देश में एक विपक्ष (Opposition) है, और एक सत्ता पक्ष भी है - लेकिन एक तीसरा पक्ष भी है जो मौका देख कर लुढ़कता रहता है. ये बात अलग है कि तीसरे पक्ष को ज्यादातर मौके सत्ता पक्ष के इर्द गिर्द ही दिखाई पड़ते हैं.
ये स्थिति तो पहले भी रही है, लेकिन 2014 के बाद तस्वीर ज्यादा साफ नजर आती है. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक तो बहुत पहले से ही अपने रास्ते चलते आये हैं, लेकिन 2019 के बाद से आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने जगनमोहन रेड्डी भी वही राह पकड़ ली थी - और अब तो ऐसा लगता है जैसे ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) भी उसी रास्ते पर बढ़ चली हों.
ममता बनर्जी की राजनीतिक लाइन में ये बदलाव तो राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ही महसूस किया जाने लगा था, गुजरते वक्त के साथ धीरे धीरे चीजें और भी साफ होती गयी हैं - अब तो शक-शुबहे वाली बात भी नहीं लगती, क्योंकि ममता बनर्जी पीछे मुड़ कर देखने को तैयार भी नहीं हैं. क्योंकि पीछे मुड़ कर देखने पर ममता बनर्जी को पूरा विपक्ष ही नजर आता होगा.
पश्चिम बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी सीधे प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन कर उभर रही थीं, लेकिन सोनिया गांधी ने ऐसा पेंच फंसाया कि रफ्तार धीमी हो गयी. जल्दी ही ममता बनर्जी खुद को अलग थलग महसूस करने लगीं - और जिस दिन उनको लगा कि ऐसे तो गुजारा चलने वाला नहीं, ममता बनर्जी ने शरद पवार से भी फोन पर संपर्क नहीं होने दिया, जिनसे मिलने के लिए वो मुंबई पहुंच गयी थीं. असल में, बंगाल चुनावों के बाद दिल्ली में रहते हुए भी शरद पवार ने ममता बनर्जी को मिलने का टाइम नहीं दिया था, और तृणमूल कांग्रेस नेता को दो कदम आगे बढ़ कर पहल करनी पड़ी थी.
केंद्र की बीजेपी सरकार को लेकर ममता बनर्जी के बयानों को देखें तब तो नहीं लगता कि वो किसी और रास्ते पर निकल पड़ी हैं, लेकिन उनके बाकी हाव भाव और राजनीतिक गतिविधियां तो यही बता रही हैं कि वो सत्ता के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में मिसफिट होने से बचने का फैसला कर चुकी हैं.
भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने की बात पर हाल ही...
देश में एक विपक्ष (Opposition) है, और एक सत्ता पक्ष भी है - लेकिन एक तीसरा पक्ष भी है जो मौका देख कर लुढ़कता रहता है. ये बात अलग है कि तीसरे पक्ष को ज्यादातर मौके सत्ता पक्ष के इर्द गिर्द ही दिखाई पड़ते हैं.
ये स्थिति तो पहले भी रही है, लेकिन 2014 के बाद तस्वीर ज्यादा साफ नजर आती है. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक तो बहुत पहले से ही अपने रास्ते चलते आये हैं, लेकिन 2019 के बाद से आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने जगनमोहन रेड्डी भी वही राह पकड़ ली थी - और अब तो ऐसा लगता है जैसे ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) भी उसी रास्ते पर बढ़ चली हों.
ममता बनर्जी की राजनीतिक लाइन में ये बदलाव तो राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ही महसूस किया जाने लगा था, गुजरते वक्त के साथ धीरे धीरे चीजें और भी साफ होती गयी हैं - अब तो शक-शुबहे वाली बात भी नहीं लगती, क्योंकि ममता बनर्जी पीछे मुड़ कर देखने को तैयार भी नहीं हैं. क्योंकि पीछे मुड़ कर देखने पर ममता बनर्जी को पूरा विपक्ष ही नजर आता होगा.
