साल भर के अंतराल पर पांच साल पहले भी तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव एक के बाद एक हुए थे - पहले दिल्ली, फिर बिहार और उसके बाद पश्चिम बंगाल. दिल्ली और बिहार में चुनाव हो चुके हैं और पहले जैसे ही नतीजे भी आये हैं - दिल्ली में अरविंद केजरीवाल तो बिहार में नीतीश कुमार दोनों ने ही अपनी कुर्सियां बरकरार रखी हैं - अब ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की बारी है.
पांच साल पहले भी केंद्र में बीजेपी की ही सरकार थी और प्रधानमंत्री भी नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ही. पांच साल पहले तीनों ही मुख्यमंत्री केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के विरोधी छोर पर रहे और तीन में से दो अब भी हैं - ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल. अरविंद केजरीवाल ने तो प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी नेता अमित शाह से लड़ते हुए सत्ता में वापसी की. लड़े तो नीतीश कुमार भी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के पीछे पीछे वो इस बार तेजस्वी यादव से लड़ रहे थे, लेकिन जीते वैसे ही जैसे 2015 में मोदी-शाह के खिलाफ चुनाव लड़ कर जीते थे.
अब सवाल ये है कि क्या ममता बनर्जी भी अरविंद केजरीवाल और नीतीश कुमार की तरह अपनी कुर्सी चुनाव नतीजे आने के बाद भी बरकरार रख पाएंगी?
पश्चिम बंगाल के हल्दिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी के 'जय श्रीराम' के नारे के विरोध को लेकर फुटबाल की भाषा में जवाब दिया - बोले, पश्चिम बंगाल के लोग जल्द ही ममता बनर्जी को 'राम कार्ड' (Ram Card) दिखाएंगे - अच्छी बात है, पश्चिम बंगाल के लोग किसे और कौन सा कार्ड दिखाते हैं ये तो बाद की बात है, लेकिन अभी सवाल ये है कि फिलहाल कौन और किसे ये 'राम कार्ड' दिखा रहा है?
ये 'राम कार्ड' क्या है?
पश्चिम बंगाल की राजनीति में लगता तो ऐसा ही है कि बीजेपी नेतृत्व ही 'जय श्रीराम' के नारे को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐन उसी वक्त ये भी लगता है कि ममता बनर्जी भी जय श्रीराम के नारे में कम दिलचस्पी नहीं ले रही हैं - और वो खुद भी चाहती हैं, ऐसा लगता है, कि ये राजनीतिक नारा चुनावों की तारीख आने तक यूं ही...
साल भर के अंतराल पर पांच साल पहले भी तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव एक के बाद एक हुए थे - पहले दिल्ली, फिर बिहार और उसके बाद पश्चिम बंगाल. दिल्ली और बिहार में चुनाव हो चुके हैं और पहले जैसे ही नतीजे भी आये हैं - दिल्ली में अरविंद केजरीवाल तो बिहार में नीतीश कुमार दोनों ने ही अपनी कुर्सियां बरकरार रखी हैं - अब ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की बारी है.
पांच साल पहले भी केंद्र में बीजेपी की ही सरकार थी और प्रधानमंत्री भी नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ही. पांच साल पहले तीनों ही मुख्यमंत्री केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के विरोधी छोर पर रहे और तीन में से दो अब भी हैं - ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल. अरविंद केजरीवाल ने तो प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी नेता अमित शाह से लड़ते हुए सत्ता में वापसी की. लड़े तो नीतीश कुमार भी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के पीछे पीछे वो इस बार तेजस्वी यादव से लड़ रहे थे, लेकिन जीते वैसे ही जैसे 2015 में मोदी-शाह के खिलाफ चुनाव लड़ कर जीते थे.
अब सवाल ये है कि क्या ममता बनर्जी भी अरविंद केजरीवाल और नीतीश कुमार की तरह अपनी कुर्सी चुनाव नतीजे आने के बाद भी बरकरार रख पाएंगी?
पश्चिम बंगाल के हल्दिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी के 'जय श्रीराम' के नारे के विरोध को लेकर फुटबाल की भाषा में जवाब दिया - बोले, पश्चिम बंगाल के लोग जल्द ही ममता बनर्जी को 'राम कार्ड' (Ram Card) दिखाएंगे - अच्छी बात है, पश्चिम बंगाल के लोग किसे और कौन सा कार्ड दिखाते हैं ये तो बाद की बात है, लेकिन अभी सवाल ये है कि फिलहाल कौन और किसे ये 'राम कार्ड' दिखा रहा है?
