ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) पश्चिम बंगाल से ऐसे मिशन पर निकली हैं कि बार बार उनसे एक ही सवाल पूछा जा रहा है - और वो है 2024 में विपक्ष के नेतृत्व को लेकर. असल में जो विपक्ष का नेता बनेगा अगला आम चुनाव भी विपक्ष उसी के नाम पर लड़ेगा. फिर लोग मान कर चलेंगे कि विपक्ष का वो नेता ही चुनाव जीतने की स्थिति में देश का प्रधानमंत्री बनेगा.
देश की चुनावी राजनीति में विपक्षी दलों के बीच नेतृत्व का मसला ही रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा नजर आया है. गठबंधन के शेप लेने से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार ही आगे आ जाते हैं और वो रेत का मोर्चा साबित होता है. देश के दो बड़े दलों के साथ मिलती विचारधारा वाले कुछ सहयोगी खड़े होते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो दोनों में से किसी के साथ जाना पसंद नहीं करते. मुद्दों के आधार पर वे किसी ने किसी के साथ जरूरत भर खड़े जरूर होते हैं, लेकिन उसके बाद अपने ही रास्ते पर चलते रहते हैं - और फिर विपक्ष को एक ऐसे नेता की जरूरत लगती है जिस पर लोगों को भी भरोसा हो, जेपी या अन्ना हजारे (JP and Anna Hazare) जैसा.
पहले एनडीए और फिर यूपीए छोड़ देने के बाद से ममता बनर्जी भी कई साल से अपनी अलग राह की मुसाफिर रही हैं. 2011 में वो कांग्रेस के खिलाफ जा चुकी थीं और 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद बीजेपी के खिलाफ. ममता बनर्जी की तरह नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी जैसे नेता भी हैं जो अब भी घोषित तौर पर किसी भी राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन वक्त और जरूरत के हिसाब से स्टैंड लेते रहे हैं.
विपक्षी दलों के एकजुट होने में फिलहाल तो सबसे बड़ी बाधक कांग्रेस ही लगती है क्योंकि प्रधानमंत्री पद पर उसका सौ फीसदी आरक्षण का दावा बना हुआ है, ये बात अलग है कि आम चुनाव में इतनी सीटें भी नहीं जीत पा रही है कि नेता, प्रतिपक्ष का पद तकनीकी तौर पर उसे मिले. बाकी तो काम चल ही रहा है. बातों बातों में राहुल गांधी खुद को विपक्ष का नेता बता भी देते हैं. वैसे लोक सभा में कांग्रेस ने अधीर रंजन चौधरी को ये जिम्मेदारी दे रखी है जो...
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) पश्चिम बंगाल से ऐसे मिशन पर निकली हैं कि बार बार उनसे एक ही सवाल पूछा जा रहा है - और वो है 2024 में विपक्ष के नेतृत्व को लेकर. असल में जो विपक्ष का नेता बनेगा अगला आम चुनाव भी विपक्ष उसी के नाम पर लड़ेगा. फिर लोग मान कर चलेंगे कि विपक्ष का वो नेता ही चुनाव जीतने की स्थिति में देश का प्रधानमंत्री बनेगा.
देश की चुनावी राजनीति में विपक्षी दलों के बीच नेतृत्व का मसला ही रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा नजर आया है. गठबंधन के शेप लेने से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार ही आगे आ जाते हैं और वो रेत का मोर्चा साबित होता है. देश के दो बड़े दलों के साथ मिलती विचारधारा वाले कुछ सहयोगी खड़े होते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो दोनों में से किसी के साथ जाना पसंद नहीं करते. मुद्दों के आधार पर वे किसी ने किसी के साथ जरूरत भर खड़े जरूर होते हैं, लेकिन उसके बाद अपने ही रास्ते पर चलते रहते हैं - और फिर विपक्ष को एक ऐसे नेता की जरूरत लगती है जिस पर लोगों को भी भरोसा हो, जेपी या अन्ना हजारे (JP and Anna Hazare) जैसा.
