ममता बनर्जी भी उसी रास्ते पर बढ़ने लगीं जिस पर अब तक राहुल गांधी चलते रहे हैं. बीजेपी के कांग्रेस मुक्त अभियान और मिशन बंगाल में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. राहुल गांधी बीजेपी की राह में आसान रोड़ा थे और ममता बनर्जी थोड़ा मुश्किल हैं.
फर्ज कीजिए, ओडिशा की तरह पश्चिम बंगाल में भी विधान सभा के चुनाव आम चुनाव के साथ हुए होते - तो क्या नतीजे वैसे ही होते? ओडिशा के लोक सभा और विधानसभा के नतीजों की तुलना करने पर तो लगता है कि बंगाल का हाल और बुरा हो सकता था.
2016 के चुनाव में बीजेपी का पूरा ध्यान असम पर रहा, मेहनत तो पार्टी ने तब पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में भी की थी लेकिन वैसी नहीं. इस बार पश्चिम बंगाल और ओडिशा में बीजेपी को फायदा जरूर मिला लेकिन केरल में दाल नहीं गल पायी. बावजूद उसके अब बीजेपी अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियों जुट गयी है.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी की ताजा सक्रियता 2022 के विधानसभा चुनावों को लेकर ही है. जो हाल हो रखा है, जरूरी नहीं कि तब तक ममता बनर्जी सरकार टिक भी पाये. जिस हिसाब से पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था के हालात होते जा रहे हैं ममता सरकार 2022 तक बनी रहेगी, संदेह पैदा होने लगा है.
2019 के नतीजे ममता बनर्जी के लिए फीडबैक है, जबकि बीजेपी की मेहनत की पैमाइश और मेहनताना. बीजेपी तो बखूबी समझ रही है, मालूम नहीं ममता बनर्जी को ये समझ में नहीं आ रहा है या समझना ही नहीं चाहतीं या फिर समझने के बावजूद स्थिति को संभालना मुश्किल हो रहा है.
आम चुनाव से पहले ममता बनर्जी बीजेपी को केंद्र की सत्ता से भगाने का अभियान चला रही थीं - मुमकिन नहीं हुआ. ठीक वैसे ही बीजेपी पश्चिम बंगाल ने ममता बनर्जी को बेदखल करने की मुहिम चला रही थी - आधी कामयाबी तो मुमकिन हो ही गयी. ये ममता बनर्जी...
ममता बनर्जी भी उसी रास्ते पर बढ़ने लगीं जिस पर अब तक राहुल गांधी चलते रहे हैं. बीजेपी के कांग्रेस मुक्त अभियान और मिशन बंगाल में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. राहुल गांधी बीजेपी की राह में आसान रोड़ा थे और ममता बनर्जी थोड़ा मुश्किल हैं.
फर्ज कीजिए, ओडिशा की तरह पश्चिम बंगाल में भी विधान सभा के चुनाव आम चुनाव के साथ हुए होते - तो क्या नतीजे वैसे ही होते? ओडिशा के लोक सभा और विधानसभा के नतीजों की तुलना करने पर तो लगता है कि बंगाल का हाल और बुरा हो सकता था.
2016 के चुनाव में बीजेपी का पूरा ध्यान असम पर रहा, मेहनत तो पार्टी ने तब पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में भी की थी लेकिन वैसी नहीं. इस बार पश्चिम बंगाल और ओडिशा में बीजेपी को फायदा जरूर मिला लेकिन केरल में दाल नहीं गल पायी. बावजूद उसके अब बीजेपी अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियों जुट गयी है.
पश्चिम बंगाल में बीजेपी की ताजा सक्रियता 2022 के विधानसभा चुनावों को लेकर ही है. जो हाल हो रखा है, जरूरी नहीं कि तब तक ममता बनर्जी सरकार टिक भी पाये. जिस हिसाब से पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था के हालात होते जा रहे हैं ममता सरकार 2022 तक बनी रहेगी, संदेह पैदा होने लगा है.
2019 के नतीजे ममता बनर्जी के लिए फीडबैक है, जबकि बीजेपी की मेहनत की पैमाइश और मेहनताना. बीजेपी तो बखूबी समझ रही है, मालूम नहीं ममता बनर्जी को ये समझ में नहीं आ रहा है या समझना ही नहीं चाहतीं या फिर समझने के बावजूद स्थिति को संभालना मुश्किल हो रहा है.
