ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को भी आखिरकार मानना ही पड़ा है कि राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी कैंडिडेट द्रौपदी मुर्मू के आगे विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा कहीं नहीं टिकते. अपनी तरफ से ममता बनर्जी ने भले ही बीजेपी नेतृत्व पर ही तोहमत मढ़ने की कोशिश की हो, लेकिन फजीहत तो यशवंत सिन्हा की ही करा रही हैं.
ये तो यशवंत सिन्हा भी पहले से ही जानते ही थे, लेकिन अपनी बातों और संपर्क अभियान से किसी को ऐसा महसूस नहीं होने दिया. यशवंत सिन्हा कहते रहे हैं कि ये विचारधारा की लड़ाई है - और किसी एक व्यक्ति को शीर्ष पर पहुंचा देने से उसके पूरे समुदाय का कल्याण नहीं हो सकता.
यशवंत सिन्हा तो वैसे भी चुनाव लड़ने को तैयार या मजबूर इसीलिए हुए होंगे क्योंकि ममता बनर्जी के सारे पसंदीदा संभावित उम्मीदवार एक एक करके उनका प्रस्ताव ठुकरा दिये. एक बार लगा जरूर था कि कांग्रेस और ममता बनर्जी कहीं अलग अलग उम्मीदवार न खड़ा कर दें, लेकिन अब तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (K Chandrashekhar Rao) तक ने यशवंत सिन्हा का समर्थन कर दिया है. ये महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि केसीआर हमेशा ही गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस गुट से दूर खुद को पेश करते रहे हैं.
अब इसे क्या कहें कि विपक्ष के साथ खड़े होते ही केसीआर को अगला उद्धव ठाकरे बनाये जाने की कोशिश शुरू हो चुकी है. बस, तेलंगाना में भी एक एकनाथ शिंदे की तलाश है - और ऐसा लगता है कि वो भी करीब करीब पूरी ही हो चुकी है.
हैदराबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने फिर से परिवारवाद की राजनीति पर हमला बोला है. शिवसेना नेतृत्व तो ऐसे ही हमले का लेटेस्ट शिकार है - और लगता है ममता बनर्जी भी महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से...
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को भी आखिरकार मानना ही पड़ा है कि राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी कैंडिडेट द्रौपदी मुर्मू के आगे विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा कहीं नहीं टिकते. अपनी तरफ से ममता बनर्जी ने भले ही बीजेपी नेतृत्व पर ही तोहमत मढ़ने की कोशिश की हो, लेकिन फजीहत तो यशवंत सिन्हा की ही करा रही हैं.
ये तो यशवंत सिन्हा भी पहले से ही जानते ही थे, लेकिन अपनी बातों और संपर्क अभियान से किसी को ऐसा महसूस नहीं होने दिया. यशवंत सिन्हा कहते रहे हैं कि ये विचारधारा की लड़ाई है - और किसी एक व्यक्ति को शीर्ष पर पहुंचा देने से उसके पूरे समुदाय का कल्याण नहीं हो सकता.
यशवंत सिन्हा तो वैसे भी चुनाव लड़ने को तैयार या मजबूर इसीलिए हुए होंगे क्योंकि ममता बनर्जी के सारे पसंदीदा संभावित उम्मीदवार एक एक करके उनका प्रस्ताव ठुकरा दिये. एक बार लगा जरूर था कि कांग्रेस और ममता बनर्जी कहीं अलग अलग उम्मीदवार न खड़ा कर दें, लेकिन अब तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (K Chandrashekhar Rao) तक ने यशवंत सिन्हा का समर्थन कर दिया है. ये महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि केसीआर हमेशा ही गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस गुट से दूर खुद को पेश करते रहे हैं.
अब इसे क्या कहें कि विपक्ष के साथ खड़े होते ही केसीआर को अगला उद्धव ठाकरे बनाये जाने की कोशिश शुरू हो चुकी है. बस, तेलंगाना में भी एक एकनाथ शिंदे की तलाश है - और ऐसा लगता है कि वो भी करीब करीब पूरी ही हो चुकी है.
हैदराबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने फिर से परिवारवाद की राजनीति पर हमला बोला है. शिवसेना नेतृत्व तो ऐसे ही हमले का लेटेस्ट शिकार है - और लगता है ममता बनर्जी भी महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से अंदर से हिल उठी हैं. ये हाल तब है जबकि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के ईडी के फेर में फंसे होने की स्थिति में विपक्षी मोर्चे पर सबसे आगे ममता बनर्जी ही नजर आ रही हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं, देश परिवारवाद से अब पूरी तरह ऊब चुका है... परिवारवाद की पार्टियों से भी ऊब चुका है... ऐसे दलों के लिए अब टिक पाना मुश्किल है... हमें युवा पीढ़ी को आगे लाना चाहिये - और एनकरेज करना चाहिये.'