ये 'राम कार्ड' क्या है?
पश्चिम बंगाल की राजनीति में लगता तो ऐसा ही है कि बीजेपी नेतृत्व ही 'जय श्रीराम' के नारे को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐन उसी वक्त ये भी लगता है कि ममता बनर्जी भी जय श्रीराम के नारे में कम दिलचस्पी नहीं ले रही हैं - और वो खुद भी चाहती हैं, ऐसा लगता है, कि ये राजनीतिक नारा चुनावों की तारीख आने तक यूं ही विवाद खड़े करता रहे.
अब जो हाल नजर आ रहा है उसमें ये कहना मुश्किल है कि वास्तव ये रामधुन किसने छेड़ रखी है - बीजेपी नेतृत्व या तृममूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ठीक पहले बीजेपी अध्यक्ष पश्चिम बंगाल के दौरे पर थे और हर मोड़ पर वो ममता बनर्जी के जय श्रीराम के नारे से चिढ़े होने की याद दिलाते रहे.
लेकिन क्या जय श्रीराम के नारे के साथ सिर्फ बीजेपी नेता ही ममता बनर्जी को घेर रहे हैं?
क्या ऐसा नहीं है कि ममता बनर्जी खुद भी जय श्रीराम को राजनीतिक नारे के तौर पर हवा दे रही हैं - और बार बार विरोध जता कर जितना भी संभव हो तूल देने की कोशिश कर रही हैं?
ममता बनर्जी के हाव भाव में कदम कदम पर चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की छाप दिख रही है. चाहे वो इंटरव्यू दे रही हों. चाहे वो लोगों से बात कर रही हों. चाहे वो किसी रैली के लिए जा रही हों और रास्ते लोगों की नजर में खुद को रजिस्टर कराने का मौका देख रही हों, छोड़ती नहीं. वो भी बिलकुल काउंटर वाले अंदाज में. अगर बीजेपी नेता अमित शाह किसी के घर लंच करने जाते हैं तो ममता बनर्जी रास्ते में चलते चलते खाना बनाना शुरू कर देती हैं. ममता बनर्जी ये भी तो जताना चाहती हैं कि बीजेपी के लोग आएंगे खाएंगे, पीएंगे और बगैर हाल पूछे चले भी जाएंगे - लेकिन मैं तो हमेशा साथ रहूंगी और बना कर खिलाऊंगी भी.
विक्टोरिया हाल में ममता बनर्जी अपने नैसर्गिक अंदाज में होतीं तो या तो जय श्रीराम का नारा सुनते ही उठ कर चल देतीं या फिर मन की पूरी भड़ास निकाल कर चली जातीं. ममता बनर्जी ने ऐसा नहीं किया, वो जय श्रीराम की नारेबाजी को पॉलिटिकल स्लोगन बतायीं और पूरे कार्यक्रम में जमी रहीं. इंडिया टुडे के इंटरव्यू में बताया कि चाय भी पी.
मतलब, ममता बनर्जी बड़ी ही संजीदगी से जय श्रीराम के नारे का विरोध करती हैं. याद दिलाती हैं कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कार्यक्रम में ऐसा हो रहा है, लेकिन वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोलतीं और न ही ऐसी कोई शिकायत करती हैं - लेकिन इतना तो कर ही देती हैं कि जय श्रीराम की नारेबाजी को लेकर विवाद हो ही.
बाद में मालूम होता है कि पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभारी आगे आकर कहते हैं कि संघ नेताजी के कार्यक्रम में जय श्रीराम के नारे लगाने का सपोर्ट नहीं करता. समझने वाली बात ये है कि संघ नेताजी से जुड़े कार्यक्रम के जरिये बीजेपी के खिलाफ गलत मैसेज नहीं जाने देना चाहता.