पश्चिम बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी सीधे प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन कर उभर रही थीं, लेकिन सोनिया गांधी ने ऐसा पेंच फंसाया कि रफ्तार धीमी हो गयी. जल्दी ही ममता बनर्जी खुद को अलग थलग महसूस करने लगीं - और जिस दिन उनको लगा कि ऐसे तो गुजारा चलने वाला नहीं, ममता बनर्जी ने शरद पवार से भी फोन पर संपर्क नहीं होने दिया, जिनसे मिलने के लिए वो मुंबई पहुंच गयी थीं. असल में, बंगाल चुनावों के बाद दिल्ली में रहते हुए भी शरद पवार ने ममता बनर्जी को मिलने का टाइम नहीं दिया था, और तृणमूल कांग्रेस नेता को दो कदम आगे बढ़ कर पहल करनी पड़ी थी.
केंद्र की बीजेपी सरकार को लेकर ममता बनर्जी के बयानों को देखें तब तो नहीं लगता कि वो किसी और रास्ते पर निकल पड़ी हैं, लेकिन उनके बाकी हाव भाव और राजनीतिक गतिविधियां तो यही बता रही हैं कि वो सत्ता के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में मिसफिट होने से बचने का फैसला कर चुकी हैं.
भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने की बात पर हाल ही में अखिलेश यादव ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया - बीजेपी को हटाएगा कौन?
अखिलेश यादव का ये बयान राहुल गांधी के प्रति उनके अविश्वास के इजहार जैसा ही है. और ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब पूरे विपक्ष को मिल कर खोजना है. जिस अंदाज में अखिलेश यादव ने सवाल किया, ऐसा लगा जैसे वो राहुल गांधी की जगह किसी और को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकाबले के लिए बेहतर समझ रहे हों.
अगर वो राहुल गांधी को लेकर वास्तव में निराश हैं तो ममता बनर्जी के बारे में भी ऐसा ही भाव स्वीकार कर लेना चाहिये. हो सकता है, नीतीश कुमार के प्रति अखिलेश यादव के मन में ज्यादा श्रद्धा, सम्मान और विश्वास हो. हो भी क्यों नहीं, ये नीतीश कुमार ही तो हैं जिन्होंने अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में पहले से ही महागठबंधन का नेता घोषित कर रखा है.
और जिसने यूपी में खुद को महागठबंधन का नेता मान लिया हो, वो तो भारत जोड़ो यात्रा में जाने से रहा. राहुल गांधी चाहें तो अखिलेश यादव के यहां जा सकते हैं. मान कर चलना चाहिये वो स्वागत सत्कार में कोई कमी नहीं रखेंगे.
बहरहाल, फिलहाल ये समझना जरूरी है कि ममता बनर्जी को साल भर में ही यूटर्न क्यों लेना पड़ा? ममता बनर्जी ने मोदी-शाह के खिलाफ लड़ कर ही पश्चिम बंगाल का चुनाव जीता था, लेकिन अब उनके खेमे में ही शरणागत होती नजर आ रही हैं - क्या विपक्षी दलों के नेताओं के व्यवहार और स्टैंड के चलते ही ममता बनर्जी को फिर से बीजेपी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना पड़ा है?
विपक्ष को पीछे छोड़ आगे बढ़ रहीं ममता बनर्जी
अगस्त, 2022 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था और केंद्र में बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अलग जगाना शुरू कर दिया था. महागठबंधन के मुख्यमंत्री के तौर पर नये सिरे से शपथ लेने के बाद नीतीश कुमार दिल्ली पहुंचे थे - जिन नेताओं से मिलना हो पाया मिले थे, और बाकी जिनसे मुलाकात नहीं संभव थी फोन पर ही संपर्क कर अपना एजेंडा समझा दिया था.
उसी दौरान ममता बनर्जी ने भी एक दिन जोरदार आवाज में नीतीश कुमार का समर्थन किया था. जैसे नीतीश कुमार ने कहा था, बिलकुल वैसे ही ममता बनर्जी ने भी दोहराया था कि 2024 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बेदखल कर देंगे. विपक्ष के मिशन का हिस्सा बने रहने का वादा करते हुए ममता बनर्जी ने साथ में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का भी नाम लिया था.