पहले एनडीए और फिर यूपीए छोड़ देने के बाद से ममता बनर्जी भी कई साल से अपनी अलग राह की मुसाफिर रही हैं. 2011 में वो कांग्रेस के खिलाफ जा चुकी थीं और 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद बीजेपी के खिलाफ. ममता बनर्जी की तरह नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी जैसे नेता भी हैं जो अब भी घोषित तौर पर किसी भी राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन वक्त और जरूरत के हिसाब से स्टैंड लेते रहे हैं.
विपक्षी दलों के एकजुट होने में फिलहाल तो सबसे बड़ी बाधक कांग्रेस ही लगती है क्योंकि प्रधानमंत्री पद पर उसका सौ फीसदी आरक्षण का दावा बना हुआ है, ये बात अलग है कि आम चुनाव में इतनी सीटें भी नहीं जीत पा रही है कि नेता, प्रतिपक्ष का पद तकनीकी तौर पर उसे मिले. बाकी तो काम चल ही रहा है. बातों बातों में राहुल गांधी खुद को विपक्ष का नेता बता भी देते हैं. वैसे लोक सभा में कांग्रेस ने अधीर रंजन चौधरी को ये जिम्मेदारी दे रखी है जो अभी अभी छिनते छिनते बची है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के खिलाफ विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व के सवाल पर ममता बनर्जी कह रही हैं कि ये सब जब वक्त आएगा तब की परस्थितियों पर निर्भर करेगा. स्टैंड तो यही 2019 में भी नजर आया था, कोशिशें भले ही अभी के मुकाबले छोटी रही होंगी, लेकिन कदम कदम पर पहले भी ममता बनर्जी और राहुल गांधी में ठनी रहती थी - वो अब भी खत्म नहीं हुआ है. बल्कि कुछ बढ़ा ही लग रहा है.
जब तक विपक्षी खेमे से 'कौन बनेगा प्रधानमंत्री' जैसे सवाल के जबाव में एक स्वर से 'हम में से कोई नहीं', नहीं सुनाई देता तब तक मान कर चलना होगा कि लोचा खत्म नहीं हुआ है - संभावना तब भी बढ़ जाती है जब ममता बनर्जी, जैसे अभी खुद को एक साधारण कार्यकर्ता बता रही हैं, आगे भी अपनी बात पर कायम रहती हैं.
विपक्ष में नेतृत्व ही सबसे बड़ा मसला है
ममता बनर्जी ने अपनी तरफ से अपनी सक्रियता को लेकर तस्वीर साफ करने की कोशिश जरूर की है, 'मैं विपक्षी दलों की मदद कर रही हूं. मैं नेता नहीं बनना चाहती... एक साधारण कार्यकर्ता रहना चाहती हूं.'
और ज्यादा कुरेदने पर अपने नैसर्गिक तेवर में भी आ ही जाती हैं. जवाब देने की स्टाइल जरूर बदल जाती है, लेकिन कंटेंट नहीं, 'मैं कोई पॉलिटिकल ज्योतिषी नहीं हूं... ये परिस्थितियों पर निर्भर करता है. कोई और नेतृत्व करे तो मुझे कोई परेशानी नहीं है. जब चर्चा होगी तो हम फैसला कर लेंगे.'
ममता बनर्जी पूरे देश में खेला होने का दावा करती हैं और कहती हैं कि ये सिलसिला चलता रहने वाला है, 'जब अगला आम चुनाव होगा तो वो मोदी और पूरे देश के बीच होगा.'
ममता बनर्जी का ये कहना बहुत हद तक सही भी है कि वो विपक्ष की मदद कर रही हैं. तभी तो लालू यादव के जमानत पर जेल से छूट कर आने के इतने दिनों बाद एनसीपी नेता शरद पवार मिलने पहुंच जाते हैं - और फिर मीसा भारती के आवास पर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव के साथ साथ कांग्रेस सांसद अखिलेश सिंह मिल कर बैठक करते हैं.
ये ममता बनर्जी का असर नहीं तो क्या है - राहुल गांधी के मीटिंग बुलाने पर आप सांसद संजय सिंह मौजूदगी दर्ज कराते हैं और ममता बनर्जी से मिलने अरविंद केजरीवाल उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के घर साउथ एवेन्यू जा धमकते हैं.