और ये भी देखिये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जय श्रीराम स्लोगन का जिक्र नहीं करते, बल्कि राम के नाम पर ही नये तरीके से ममता बनर्जी को घेरने की कोशिश करते हैं. वो भारत माता की जय नारे का तो जिक्र करते हैं, लेकिन जय श्रीराम नहीं बोलते. ये सुन कर हो सकता है ममता बनर्जी खेमे में निराशा हुई हो क्योंकि वो तो जय श्रीराम के नारे पर प्रधानमंत्री के बयान पर रिएक्ट करने की रणनीति पर ही काम कर रहे होंगे.
विक्टोरिया हाल में ममता बनर्जी का गुस्सा चुपचाप बर्दाश्त कर लेने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी को अपने तरीके से जवाब दिया है और जवाब में एक जिस राम कार्ड का इस्तेमाल किया है वो भी कुछ और नहीं बल्कि थोड़े सोफियाने अंदाज में जय श्रीराम के नारे लगाने जैसा ही है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पश्चिम बंगाल के लोगों को समझा रहे हैं कि कैसे परिवर्तन के नाम उनके साथ मजाक किया जा रहा है - और खास बात ये है कि प्रधानमंत्री मोदी भी परिवर्तन नहीं बल्कि 'पोरिबोर्तन' पर जोर देते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी लोगों को पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों के शासन की ब्रीफ हिस्ट्री भी एक खास ताने बाने के साथ पेश करते हैं. प्रधानमंत्री मोदी बताते हैं कि कि कैसे वहां पहले कांग्रेस ने शासन किया और भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा. फिर वाम मोर्चा की सरकार लंबे वक्त तक रही. कहते हैं, 'लेफ्ट ने भ्रष्टाचार, अत्याचार बढ़ाने के साथ ही विकास पर ही ब्रेक लगा दिया... 2011 में पूरे देश की नजरें बंगाल पर थीं... वाम मोर्चे का हिंसा और भ्रष्टाचार का जर्जर किला ढहने की कगार पर था और तभी ममता दीदी ने बंगाल से परिवर्तन का वादा किया... बंगाल को आस थी ममता की - लेकिन उसे निर्ममता मिली.'
प्रधानमंत्री मोदी समझाते हैं कि ये जो बंगाल के हिस्से में आया वो परिवर्तन नहीं, वो तो लेफ्ट का ही पुर्नजीवन है - वो भी सूद समेत... लेफ्ट का पुनर्जीवन यानी भ्रष्टाचार का पुनर्जीवन... अपराध और अपराधियों का पुनर्जीवन... हिंसा का पुनर्जीवन... लोकतंत्र पर हमलों का पुनर्जीवन...'
फिर प्रधानमंत्री मोदी बिहार चुनाव की तरह ही समझाते हैं, हालांकि, मिसाल त्रिपुरा की देते हैं. ये बात अलग है कि त्रिपुरा में अलग ही बवाल चल रहा है, मुख्यमंत्री बिप्लब देब के खिलाफ भी और उनके महाभारत काल के इंटरनेट वाला ज्ञान भी काम नहीं आ रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी बताते हैं कि पोरिबोर्तन क्या होता है, ये पड़ोस में त्रिपुरा में अनुभव किया जा रहा है और इसके लिए डबल इंजन की सरकार पश्चिम बंगाल में भी बननी जरूरी है.
कहते हैं, करप्शन और टोलाबाजी तभी हटेगी, जब यहां 'आसोल पोरिबोर्तन' आएगा... जब यहां बीजेपी की सरकार बनेगी.
और तब जाकर समझाते हैं कि ये पोरिबोर्तन पश्चिम बंगाल में कैसे आएगा?
मोदी कहते हैं, 'बंगाल फुटबॉल को पसंद करता है... मैं उसी भाषा में बोलता हूं कि तृणमूल ने एक के बाद एक कई सारे फाउल किये हैं... ये फाउल है कुशासन का, विपक्षी दलों के नेताओं पर हमले का और भ्रष्टाचार का... बंगाल की जनता ये देख रही है - और जनता जल्द ही उन्हें राम कार्ड दिखाएगी.'
फुटबाल के खेल में रेफरी दो तरह के कार्ड दिखाता है - येलो कार्ड और रेड कार्ड. प्रधानमंत्री मोदी अपनी तरफ से ममता बनर्जी को येलो कार्ड दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, इस संकेत के साथ कि चुनावों में जनता ममता बनर्जी की पार्टी को रेड कार्ड दिखाने वाली है - और प्रधानमंत्री मोदी के हिसाब से राम कार्ड ही बीजेपी के लिए ग्रीन कार्ड है.