आम चुनाव से पहले ममता बनर्जी बीजेपी को केंद्र की सत्ता से भगाने का अभियान चला रही थीं - मुमकिन नहीं हुआ. ठीक वैसे ही बीजेपी पश्चिम बंगाल ने ममता बनर्जी को बेदखल करने की मुहिम चला रही थी - आधी कामयाबी तो मुमकिन हो ही गयी. ये ममता बनर्जी के लिए सबसे बड़ा अलर्ट रहा, लेकिन वो समझ नहीं पायीं. या हो सकता है समझना न चाह रही हों.
क्या बंगाल ममता के हाथ से निकल रहा है?
ऐसा क्यों है कि पश्चिम बंगाल में कुछ भी ममता बनर्जी के मनमुताबिक बिलकुल नहीं - और ठीक उसी वक्त सब कुछ बीजेपी नेतृत्व के मनमाफिक ही हो रहा है?
फिर तो ये मान कर चलना चाहिये कि बीजेपी बंगाल में शानदार एंट्री के बाद पांव भी मजबूती से जमाने लगी है. बीजेपी बंगाल के लोगों को ये बताने में कामयाब होती जा रही है कि उसके कार्यकर्ताओं को परेशान किया जा रहा है - और बंगाल के लोगों की सहानुभूति उसे आसानी से हासिल होती जा रही है. पंचायत चुनावों के बाद एक बार फिर से हिंसा भी वैसा ही रूप लेती जा रही है.
लगातार तीन दिन से बंगाल में हिंसा का दौर जारी है -
1. मालदा - 12 जून : पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरे दिन मालदा में तनाव का माहौल बना रहा, बल्कि लगातार बढ़ता ही गया. दो दिन से गायब बीजेपी कार्यकर्ता का शव मिलते ही पार्टी कार्यकर्ता सड़क पर उतर आये.
2. कांकीनारा, 24 परगना - 11 जून : उत्तर 24 परगना जिले के कांकीनारा में बम धमाके में दो लोगों की मौत हो गई थी. चार लोग जख्मी भी हुए थे.
3. आमटा, हावड़ा - 10 जून : हावड़ा के आमटा के सरपोटा गांव में बीजेपी कार्यकर्ता का शव पेड़ से लटकते हुए मिला था. परिवारवालों और बीजेपी नेताओं का आरोप है कि इसके पीछे तृणमूल कांग्रेस का हाथ है.
कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ बीजेपी ने कोलकाता के लाल बाजार में पुलिस मुख्यालय का घेराव किया. प्रदर्शनकारी कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस ने बल प्रयोग के साथ आंसू गैस के गोले भी दागे. पुलिस मुख्यालय के बाहर बीजेपी का झंडा लहराने वाली पांच महिला कार्यकर्ताओं को हिरासत में भी ले लिया गया. इससे पहले हावड़ा में 11 जून को बीजेपी युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने सड़क पर लेट कर विरोध प्रदर्शन किया था.
हिंसक घटनाओं को लेकर पहली बार ममता बनर्जी ने भी माना है कि आम चुनाव के बाद राजनीतिक हिंसा हुई है. वैसे ममता बनर्जी का दावा है कि राजनीतिक हिंसा में बीजेपी के सिर्फ दो जबकि टीएमसी के 10 कार्यकर्ताओं की मौत हुई है. चुनाव के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि पश्चिम बंगाल की राजनीतिक हिंसा में बीजेपी के 80 कार्यकर्ताओं की मौत हुई है. पश्चिम बंगाल में मारे गये बीजेपी कार्यकर्ताओं के परिवारवालों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शपथग्रहण में दिल्ली भी बुलाया गया था.
ममता को राजनीतिक परिपक्वता दिखाने की जरूरत है
हाल ही में पश्चिम बंगाल के गवर्नर केशरीनाथ त्रिपाठी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी. ये मुलाकात भी पश्चिम बंगाल के मौजूदा हालात के संदर्भ में ही समझी गयी. राज्यपाल ने 13 जून को हालात की समीक्षा के लिए सर्व दलीय बैठक भी बुलायी है जिसके लिए टीएमसी, बीजेपी, कांग्रेस और वाम दलों को न्योता भेजा गया है.
ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मोदी की ही तरह अस्मिता कार्ड भी खेला है. प्रधानमंत्री मोदी अक्सर गुजराती अस्मिता की बात करते रहते हैं. ममता बनर्जी ने बीजेपी नेतृत्व को चेताया है कि वो किसी भी सूरत में बंगाल को गुजरात नहीं बनने देंगी. ईश्वरचंद विद्यासागर की प्रतिमा के अनावरण के बाद ममता बनर्जी ने राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को भी आगाह किया, 'मैं गवर्नर का सम्मान करती हूं, लेकिन हर संवैधानिक पद की कुछ सीमाएं भी होती हैं. बंगाल को बदनाम किया जा रहा है. अगर आप बंगाल और उसकी संसकृति को बचाना चाहते हैं तो फिर साथ आइए. बंगाल को गुजरात बनाने की योजना है, लेकिन बंगाल गुजरात नहीं है.'
