ने की चुनौती स्वीकार की जो ममता बनर्जी का सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक शॉट रहा - साम, दाम, दंड और भेद वाली लाइन में ऐसे और भी औजार रहे रहे. आइए देखते हैं एक एक करके -
1. नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला
ममता बनर्जी के लिए नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला लेना काफी जोखिम भरा था. वोटों की गिनती शुरू होने के बाद शुरुआती रुझानों से तो ऐसा लग रहा था जैसे तृणमूल कांग्रेस भले ही पश्चिम बंगाल चुनाव में बहुमत हासिल कर ले, लेकिन ममता बनर्जी खुद अपना सीट हार सकती हैं.
रुझानों में बीजेपी उम्मीदवार शुभेंदु अधिकारी काफी आगे चल रहे थे. शुभेंदु अधिकारी और ममता बनर्जी के बीच का फासला इतना लंबा हो चला था कि कवर करना काफी मुश्किल लग रहा था - लेकिन आखिरकार ममता बनर्जी ने बढ़त बनायी और खबर आयी कि 1200 वोटों से शुभेंदु अधिकारी को शिकस्त दे डाली हैं. चुनावों के दौरान शुभेंदु अधिकारी दावा कर रहे थे कि वो ममता बनर्जी को कम से कम 50 हजार वोटों से तो हराएंगे ही. ममता बनर्जी के लिए भी नीतीश कुमार वाली बात दोहरायी जा सकती थी - अंत भला तो सब भला, लेकिन ऐसा नही हुआ.
घंटे भर बाद ही फिर खबर आयी कि शुभेंदु अधिकारी नहीं, बल्कि ममता बनर्जी चुनाव हार गयी हैं. बाद में ममता बनर्जी ने हार स्वीकार भी कर ली - लेकिन कोर्ट जाने की भी बात कही. बोलीं, 'नंदीग्राम में भूल जाओ क्या हुआ... नंदीग्राम के बारे में फिक्र मत करो... नंदीग्राम के लोग जो भी जनादेश देंगे, मैं उसे स्वीकार करती हूं. मुझे कोई आपत्ति नहीं है. मैंने नंदीग्राम में सघंर्ष किया क्योंकि मैं एक आंदोलन चलायी... हमने 221 से अधिक सीटें जीतीं - और बीजेपी चुनाव हार गई है.'
तृणमूल कांग्रेस ने एक ही बार में सभी उम्मीदवारों की लिस्ट जारी कर दी थी - और उसमें नंदीग्राम से ममता बनर्जी का नाम रहा. किसी को कोई भ्रम न रहे इसलिए ममता बनर्जी की सीट भवानीपुर से भी उम्मीदवार के नाम की घोषणा कर दी गयी थी - शोभनदेब चट्टोपाध्याय. टीएमसी के साफ सुथरी छवि वाले उम्मीदवार. अपडेट ये है कि शोभनदेब चट्टोपाध्याय ने बीजेपी के रुद्रानिल घोष को चुनाव हरा दिया है.
नंदीग्राम में 1 अप्रैल को वोट डाले जा चुके थे. फिर भी बीजेपी नेतृत्व की तरफ ले ममता बनर्जी के खिलाफ लोगों को भड़काने की कोशिशें जारी रहीं. अगले ही दिन एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोले, ''चर्चा है... दीदी दूसरी सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही हैं.'
तृणमूल कांग्रेस की तरफ से तत्काल पलटवार हुआ. पार्टी के ट्विटर हैंडल से पोस्ट शेयर की गयी - 'दीदी नंदीग्राम से जीत रही हैं, इसलिए दूसरी सीट से लड़ने का सवाल ही नहीं है.'
अगला ट्वीट शायद उकसाने के लिए रहा होगा - '2024 में आसान सीट तलाशिये क्योंकि बनारस में चुनौती मिलने वाली है.'
ममता बनर्जी के लिए जितना बड़ा जोखिम नंदीग्राम से चुनाव लड़ने में था, उससे भी बड़ा जोखिम भरा फैसला दूसरी सीट से चुनाव न लड़ने का रहा - लेकिन ये तृणमूल का कांग्रेस की तरफ से एक राजनीतिक बयान था. ऐसा करके ममता बनर्जी ने अपने समर्थकों को साफ, सटीक और सख्त मैसेज देने की कोशिश की थी - वो फाइटर हैं और हमेशा की तरह शिद्दत से लड़ेंगी.
