तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक बयान पिछले कुछ दिनों से काफी सुर्खियों में हैं. 2024 के लोक सभा चुनाव में एकला चलो की चुनावी रणनीति से जुड़े बयान पर तमाम तरह की सियासी अटकलें लगाई जा रही है. कुछ लोगों का मानना था कि ममता बनर्जी इसी बहाने केंद्र की राजनीति में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती हैं और खुद को विपक्ष का प्रधानमंत्री चेहरा बनवाना चाहती हैं. लेकिन ममता बनर्जी जब कहती है कि टीएमसी आगामी लोगकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करने वाली, तो ये उनकी मजबूरी और पश्चिम बंगाल में टीएमसी की राजनीतिक हैसियत को बनाए रखने की चिंता है.
दरअसल ममता बनर्जी के सामने 2024 में विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनने का लक्ष्य नहीं है, बल्कि अपने घर को बचाने का, उनके पास इससे भी बड़ी चुनौती है. 2024 में पश्चिम बंगाल में टीएमसी की राजनीतिक हैसियत दांव पर होगी और इसकी वजह है राज्य में भाजपा का बढ़ता जनाधार. यही वजह है कि ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की जनता को ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहती जिससे आगामी लोकसभा चुनाव में टीएमसी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए. ममता बनर्जी कहती है कि जो भी लोग भाजपा को हराना चाहते हैं, वे टीएमसी को वोट करेंगे. आगे बढ़कर वे कहती हैं कि जो लोग प्रधानमंत्री और कांग्रेस को वोट दे रहे हैं, वास्तविक रूप से भाजपा को ही वोट दे रहे हैं. इसी के साथ ममता बनर्जी साफ कर देती हैं कि 2024 में टीएमसी किसी के साथ नहीं जाएगी और राज्य की जनता के समर्थन के बल पर अकेले चुनाव लड़ेगी.
ममता बेनर्जी के इतिहास को खंगाले तो साल 1997 था महीना था, दिसंबर. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के बड़े नेताओं में शामिल ममता बनर्जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. इसमें ऐलान किया कि वो और उनके समर्थक ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ेंगे. ममता की प्रेस कॉन्फ्रेंस चल ही रही थी कि खबर आई कि उन्हें कांग्रेस से 6 साल के लिए बाहर कर दिया गया है. शायद पार्टी के इस फैसले का अंदाजा ममता को पहले ही हो चुका था.राजीव गांधी तक पहुंच रखने वालीं ममता को निकालने का फैसला तुरंत नहीं लिया गया था, बल्कि उनके और कांग्रेस के बीच कई साल से वैचारिक मतभेद चल रहे थे.
पार्टी में उनके सबसे बड़े विरोधी उस वक्त के बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष सोमेंद्र नाथ मित्रा थे. ममता मित्रा को तरबूज कहकर बुलाती थीं, क्योंकि तरबूज अंदर से लाल होता है और वामपंथियों का रंग भी लाल है.ममता को लगता था कि मित्रा वामपंथियों के समर्थक हैं, और ममता वामपंथियों की सबसे बड़ी बड़ी दुश्मन थीं. बाद में ममता की सोनिया से भी कई मुद्दों पर असहमति रही और उन्होंने 1 जनवरी 1998 को नई पार्टी बना ली. तब से अब तक टीएमसी को 25 साल हो चुके हैं, लेकिन पार्टी पश्चिम बंगाल के बाहर कहीं भी सरकार नहीं बना सकी.
सरकार बनाना तो दूर की बात है टीएमसी बंगाल के बाहर किसी भी राज्य में अपने दम पर दहाई के आंकड़े पर भी नहीं पहुंच पाई हैं. 2021 में मेघालय में जरूर टीएमसी के 12 विधायक हो गए थे, लेकिन वो सभी कांग्रेस से टीएमसी में आए थे. टीएमसी के टिकट पर जीते हुए विधायक नहीं थे.टीएमसी 2001 में असम, 2005 में यूपी, 2009 में अरुणाचल प्रदेश, 2009 में केरल, 2012 में मेघालय-मणिपुर, 2014 में तमिलनाडु, 2017 में पंजाब, 2018 में त्रिपुरा, 2021 में हरियाणा, 2021 में बिहार, 2022 में गोवा पहुंची. कहीं चुनाव लड़ा, तो कहीं पार्टी ने एक्टिविटी शुरू कीं, लेकिन इनमें से किसी भी राज्य में पार्टी सरकार नहीं बना सकी.
2021 में हुए विधानसभा चुनाव में सागरदिघी सीट टीएमसी के सुब्रत साहा ने 50 हजार वोटों से जीती थी, लेकिन 22 महीने बाद ही यह सीट कांग्रेस के खाते में चली गई. कांग्रेस कैंडिडेट की जीत का मार्जिन भी 23 हजार वोटों का रहा. सागरदिघी में 64% मुस्लिम पॉपुलेशन है. ऐसे में सवाल खड़े हो रहे हैं क्या बंगाल का मुस्लिम भी दीदी से नाराज चल रहा है.पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों की आबादी 27% है और चुनाव जीतने में ये तबका बड़ा रोल प्ले करता है.