राहुल गांधी विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाते हैं. ट्विटर पर तस्वीरें शेयर करते हैं. मीडिया से बात करते हैं. सवाल पूछे जाने पर पत्रकार को पहचान लेने के दावे भी करते हैं कि वो किसके कहने पर मुद्दे को डिस्ट्रैक्ट करने की कोशिश करता है - लेकिन ममता बनर्जी या उनका कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं होता.
ममता बनर्जी चौंकाने भी लगी हैं. राहुल गांधी की मीटिंग से तो दूरी बना लेती हैं, लेकिन सोनिया गांधी से मिलने 10, जनपथ पहुंचती हैं और वहां राहुल गांधी से भी बात करती हैं - देश के मौजूदा राजनीतिक हालात पर चर्चा भी करती हैं और मीडिया को बताती भी हैं.
ये तमाम गतिविधियां ममता बनर्जी के चलते ही नये सिरे से होने लगी हैं. ऐसा होने की एक बड़ी वजह पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी नेतृत्व को शिकस्त देना भी है.
चुनावी जीत ऐसी ही होती है. राहुल गांधी के चुनाव हार जाने पर कांग्रेस के ही नेता कटाक्ष करने लगते हैं - और एक चुनाव जीत कर ममता बनर्जी विपक्ष की उम्मीदों के नेता के तौर पर नजर आने लगती हैं. वैसे भी राजनीतिक लिहाज से देखें तो बीजेपी को केंद्र और राज्यों की सत्ता से बेदखल करना एक बात है - और किसी का प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना अलग मुद्दा है.
असल बात तो ये है कि ऐसे किसी भी मिशन के दो हिस्से ही हो सकते हैं. पहला, बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना - और दूसरा, विपक्षी खेमे से किसी को प्रधानमंत्री कर नेतृत्व करना.
विपक्ष की अब तक की कोशिश इसका उलटा ही रही है - और वजह भी यही रही है कि सब उलटा पुलटा हो जाता है. सही मायने में तो कोई एक भी क्रेडिबल फेस नहीं है जिसे लोग चुनाव से पहले से ही नेता के तौर पर देखने लगें - और उसे विकल्प के तौर पर सोचना शुरू कर सकें. अब भी आपसी बातचीत में जब भी लोग हल्के फुल्के राजनीतिक होते हैं तो बीजेपी का होने के बावजूद हालात से निराश हो चुके लोग भी एक बात पूछते हैं - विकल्प क्या है? विकल्पहीनता ही इसी स्थिति को अंग्रेजी में TINA फैक्टर के रूप में जाना जाता है. दुनिया भर में सत्ता पर काबिज नेताओं की कोशिश यही रहती है कि वो अपने मुल्क में विकल्पहीनता की स्थिति पैदा कर दें और काफी हद तक कई नेता इस मामले में सफल भी रहे हैं.
अब भी स्थिति ऐसी ही है कि बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बेदखल वही कर सकता है जो विपक्ष का नेता तो हो, लेकिन प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं. 2019 में शरद पवार और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा को इस खांचे में फिट माना जा रहा था - क्योंकि दोनों में से किसी को प्रधानमंत्री बनने की कोई ख्वाहिश नहीं देखने को मिली थी. देवगौड़ा तो एक बार पीएम बन ही चुके हैं, पवार के मन में अगर कोई लालसा है तो बस बेटी सुप्रिया सुले के राजनीतिक भविष्य भर है - और वो अभी प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं बन पायी हैं.
कुल मिलाकर नेतृत्व ही विपक्ष में प्रमुख मसला है और अगर ममता बनर्जी खुद को नेतृत्व की होड़ से अलग रखने की अपनी बात पर कायम रहती हैं तो उनके लिए दिल्ली बहुत दूर भी नहीं होनी चाहिये.
लेकिन ममता न तो जेपी हैं न अन्ना हजारे
हर मकसद के पीछे कड़ा संघर्ष होता है, हर मंजिल के पीछे बड़ी कुर्बानी होती है - और ये बात फिलहाल विपक्ष को एकजुट करने के मामले में पूरी तरह लागू होती है.
अगर जेपी यानी समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने किसी जमाने में इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया था तो 2014 में दस साल से सरकार चला रही इंदिरा गांधी की पार्टी को दिल्ली से दूर करने में अन्ना हजारे की भी एक बड़ी भूमिका तो रही ही. भले ही अरविंद केजरीवाल को अन्ना आंदोलन की राजनीतिक पैदाइश माना जाता हो, लेकिन भ्रष्टाचार की भेंट ही तो मनमोहन सिंह की यूपीए 2 सरकार भी चढ़ी थी.