ऐसा करने से तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भी साफ संदेश गया - शुभेंदु अधिकारी सहित तमाम नेताओं के तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने लेने के बाद जो सदमा लगा हो उसके लिए ये संजीवनी बूटी जैसा रामबाण इलाज था. ममता बनर्जी के मात्र एक फैसले से उनका जोश तत्काल प्रभाव से डबल हो गया और बार बार डबल होता रहा.
तृणमूल कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने को लेकर प्रशांत किशोर का कहना है कि वे कूड़े कचरे ही थे. थोड़ा संभल कर, प्रशांत किशोर बोले - सभी तो नहीं लेकिन ज्यादातर कूड़े कचरे जैसे ही थे. ध्यान रहे, शुभेंदु अधिकारी को मनाने की प्रशांत किशोर ने काफी कोशिशें की और इसके लिए उनके घर तक गये थे.
2. टिकट बंटवारे की फूल-प्रूफ रणनीति
टिकट बंटवारे में भी ममता बनर्जी की खास स्ट्रैटेजी देखन को मिली. निश्चित तौर पर ये सब चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के कहने पर ही हुआ होगा. तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के प्रशांत किशोर से नाराज होने की बड़ी वजह भी उनका टिकट काट लिये जाने का डर भी रहा होगा.
तृणमूल कांग्रेस ने 100 नये चेहरों को चुनाव में उतारा था - मतलब ये कि 100 विधायकों के टिकट काट लिये गये थे, हालांकि, इनमें से कई ऐसे भी रहे होंगे जो टीएमसी छोड़ कर बीजेपी में चले गये होंगे. ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों की जो सूची बनायी थी उसमें 50 महिलाओं, 42 मुस्लिमों, अनुसूचित जाति के 79 नेताओं और अनुसूचित जनजाति के 17 उम्मीदवारों को टिकट दिया गया.
ऐसे उपाय राजनीतिक दल पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी फैक्टर को न्यूट्रलाइज करने के लिए करते रहे हैं. बीजेपी नेता अमित शाह तो इसे लोक सभा से लेकर पंचायत और निकाय चुनावों तक में आजमाते रहे हैं. गुजरात से लेकर दिल्ली में एमसीडी के चुनावों तक में. कह सकते हैं ममता बनर्जी ने बीजेपी को चकमा देने के लिए उसी का फॉर्मूला अपना लिया होगा.
291 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने के साथ ही, ये भी बताया गया था कि 100 उम्मीदवारों की उम्र 50 साल से कम रही और 30 तो ऐसे रहे जो 40 के भी नहीं हुए थे - फ्रेश चेहरे और युवा उम्मीदवार. टिकट हासिल करने वालों में कई उम्मीदवार ऐसे भी रहे जिन्हें ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी का भरोसेमंद बताया गया.
तृणमूल कांग्रेस ने सहयोगी दलों के नाम पर सिर्फ तीन सीटें छोड़ी थीं - सिर्फ दार्जिलिंग की. ममता बनर्जी ने आरजेडी नेता तेजस्वी यादव की 6 सीटों की डिमांड भी ठुकरा दी थी. बिहार में कांग्रेस के साथ होकर भी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने ममता बनर्जी का सपोर्ट करने का फैसला किया था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.
3. ममता बनर्जी का अपने ओरिजिनल फॉर्म में लौट आना
2019 के आम चुनाव में ही ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पद की दावेदार रहीं, लेकिन सबसे बड़ा झटका तब लगा जब बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में लोक सभा की 18 सीटें जीत लीं. ममता बनर्जी तभी से अलर्ट हो गयीं और अभिषेक बनर्जी ने प्रशांत किशोर को हायर करने का फैसला किया - और बात भी फाइनल हो गयी.
कुछ दिन बाद ही ममता बनर्जी के हाव-भाव और बात व्यवहार में बदलाव महसूस किया जाने लगा था. ममता बनर्जी पब्लिक मीटिंग में लोगों से मुस्कुराते हुए मिलतीं. उनके बीच पहुंच कर हंसते मुस्कुराते बात करतीं और डांट-फटकार कम देखा जाने लगा था.
जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस की याद में कोलकाता में एक कार्यक्रम में ममता बनर्जी पहुंचीं तो जय श्रीराम के नारे सुनकर उनको बहुत गुस्सा आया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उस कार्यक्रम में मौजूद थे.
ममता बनर्जी ने विरोध तो जताया लेकिन काफी शांत देखी गयीं. बोलीं भी, लेकिन बस इतना ही कि सरकारी कार्यक्रमों में राजनीतिक दलों के कार्यक्रम जैसा व्यवहार नहीं होना चाहिये. बस इतना ही. पहले की तरह वो कार्यक्रम छोड़ कर भी नहीं गयीं. पूरे कार्यक्रम में बैठी रहीं और चाय भी पी.
ममता के इस व्यवहार का असर इसी बात से समझा जा सकता है कि बाद में पश्चिम बंगाल के आरएसएस प्रभारी ने बयान जारी किया कि संघ ऐसी चीजों का समर्थन नहीं करता. संघ को समझ आ चुका था कि नेताजी के साथ बंगाली समाज किस तरह भावनात्मक तौर पर जुड़ा है और उसके बीच बीजेपी का राजनीतिक नारा बैकफायर भी कर सकता है.
ममता बनर्जी ने काफी दिनों तक ऐसे सौम्य व्यवहार का प्रदर्शन किया, लेकिन ये उनके लिए दिखावा जैसा ही था. ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली चुनाव में बीजेपी नेताओं के बार बार उकसाने पर भी अरविंद केजरीवाल शांति के साथ खामोशी अख्तियार किये रहे.
ममता बनर्जी के शायद बीजेपी नेतृत्व के हमलों के आगे कृत्रिम सोफियाना चोला धारण किये रहना मुश्किल हो रहा होगा. बाद में ममता बनर्जी ने चंडी पाठ तो किया ही, जल्द ही चंडी रूप अख्तियार भी कर लिया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पर्सनल अटैक करने में बैकफायर होने का बहुत बड़ा रिस्क था, लेकिन ममता बनर्जी ने परवाह नहीं की. धीरे धीरे वो अपने मूल स्वरूप में वापस आ गयीं. पहले तो बीजेपी को ही दंगाबाज पार्टी बताती रहीं, लेकिन भी मोदी को भी दंगाबाज बता डाला और अमित शाह को भी.
ये डबल मतलब वाले बयान हुआ करते थे. ऐसा करके वो अपने मुस्लिम वोट बैंक को एकजुट रखने की कोशिश कर रही थीं. वो बीजेपी के साथ साथ मोदी-शाह को दंगाबाज बता कर अपने मुस्लिम वोट बैंक गो 2002 के गुजरात दंगों की याद दिला रही थीं. हालांकि, AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी पहले से ही लोगों को समझान की कोशिश कर रहे थे कि उस दौर में ममता बनर्जी भी तो बीजेपी के साथ ही रहीं. एक ही रैली करने वाले राहुल गांधी ने भी ऐसे ही याद दिलाने की कोशिश की कि कांग्रेस कभी बीजेपी के साथ नहीं जा सकती, जबकि ममता बनर्जी ऐसा कर चुकी हैं. मतलब, आगे भी ऐसी संभावना बनी रह सकती है.
लगे हाथ ममता बनर्जी को ये भी बताना था कि मोदी विरोध की एकमात्र सख्त आवाज अब वो ही हैं. अगर वे लेफ्ट को वोट दिये या कांग्रेस को तो पछताना पड़ सकता है. CAA-NRC का नाम लेकर भी समझाया कि अगर बीजेपी के साथ गये तो फिर बाकी बातों के लिए भी तैयार रहना. वो एक तरीके से सीएए विरोध प्रदर्शनों में मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस एक्शन और शाहीन बाग की याद दिलाने की कोशिश कर रही थीं.
4. बंगाल की बेटी का नारा
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने इस बार नया चुनावी नारा दिया था - ‘बांग्ला निजेर मेये के चाए’. इस नारे का अर्थ है - बंगाल अपनी बेटी को चाहता है.