अब तक मुस्लिम ममता बनर्जी को एकतरफा जिताते आए हैं. लोकसभा चुनाव के पहले ममता को मिल रहे संकेत ठीक नहीं लग रहे. पश्चिम बंगाल में बड़े लेवल पर करप्शन के मामले सामने आए हैं.टीचर्स रिक्रूटमेंट में हजारों टीचर्स सड़क पर बैठे. हाईकोर्ट ने भी हायरिंग प्रॉसेस में करप्शन होने की बात कही. बीरभूम में जो हिंसा हुई, उसमें माइनॉरिटी कम्युनिटी के लोग ही मारे गए. ममता सरकार में नंबर दो रहे मंत्री से लेकर उनके खास अनुब्रत मंडल तक सलाखों के पीछे हैं. ऐसे में कहा जा रहा है कि ममता के लिए बंगाल को बचाना ही अभी चुनौती हो गया है.
कहते हैं कि मौजूदा भारतीय राजनीति में शरद पवार को छोड़ दिया जाए तो ममता बनर्जी के बराबर सीनियर और अनुभवी नेता कोई नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी भी उनसे जूनियर हैं, क्योंकि ममता इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के दौर से राजनीति कर रही हैं और नरसिम्हा राव सरकार में भी मंत्री रहीं.आगे कहा जाता हैं कि ‘मौजूदा दौर में कांग्रेस बिना किसी नीति के राजनीति कर रही है. वो केरल में वामपंथियों के खिलाफ लड़ते हैं. उनके नेता राहुल गांधी वहां से वामपंथियों को हराकर चुनाव जीतते हैं, लेकिन बंगाल में वामपंथियों के साथ मिलकर टीएमसी के खिलाफ चुनाव लड़ते हैं. ऐसे में कांग्रेस पर कैसे भरोसा किया जाए. हां, यदि कांग्रेस अपनी दम पर 140 तक सीटें लाती है तो अपने आप उसकी जगह बड़ी हो जाएगी. 40-50 सीटें जीतकर आप खुद को बड़ा बाबू समझेंगे तो कैसे काम चलेगा.’
टीएमसी ने लोकसभा में 40 सीटें जीतने का टारगेट रखा है. नई स्ट्रैटजी से काम शुरू कर दिया है. कहा जाता हैं कि, भाजपा आज इतनी मजबूत सिर्फ कांग्रेस की वजह से हुई है. कांग्रेस अपना काम सही तरीके से करती तो लोकसभा में स्थिति अलग होती है.
ये भी तय है कि पश्चिम बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम के बीच वोटों के ध्रुवीकरण की वजह से भाजपा बड़ी ताकत बनते गई है. लेकिन सागरदिघी उपचुनाव के नतीजों से ममता बनर्जी को डर सता रहा है कि मुस्लिम वोट उसके पाले से निकलकर कांग्रेस के पास जा रहा है और अगर 2024 के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ तो ये भाजपा के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा. ममता बनर्जी की असली चिंता ये है कि अगर 2024 के चुनाव में कांग्रेस और सीपीएम अगर मिलकर टीएमसी के परंपरागत वोट में से थोड़ा बहुत भी हासिल करने में कामयाब रही है, तो भाजपा बहुत आसानी से टीएमसी से ज्यादा सीटें जीत लेगी. इसलिए वो राज्य की जनता को ये संदेश दे रही हैं कि 2024 में तृणमूल कांग्रेस का सिर्फ पश्चिम बंगाल के लोगों के साथ चुनावी गठबंधन होगा.
ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में 2024 में मुकाबले को टीएमसी बनाम भाजपा ही बनाए रखना चाहती है. इसमें वो कांग्रेस या सीपीएम को हिस्सेदार कतई नहीं बनाना चाहती है. अगर वो इन दलों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह के गठबंधन का हिस्सा बनने को राजी हो जाती हैं, तो पश्चिम बंगाल में भाजपा के पक्ष में जबरदस्त धुर्वीकरण हो सकता है और इसी को रोकने के लिए ममता बनर्जी को बार-बार कहना पड़ रहा है कि वो टीएमसी एकला चलो की नीति पर ही 2024 के चुनाव में उतरेगी.
सीपीएम और कांग्रेस के साथ दूरी बनाए रखना सिर्फ 2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से ही ममता बनर्जी की मजबूरी नहीं है. जिस तरह से 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदर्शन किया है, ममता बनर्जी कतई नहीं चाहेंगी किआगामी लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा ऐसा प्रदर्शन कर दिखाए, जिससे यहां कि जनता आगामी विधानसभा चुनाव यानी 2026 में भाजपा को ही टीएमसी का विकल्प समझने लगे. ममता बनर्जी चाहती है कि वो 2024 में वो पश्चिम बंगाल से ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतकर चुनाव बाद भाजपा विरोधी मोर्चा या गठबंधन बनने के हालात में अपनी शर्तों को मनवाने की बेहतर स्थिति में हों.
पश्चिम बंगाल में जो राजनीतिक हालात है, उसके लिहाज से ये तभी मुमिकन होगा जब ममता बनर्जी वहां की जनता में संदेश दे पाएगी कि अभी भी टीएमसी की विचारधारा सीपीएम और कांग्रेस विरोधी ही है. ये साफ है कि 2024 में ममता बनर्जी के सामने पश्चिम बंगाल के गढ़ को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है और वो हर चुनावी रणनीति इसको जेहन में रखकर कर बनाएंगी. भले ही भाजपा विरोधी बाकी दल कुछ भी कहते रहें, ममता बनर्जी का एकला चलो का रवैया पिछले कई सालों से जारी है और इसी के दम पर वो पश्चिम बंगाल में टीएमसी की सरकार बचाए रखने में कामयाब भी होते रही हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.