ममता बनर्जी की बीजेपी से नजदीकियों की असली बानगी तो उस दिन दिखी जब वो बंगाल के नये राज्यपाल सीवी आनंद बोस (CV Anand Bose) से मिलने राज भवन पहुंचीं और बाहर आकर उनके बारे में अच्छी अच्छी बातें की. बोस से पहले राज्यपाल रहे जगदीप धनखड़ (अब उपराष्ट्रपति) के साथ तो हमेशा ही मुकाबले में दोनों पक्ष दो-दो हाथ करते ही देखे गये. जैसे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपाल का सदाबहार झगड़ा चलता रहता है.
दिल्ली में तो जरा भी फर्क नहीं पड़ता कि कुर्सी पर कौन बैठा है, लेकिन बंगाल में राज्यपाल बदलते ही पूरा माहौल बदला बदला नजर आने लगा है. वैसे तो जगदीप धनखड़ को भी ममता बनर्जी जाते जाते हंसते हंसते चाय पिलाकर विदा किया था. दार्जिलिंग में ममता, धनखड़ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की मुलाकात की वो तस्वीरें तो तभी भविष्य के राजनीतिक समीकरणों की तरफ इशारा करने लगी थीं.
लोग तो पहले से ही हैरान थे कि महीने भर हो चुके और ममता बनर्जी की राज भवन के साथ पहले जैसी तनातनी का माहौल देखने को नहीं मिल रहा है. राज भवन से निकलने के बाद ममता बनर्जी ने जो कुछ कहा वो किसी सरप्राइज से कम भी नहीं था.
राज्यपाल की तारीफ में ममता के कसीदे: राज्यपाल से मुलाकात के बाद मीडिया से मुखातिब, ममता बनर्जी ने जो कुछ भी कहा उसमें हर शब्द आश्चर्चचकित कर देने वाले थे, 'राज्यपाल बहुत अच्छे और भद्र इंसान हैं... वो बहुत बढ़िया व्यवहार कर रहे हैं... मैं उनको मेरी क्रिसमस और हैप्पी न्यू ईयर कहने आई थी.'
ममता बनर्जी ने ये जताने की भी कोशिश की कि उनकी सरकार और राज भवन के साथ संबंध इतने अच्छे हैं कि अब कोई समस्या नहीं होने वाली है. मुख्यमंत्री की तरफ से आश्वस्त करने का प्रयास था कि जो भी समस्याएं होंगी, बातचीत के जरिये उनका समाधान खोज लिया जाएगा. और फिर बोलीं, 'वे हमारा सहयोग कर रहे हैं... और हम कृतज्ञ हैं.'
मोदी-शाह से अब कोई परहेज नहीं रही: ममता बनर्जी को अब न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से परहेज रहा, और न ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से. प्रधानमंत्री के साथ राष्ट्रीय गंगा परिषद की मीटिंग में तो वो शामिल हो ही रही हैं, अमित शाह के साथ हाल की मुलाकात की भी हंसते मुस्कुराते तस्वीरें सोशल मीडिया पर काफी शेयर हुई थीं.
ये तस्वीरें कोलकाता में हुई ईस्टर्न जोनल काउंसिल की मीटिंग की रहीं जिसकी अध्यक्षता केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने की थी. हालांकि, खबर ये भी आयी थी कि पश्चिम बंगाल को लेकर ममता बनर्जी ने अमित शाह के सामने बीएसएफ अफसरों पर अपनी पूरी भड़ास निकाली थी.
ममता बनर्जी G-20 को लेकर हुई सर्वदलीय बैठक में भी शामिल हुई थीं. ये बैठक प्रधानमंत्री की तरफ से बुलायी गयी थी. वरना, कोरोना संकट के दौरान तो प्रधानमंत्री के सामने ही ममता बनर्जी ने अमित शाह की शिकायत कर डाली थी - और 2019 के आम चुनाव के बाद तो इस कदर खफा थीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण समारोह में बुलाने के बावजूद नहीं पहुंची थीं.