शुरू में ये स्लोगन कुछ लोगों को अटपटा भी लगा, लेकिन इसे एक दूरगामी सोच के तहत गढ़ा गया था. मान कर चलना चाहिये ये काम भी प्रशांत किशोर का ही रहा होगा.
ममता बनर्जी को भी अब तक लोग वैसे ही दीदी कह कर ही संबोधित करते रहे जैसे मायावती को बहनजी, लेकिन प्रशांत किशोर ने तो उनको अचानक ही बेटी के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया था.
दरअसल, ये बीजेपी के इमोशनल पॉलिटिक्स के खिलाफ काउंटर की रणनीति थी. जैसे बीजेपी हिंदू वोटर को जय श्रीराम के नारे के साथ जोड़ने की कोशिश करती थी और फिर ममता बनर्जी पर मुस्लिम तुष्टिकरण का इल्जाम लगाकर खुद को सबसे बड़ा हमदर्द पेश करती रही, दीदी से बेटी बन कर लोगों की भावनाओं से जुड़ने का ये भी एक राजनीतिक प्रयास था.
दीदी को बड़े के तौर पर लिया जाता है. दीदी में लीडरशिप क्वालिटी वाले भाव जरूर आते हैं, लेकिन बेटी के साथ जो अपनत्व का भाव होता है वो अलग ही होता है. बीजेपी का भी तो नारा है ही - बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ.
ममता बनर्जी को को बेटी के रूप में पेश कर प्रशांत किशोर ने ये संदेश देने की कोशिश की कि वे उसके साथ खड़े हो जायें वरना वो बाहरी आक्रमण की शिकार हो सकती है.
साथ ही साथ, ममता बनर्जी बीजेपी पर बाहरियों को बुलाकर कोविड फैलाने और बंगाल के लोगों को वैक्सीन न देने को भी चुनावी मुद्दा बनाने में कामयाब ही रहीं. आखिरी दौर में जब बीजेपी नेताओं ने भी अपनी रैलियां रद्द कर दीं, ममता बनर्जी अपने इस मिशन में जोर शोर से लग गयी थीं.
5. एक पैर से बंगाल तो जीत लिया
नंदीग्राम में नामांकन के बाद जब ममता बनर्जी को पैर में चोट लग गयी तो काफी देर तक वो तकलीफ में रहीं. अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. ममता बनर्जी ने जब अपनी चोट को राजनीतिक विरोधियों की साजिश बता दिया तो सारे विरोधी तृणमूल कांग्रेस नेता की नौटंकी साबित करने पर तुल गये.
शुरू में तो लगा कि ममता बनर्जी ने साजिश की बात बोल कर चोट लगे पैर पर ही राजनीतिक कुल्हाड़ी भी मार ली है, लेकिन जब वो व्हील चेयर पर बैठ कर चुनाव प्रचार के लिए निकलीं तो अलग ही स्वरूप में नजर आयीं - आगे का इरादा भी जताने लगीं.
एक चुनावी रैली में ममता बनर्जी ने अपने भविष्य का इरादा भी साफ कर ही दिया, 'मैं रॉयल बंगाल टाइगर हूं. चोटिल होने के बावजूद - एक पैर से मैं बंगाल जीतूंगी और दो पैर से दिल्ली.'
एक पैर ने कमाल तो दिखा दिया, अब दो पैरों की बारी आने वाली है, लेकिन उसमें काफी देर भी है. 2012 में जिस तरह की चुनौतियां तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी के सामने रहीं, 2021 में बिलकुल वैसे ही हालात ममता बनर्जी के सामने रहे - और खास बात ये रही कि तब प्रशांत किशोर पहली बार मोदी की मदद कर रहे थे और इस बार ममता की मदद कर रहे थे.
ट्रैक रिकॉर्ड के हिसाब से देखें तो नरेंद्र मोदी की ही तरह ममता बनर्जी ने ही मुख्यमत्री रहते हुए सत्ता में वापसी की हैट्रिक जमा ली है - और ऐसे में अगर 2024 में दो पैरों से दिल्ली जीतने के बारे में सोच रही हैं तो कोई हवाई किले जैसी बात नहीं समझी जा सकती!
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