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को समझना होगा कि महज इतने भर से काम नहीं चलने वाला. अब तक ममता बनर्जी आंदोलनकारी राजनीति करती आई हैं - ये मौका ममता बनर्जी के राजनीतिक परिपक्वता दिखाने का है. बीजेपी तो अपने मिशन में लगी ही है. सिर्फ सख्त लहजे में या बयानों के जरिये हमले से कुछ नहीं होने वाला - ममता बनर्जी को ऐसे किसी भी कदम से बचना चाहिये जो राजनीतिक तौर पर टीएमसी पर ही भारी पड़े. अब तक यही देखने को मिला है कि ममता बनर्जी बीजेपी के खिलाफ हमेशा ही सख्ती से पेश आती हैं. लिहाजा बीजेपी कोर्ट का रूख करती है. ये सही है कि कोर्ट से भी बीजेपी को फौरन हरी झंडी नहीं मिल जाती या जैसे वो चाहती है नहीं हो पाता लेकिन ममता बनर्जी सरकार की फजीहत जरूर होती है.
1. बीजेपी को रथयात्रा की इजाजत नहीं मिली : 2018 के आखिर में बीजेपी ने व्यापक स्तर पर पश्चिम बंगाल में रथयात्रा का प्लान किया था. ममता बनर्जी की सरकार ने रोक लगा दी. बीजेपी को मदद के लिए कोर्ट जाना पड़ा. कोर्ट ने रथयात्रा तो नहीं निकालने दी लेकिन ममता सरकार के अफसरों को झाड़ पिलाते हुए रैली की अनुमति देने को कहा दिया. रथयात्रा न सही बीजेपी की रैलियां तो हुईं ही - इस दौरान जो भी प्रचार प्रसार हुआ सब ममता बनर्जी के खिलाफ गया. बीजेपी को आम चुनाव में मिली कामयाबी तो सबूत है ही.
2. बीजेपी नेताओं के हेलीकॉप्टर नहीं उतरने दिये : कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड की रैली में ही ममता बनर्जी से ऐलान किया था कि वो बीजेपी नेताओं के हेलीकॉप्टर नहीं उतरने देंगी - जो कहा वो किया भी. फायदा क्या मिला? क्या हेलीकॉप्टर नहीं उतरने देने से किसी को रैली करने से रोक पायीं. जहां संभव हुआ झारखंड के रास्ते बीजेपी नेता पहुंचे ही. रैली भी किये और चुनाव भी जिताये.
3. बीजेपी रैली क्यों नहीं कर सकती? अब भी हाल यही है कि बीजेपी नेताओं की रैली या किसी भी कार्यक्रम को काफी संघर्ष के बाद ही अनुमति मिल पाती है. ममता बनर्जी खुद तो केंद्र की बीजेपी सरकार पर तानाशाही का इल्जाम लगाती हैं - लेकिन जो पश्चिम बंगाल सरकार कर रही है उसके के पीछे क्या दलील देंगी?
हालत तो ये है कि ममता बनर्जी की सारी सख्ती धरी की धरी रह जा रही है - और धीरे धीरे पश्चिम बंगाल पर राजनीतिक पकड़ ढीली पड़ती नजर आ रही है. ये भी समझना मुश्किल हो रहा है कि क्या ममता बनर्जी के सलाहकार ही ऐसे आइडिया देते हैं या ममता बनर्जी उनकी भी एक नहीं सुनतीं?
धीरे धीरे ममता बनर्जी उसी खेल में उलझती जा रही हैं, जिसमें बीजेपी उकसा कर उलझाना चाहती है - ये रवैया रहा तो राष्ट्रपति शासन लगाये जाने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता. ये सब तो इंदिरा गांधी के जमाने में भी होता ही आया है. बाद में होगा क्या? फिर से सिंगर जैसा आंदोलन खड़ा करने की कोशिश करेंगी. ध्यान रहे, अब न वो जोश है न ऊर्जा. और तो और बंगाल के लोग तो अब ममता का भी शासन भी देख ही चुके हैं - आखिर अब किस 'पोरिबर्तन' का सपना दिखाएंगी?
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