मोदी बहाने से भी उद्धव ठाकरे का नाम तो नहीं ले रहे हैं लेकिन बातों से ऐसा ही लगता है कि 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले ही केसीआर को भी उद्धव ठाकरे की तरह ही टारगेट किया जाने लगा है - और हैदराबाद की धरती से पश्चिम बंगाल में बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या का जिक्र भी तो ममता बनर्जी को लगे हाथ ही लपेटे में लेने की कोशिश ही लगती है.
अब तो जो जो होना है, वो वो होना ही है - लेकिन ममता बनर्जी को अभी अपना लड़ाकू अंदाज बनाये रखना चाहिये था. आदिवासी समुदाय को नाराज न करने के चक्कर में ही सही, द्रौपदी मुर्मू की जीत का चांस बताकर लगता है जैसे ममता बनर्जी ने अपने हाथों से 2024 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ग्रीन कॉरिडोर बनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी हो.
उद्धव सरकार के जाने से विपक्षी खेमे में मायूसी
तेलंगाना पर जब से बीजेपी नेता अमित शाह की निगाह टिकी है, दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं - एक, पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी को शिकस्त झेलनी पड़ी है और दो, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार के साथ 'खेला' हो चुका है.
अव्वल तो 2020 के बिहार चुनाव की जीत के बाद बीजेपी को सीधे पश्चिम बंगाल का रुख करना चाहिये था, लेकिन अमित शाह भला ऐसा क्यों करते. वो तो सीधे हैदराबाद पहुंचे और पटना से भूपेंद्र यादव को डायरेक्ट वहीं बुला लिया. भूपेंद्र यादव के ही चुनाव प्रभार में बीजेपी को बिहार में जीत हासिल हुई. अब तो भूपेंद्र यादव मोदी कैबिनेट का हिस्सा हैं, लेकिन जब भी बिहार को लेकर कुछ भी होता है, बीजेपी की आखिरी उम्मीद वही बनते हैं.
हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में अमित शाह ने बीजेपी के सारे बड़े नेताओं को उतार दिया था, सिवा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के - और वैसे भी जब अमित शाह खुद रोड शो कर रहे हों तो क्या जेपी नड्डा और क्या कोई और, पूरी बीजेपी हैदराबाद की सड़कों पर वैसे ही उतरी नजर आ रही थी, जैसे 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान पूरी मोदी कैबिनेट गली और मोहल्लों के नुक्कड़ से मीडिया के सामने डटे हुए थे.
अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के मंच से जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने हैदराबाद को भाग्यनगर कह कर संबोधित किया है - आगे की तैयारी समझना मुश्किल नहीं है.
महाराष्ट्र की महाविकास आघाड़ी सरकार के चले जाने से उद्धव ठाकरे सरकार पर तो जो असर पड़ा है, पड़ा ही है - एनसीपी नेता शरद पवार से लेकर कांग्रेस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी तक के मन में तमाम नकारात्मक ख्याल आते ही होंगे. वरना, जिस तरह से द्रौपदी मुर्मू के जीत की चांस की चर्चा चल पड़ी है, आखिर ममता बनर्जी को ऐसे आसानी से हथियार डालते कब देखा गया है.
हालत तो ऐसी पश्चिम बंगाल चुनावों में भी हो चली थी. धीरे धीरे करके बहुत सारे भरोसेमंद तृणमूल कांग्रेस नेता बीजेपी ज्वाइन करते जा रहे थे. अब इससे बड़ा जोखिम वाली बात क्या थी कि मजबूरी में चैलेंज मिलने पर ममता बनर्जी को शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव लड़ना पड़ा और हार तक का मुंह देखना पड़ा था.
एक दौर ऐसा भी रहा जब ममता बनर्जी से उद्धव ठाकरे पूछे थे, दीदी... डरना है या लड़ना है? जाहिर है ममता बनर्जी डरने के बारे में तो सोचने से भी रहीं, बात जब भी होगी लड़ने की ही करेंगी. बंगाल चुनाव में भी हर मौके पर अपने को फाइटर के तौर पर पेश करती रहीं. तभी तो यहां तक कह डाला था कि एक पैर से बंगाल और दो पैरों से दिल्ली भी जीतूंगी - लेकिन लगता है तेवर धीमा पड़ने लगा है.
तेलंगाना में भी 'खेला' होगा क्या?