ममता भी वही चाहती हैं जो बीजेपी की ख्वाहिश है
पश्चिम बंगाल का ताजा माहौल तो बता यही रहा है कि बीजेपी चाहती है कि ममता बनर्जी के खिलाफ हिंदू वोट बैंक एकजुट रहे और ममता बनर्जी चाहती हैं कि बीजेपी के खिलाफ मुस्लिम वोट बैंक न बिखरे और एक साथ हमेशा की तरह तृणमूल कांग्रेस को वोट करे.
अभी तो प्रधानमंत्री मोदी सहित सारे बीजेपी नेता ममता बनर्जी पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप लगा रहे हैं. कभी यूपी की तरह बुआ-भतीजे की जोड़ी तो कभी बिहार के जंगलराज के युवराज की तरह राजकुमार कह कर फेमिली पॉलिटिक्स को निशाना बनाया जा रहा है, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि 2016 में ममता बनर्जी के कई साथी शारद घोटाले की जांच के नाम पर केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर रहे और ऐन चुनावों से पहले ही नारद स्टिंग ऑपरेशन ने ममता बनर्जी के सामने मुश्किलों का अंबार खड़ा कर दिया था. फिर भी ममता बनर्जी अपने बूते उन नेताओं को भी चुनाव जिताने में सफल रहीं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे.
अभी अभी आये सी-वोटर के सर्वे में भी ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री पद की पहली पसंद बनी हुई हैं - और कुछ दिन पहले ही इंडिया टुडे कार्वी इनसाइट्स के सर्वे में भी करीब करीब ऐसे ही नतीजे देखने को मिले थे - बीजेपी नेतृत्व को भी तो ये समझ में आ ही रहा होगा कि माजरा क्या है?
माहौल तो ऐसा बना है कि वे सारे नेता तृ्णमूल कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन कर चुके हैं जिनकी बदौलत ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रही हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है. अगर ममता बनर्जी पर लोग भरोसा करते हैं तो जो भी तृणमूल कांग्रेस का उम्मीदवार होगा अगर चाहेंगे तो वोट उसे देंगे ही.
आखिर लोक सभा चुनाव में भी तो ऐसा ही हुआ, लोगों ने ये तो नहीं देखा कि उनके इलाके से उम्मीदवार कौन है - बस मोदी के नाम पर दे दिया. महाराष्ट्र के सतारा में क्या हुआ - एनसीपी छोड़ कर बीजेपी में चले जाने वाले नेता को किनारे रख कर भींगते हुए बारिश में शरद पवार के चेहरे को सामने रख कर वोट दे दिया था. अगर सर्वे भी लोगों के मन की बात बता रहे हैं तो ये बीजेपी के लिए चिंता की बात होनी चाहिये.
बेशक पश्चिम बंगाल के 30 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक में AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी इंडियन सेक्युलर फ्रंट के बैनर तले मुस्लिम समुदाय को नया मंच देने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन उनके प्रति भी मुस्लिम समुदाय की राय बंटी हुई है. खुद उनके चाचा जो उनसे कहीं ज्यादा प्रभाव रखते हैं, उनकी हरकतों को बचकानी बता चुके हैं. ये सही है कि कांग्रेस भी अब्बास सिद्दीकी को उड़ने के लिए हवा दे रही है, लेकिन तब क्या होगा जब पश्चिम बंगाल के लोग मुकुल रॉय की तरह ही शुभेंदु अधिकारी और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी दोनों को किनारे कर ममता बनर्जी के साथ चले गये?
जरा गौर कीजिये, जैसे बीजेपी नेतृत्व जय श्रीराम के नारे के साथ ममता बनर्जी को घेरने की कोशिश कर रहा है - ममता बनर्जी भी मौके पर ही खड़े होकर विरोध शुरू कर देती हैं ताकि किसी भी सूरत में मुस्लिम वोट न बंटे... चाहे कुछ भी हो जाये... और उसे बचाने का यही तरीका भी है.
फिर कैसे समझा जाये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ममता बनर्जी में से कौन और किसे 'राम कार्ड' दिखा रहा है?
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