ममता बनर्जी का विपक्ष से मोहभंग क्यों हुआ?
विपक्षी खेमा चाहे तो ममता बनर्जी पर तरह तरह के तोहमत जड़ सकता है. विपक्षी नेता तो तभी मुंह बनाने लगे थे जिस दिन ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तारीफ की थी - और उसके बाद जब प्रधानमंत्री मोदी को सबसे अच्छा बता दिया था. बाकी सारी गड़बड़ियों का ठीकरा दूसरों के मत्थे मढ़ दिया था.
विपक्ष से मोहभंग तो ममता बनर्जी का उसी दिन दिखा जब दिल्ली आकर सोनिया गांधी से न मिलने को लेकर पूछे जाने पर भड़क गयीं. गुस्से में लाल ममता बनर्जी पूछने लगीं, हर बार मिलना जरूरी है क्या? ऐसा संविधान में लिखा है क्या?
और ऐसा ही उस दिन भी लगा था जब मुंबई में शरद पवार से मिलने के बाद कह रही थीं, यूपीए क्या है? कहां है यूपीए?
और ये नाराजगी ऐसे बढ़ती गयी कि जब प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से सोनिया गांधी को पेशी के नोटिस पर विपक्षी दलों की तरफ से संयुक्त बयान जारी किया गया. विपक्षी खेमे के ज्यादातर दिग्गजों ने बयान पर दस्तखत किया था - सिर्फ ममता बनर्जी ने ऐसा नहीं किया था.
ये एक तरीके से सोनिया गांधी को नैतिक समर्थन था. ये एक तरीके से केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी का कड़ा विरोध था. बयान के जरिये विपक्ष ने ये जताने की कोशिश की थी कि सोनिया गांधी को राजनीतिक वजहों से जांच एजेंसियों के जरिये निशाना बनाया जा रहा है.
फिर तो ममता बनर्जी के भी दस्तखत न करने का मतलब भी समझ ही लेना चाहिये. सोनिया गांधी को प्रवर्तन निदेशालय के खिलाफ सपोर्ट न करने का मतलब भी तो यही हुआ कि वो बीजेपी के स्टैंड से इत्तेफाक रखती हैं.
ममता बनर्जी का आगे क्या रुख होगा?
ममता बनर्जी भी देश के उन मुख्यमंत्रियों में शामिल हैं जो कभी न कभी बीजेपी के साथ रह चुके हैं. ये दो नाम हैं - नवीन पटनायक और नीतीश कुमार. नीतीश कुमार और ममता बनर्जी तो बीजेपी और कांग्रेस के प्रति स्टैंड बदलते रहे हैं, लेकिन नवीन पटनायक ने लंबे समय से बीच का रास्ता चुन लिया है और उसी रास्ते पर चलते चले आ रहे हैं.
नीतीश कुमार ने तो 2024 तक के लिए अपना एजेंडा साफ कर दिया है. लेकिन ममता बनर्जी ने एजेंडा बदल लिया है. बीजेपी के प्रति नरम रुख को लेकर ममता बनर्जी के राजनीतिक विरोधी कहते रहे हैं कि ये सब वो अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी और साथी नेताओं को बचाने के लिए कर रही हैं. ऐसे आरोप प्रत्यारोप का हक सबके पास है, और कई बार ऐसी बातें राजनीतिक मकसद वाली होकर भी हवा हवाई नहीं लगतीं.
बीजेपी के करीब जाने की सूरत में ममता बनर्जी के सामने कम से कम दो विकल्प तो हैं ही. वो चाहें तो फिर से एनडीए का हिस्सा बन जायें, जैसे नीतीश कुमार बीच बीच में प्रयोग करते रहे हैं. या फिर वो नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी की तरफ केंद्र सरकार के प्रति सहयोगात्मक रवैया अपना लें. वैसे भी विपक्ष का हाल तो वैसा ही लग रहा है जैसा बीजेपी प्रवक्ता गौरव भाटिया ने कहा है - जैसे चाइनीज झालर हो!
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