ठीक वैसे ही अगर राजनीतिक वजहों से विपक्ष चाहता है कि केंद्र और कई राज्यों में सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ भी कांग्रेस मुक्त भारत जैसी मुहिम चलाये तो उसके लिए भी जेपी या अन्ना हजारे जैसे ही एक भरोसेमंद चेहरे की जरूरत है - और वो ममता बनर्जी तो नहीं ही लगती हैं.
ममता बनर्जी जानती हैं कि विपक्षी दलों के नेतृत्व के सवाल पर उनके जबाव का कितना असर हो सकता है, लिहाजा वो कुछ भी नहीं बोलना चाहतीं. कुछ बोलती भी हैं तो बस गोल मोल बातें होती हैं - जो उनके पूर्व घोषित इरादे से मैच नहीं करतीं - एक पैर से कोलकाता जीतेंगे और दो पैरों से दिल्ली. अगर एक पैर से कोलकाता जीतकर मुख्यमंत्री बन गयीं तो दो पैरों से दिल्ली जीत कर प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकतीं? बड़ी वजह यही है कि ममता बनर्जी का जवाब हजम करना किसी के लिए भी मुश्किल होता है.
अभी जिस तरह से शरद पवार, यशवंत सिन्हा और अब लालू प्रसाद यादव भी ममता बनर्जी की उभरती ताकत और निखरती राजनीतिक छवि की बदौलत प्रयासरत हैं - ये विपक्ष के एकजुट होने के लेकर गंभीरता से सोचने के लिए तो मजबूर कर सकता है, लेकिन इन सब में से कोई भी देश की जनता को जेपी या अन्ना हजारे जैसा विश्वास दिला पाने के काबिल तो नहीं ही लगता.
ममता बनर्जी के मिशन में एक काबिल नाम और भी है - प्रशांत किशोर. वो नेताओं को तो भरोसा दिला सकते हैं, लेकिन लोग उनकी बात क्यों सुनेंगे?
लोगों की नजर में तो प्रशांत किशोर पैसे लेकर नेताओं को चुनाव जिताने वाले पेशेवर भर हैं - न कोई आइडियोलॉजी है, न सिद्धांत. आज किसी के साथ तो कल किसी के साथ - जो प्रोजेक्ट का ठेका मंजूर कर ले, उसी के लिए काम शुरू कर देंगे.
दिल्ली में ममता बनर्जी जो भी कह रही हैं वो बिलकुल सही और संभव भी लगता है, 'पूरे देश में खेला होगा... जब अगला आम चुनाव होगा तो वो मोदी और पूरे देश के बीच होगा.'
देश तो हो सकता है तैयार भी हो, लेकिन किसके लिए? ये भरोसा कौन दिलाएगा कि देश को वो मोदी-शाह से बेहतर शासन दे सकता है?
प्रधानमंत्री मोदी तो राज्यों के चुनाव में भी डबल इंजिन की सरकार के नाम पर वोट मांगते हैं और लोग दे भी देते हैं. बिहार ताजातरीन उदाहरण है और यूपी विधानसभा चुनावों में भी ऐसा ही होने वाला है, नतीजे अलग भले हो जायें.
शुरू से लेकर आखिर तक एक ही सवाल है क्या ममता बनर्जी वास्तव में 2024 तक विपक्षी खेमे में महज एक कार्यकर्ता बनी रहेंगी - और जवाब हां में है तो मान कर चलना चाहिये की बीजेपी को हराना, प्रशांत किशोर के शब्दों में, असंभव नहीं है.
मुश्किल तो यही है कि ममता बनर्जी फिलहाल जो बोल रही हैं वैसा कहना तो आसान है, लेकिन आखिरी वक्त तक निभा पाना बेहद मुश्किल है. ऐसे काम जेपी या अन्ना जैसे लोग ही कर सकते हैं और ममता न तो जेपी हैं न अन्ना - फिर भी अगर ममता बनर्जी अपनी बात पर कायम रहती हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए मुश्किल खड़ी हो भी सकती है.
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