2020 के हैदराबाद नगर निगम चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें तो केसीआर की पार्टी टीआरएस को ही मिली थीं, लेकिन अहम बात ये रही कि बीजेपी ने 48 सीटें जीत कर असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM को भी पछाड़ दिया था. AIMIM को 44 सीटों के साथ तीसरी पोजीशन पर पहुंच जाना पड़ा था.
और ठीक पहले नवंबर, 2020 में दुबक्का विधानसभा सीट से एम. रघुनंदन राव की जीत ने बीजेपी का जोश बढ़ा ही रखा था - ये सब बीजेपी नेतृत्व के मन में यकीन दिलाने के लिए काफी रहा कि केसीआर को चैलेंज करने का वक्त आने वाला है. दुब्बका को, दरअसल, टीआरएस का मजबूत गढ़ माना जाता है. दुब्बका विधानसभा की सीमाएं ऐसे तीन इलाकों से सटी हुई हैं जो टीआरएस के सबसे ताकतवर नेता हैं - केसीआर, उनके बेटे और टीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष केटीआर - और दोनों के बाद टीआरएस के बड़े नेता माने जाने वाले हरीश राव.
हरीश राव ही तेलंगाना के शिंदे तो नहीं: पश्चिम बंगाल की हार के बावजूद बीजेपी की तैयारी करीब करीब वैसी ही चल रही है - और हरीश राव को भी शुभेंदु अधिकारी की तरह ही नाराज बताया जा रहा है.
तृणमूल कांग्रेस में रहते शुभेंदु अधिकारी की ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी से पटरी नहीं बैठती थी, हरीश राव काफी दिनों से केसीआर के बेटे केटी रामा राव से खासे परेशान बताये जा रहे हैं - और बीजेपी की नजर इसीलिए हरीश राव पर जा टिकी है.
हैदराबाद में ये चर्चा भी होने लगी है कि हरीश राव कभी भी महाराष्ट्र के एकनाथ शिंदे की भूमिका में आ सकते हैं - क्योंकि उनके प्रभाव में भी 30-40 विधायक बताये जा रहे हैं. हालांकि, हरीश राव को बीजेपी मुख्यमंत्री बनना चाहे तो भी अकेले ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि तेलंगाना में उसके पास नंबर नहीं है - लिहाजा हरीश राव को बीजेपी चाहे तो शुभेंदु अधिकारी की तरह ही इस्तेमाल कर सकती है.
धीरे धीरे पांव जमाने की कोशिश: बीजेपी अलग अलग तरीके से तेलंगाना में पांव जमाने की कोशिश कर रही है - और उसका आत्मविश्वास बढ़ने की एक वजह बढ़ता वोट शेयर भी है.
2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के हिस्से महज 6.30 फीसदी वोट आये थे, लेकिन करीब छह महीने बाद ही 2019 के आम चुनाव में के चार उम्मीदवार चुनाव जीत कर लोक सभा पहुंच गये - और इस तरह वोट शेयर भी बढ़कर 19 फीसदी को पार कर गया.
तेलंगाना में दबदबा तो दो ही बड़ी जातियों का है - मुन्नरकापू और रेड्डी, जबकि वेलमा समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री केसीआर का भी अपना प्रभाव क्षेत्र है ही. फिर भी बीजेपी का ज्यादा जोर मुन्नरकापू और ओबीसी वोट बैंक पर नजर आता है. हिस्सेदारी के हिसाब से देखें तो मुन्नरकापू और रेड्डी मिल कर वोटों का करीब 40 फीसदी हैं.
तेलंगाना से जी. किशन रेड्डी को तो पहले ही केंद्र सरकार में मंत्री बनाया जा चुका है, मुन्नरकापू जाति से आने वाले बंडी संजय को तेलंगाना बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया है - और बीजेपी के ओबीसी मोर्चा के अध्यक्ष के लक्ष्मण को यूपी के रास्ते राज्य सभी भी भेजा जा चुका है.
अगले आम चुनाव से ठीक पहले तेलंगाना विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं. तेलंगाना में लोक सभा की 17 सीटें हैं और बीजेपी की कोशिश तो चार से चौगुणा करने की होगी ही. 2021 से पहले पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी की प्रोग्रेस रिपोर्ट ऐसी ही देखी जाती रही, लेकिन नतीजे वैसे नहीं रहे.
बाकी बातें अपनी जगह हैं और विपक्षी एकजुटता का मसला अपनी जगह. अगर ममता बनर्जी जैसा ही इकबालिया बयान विपक्षी खेमे के बाकी नेताओं के मन में भी चल रहा है तो 2024 के हिसाब से चांस तो ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत का ही लगने लगा है - और अभी से ही.
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