2014 के आम चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था - और लगातार अपनी मुहिम में जुटे रहे. कर्नाटक चुनाव आते आते मुहिम में ब्रेक लगने के बाद रफ्तार बेहद धीमी हो चली और 2018 के आखिर में तो तीन राज्यों में बैकफायर ही हो गया.
बीजेपी और ममता बनर्जी भले ही अभी एक दूसरे के सियासी खून के प्यासे लगते हों, लेकिन एक मुद्दा ऐसा भी है जिस पर दोनों सहमत नजर आते हैं - 'कांग्रेस मुक्त भारत'. बीजेपी के चूक जाने के बाद ममता बनर्जी ने उस मिशन को अपने तरीके से आगे बढ़ा दिया है.
कांग्रेस से अलग होने के 21 साल बाद ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी को 'कांग्रेस मुक्त' कर दिया है. सवाल है कि आखिर अरसे बाद ममता बनर्जी को कांग्रेस के साये से पूरी तरह दूर जाने की जरूरत क्यों महसूस हुई?
'कांग्रेस' के साये से बाहर हुई 'तृणमूल'
किसी बड़ी पार्टी से निकलने के बाद कोई नेता अपनी अलग पार्टी बनाता है तो अक्सर पुरानी पार्टी का मूल शब्द अपने साथ रख लेता है. ये यादों को संजो कर रखने की मंशा तो नहीं लगती, बल्कि पहचान को बनाये रखने की कवायद ही समझ में आती है. कम्युनिस्ट पार्टियों के तीन फलक इसी बात के मिसाल हैं - सीपीआई, सीपीआई-एम और सीपीआई-एमएल. जेडीएस और जेडीयू अलग अलग होने के बावजूद जनता दल की यादें अब तक ढोते आ रहे हैं. वैसे दो दशक तक ममता बनर्जी ने भी ऐसा ही किया है.
1998 में कांग्रेस से अलग होकर ममता बनर्जी ने अपने समर्थकों के साथ तृणमूल कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना ली थी - और आधिकारिक तौर पर ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के रूप में जानी जाती रही. ममता की पार्टी का संक्षिप्त रूप टीएमसी के नाम से जाना जाता रहा है.
ममता बनर्जी ने अब तृणमूल कांग्रेस से कांग्रेस को हटा कर सिर्फ तृणमूल कर दिया है - ये बदलाव प्रभावी तो पहले से ही हो गया था लेकिन कम ही लोगों का ध्यान गया. 12 मार्च को जब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की 42 लोक सभा सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की तो बैकग्राउंड में नया लोगो जगह बना चुका...
2014 के आम चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था - और लगातार अपनी मुहिम में जुटे रहे. कर्नाटक चुनाव आते आते मुहिम में ब्रेक लगने के बाद रफ्तार बेहद धीमी हो चली और 2018 के आखिर में तो तीन राज्यों में बैकफायर ही हो गया.
बीजेपी और ममता बनर्जी भले ही अभी एक दूसरे के सियासी खून के प्यासे लगते हों, लेकिन एक मुद्दा ऐसा भी है जिस पर दोनों सहमत नजर आते हैं - 'कांग्रेस मुक्त भारत'. बीजेपी के चूक जाने के बाद ममता बनर्जी ने उस मिशन को अपने तरीके से आगे बढ़ा दिया है.
कांग्रेस से अलग होने के 21 साल बाद ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी को 'कांग्रेस मुक्त' कर दिया है. सवाल है कि आखिर अरसे बाद ममता बनर्जी को कांग्रेस के साये से पूरी तरह दूर जाने की जरूरत क्यों महसूस हुई?
'कांग्रेस' के साये से बाहर हुई 'तृणमूल'
किसी बड़ी पार्टी से निकलने के बाद कोई नेता अपनी अलग पार्टी बनाता है तो अक्सर पुरानी पार्टी का मूल शब्द अपने साथ रख लेता है. ये यादों को संजो कर रखने की मंशा तो नहीं लगती, बल्कि पहचान को बनाये रखने की कवायद ही समझ में आती है. कम्युनिस्ट पार्टियों के तीन फलक इसी बात के मिसाल हैं - सीपीआई, सीपीआई-एम और सीपीआई-एमएल. जेडीएस और जेडीयू अलग अलग होने के बावजूद जनता दल की यादें अब तक ढोते आ रहे हैं. वैसे दो दशक तक ममता बनर्जी ने भी ऐसा ही किया है.
1998 में कांग्रेस से अलग होकर ममता बनर्जी ने अपने समर्थकों के साथ तृणमूल कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना ली थी - और आधिकारिक तौर पर ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के रूप में जानी जाती रही. ममता की पार्टी का संक्षिप्त रूप टीएमसी के नाम से जाना जाता रहा है.
ममता बनर्जी ने अब तृणमूल कांग्रेस से कांग्रेस को हटा कर सिर्फ तृणमूल कर दिया है - ये बदलाव प्रभावी तो पहले से ही हो गया था लेकिन कम ही लोगों का ध्यान गया. 12 मार्च को जब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की 42 लोक सभा सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की तो बैकग्राउंड में नया लोगो जगह बना चुका था.
नया लोगो पूरी तरह कांग्रेस मुक्त हो चुका है और रंग भी काफी बदला हुआ है. नये लोगो में सफेद रंग के दो फूलों के साथ हरे रंग का तृणमूल लिखा हुआ है - और बैकग्राउंड में नीला रंग है. पहले लोगो में ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस पूरा लिखा होता था - जिसे कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड रैली में भी देखा गया.
ममता की पार्टी के साथ ये बदलाव फिलहाल लोगो तक ही सीमित रहेगा और आधिकारिक तौर पर पार्टी पुराने नाम से ही जानी जाएगी. इसकी वजह चुनाव आयोग में तृणमूल कांग्रेस के नाम से पार्टी का रजिस्टर्ड होना है. सोशल मीडिया पर भी ममता बनर्जी की पार्टी ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के नाम से ही देखी जा रही है - सिर्फ प्रोफाइल इमेज नयी नजर आ रही है. ममता बनर्जी सहित तृणमूल के दूसरे नेता भी नये लोगो का इस्तेमाल करने लगे हैं. चुनाव प्रचार सामग्री में बैनर-पोस्टर सारे अब नये लोगों के साथ आएंगे.
सिर्फ 'कांग्रेस' नहीं 'भगवा' से भी परहेज
तृणमूल के नये लोगो में ममता बनर्जी ने कांग्रेस शब्द हटाने के साथ साथ केसरिया रंग का प्रभाव क्षेत्र भी कम कर दिया है. राजनीतिक वजहों से केसरिया रंग को भगवा कलेवर पहनाया जा चुका है और फिलहाल वो बीजेपी की पहचान के साथ जुड़ चुका है. ममता बनर्जी के फैसले में निश्चित तौर पर इसकी भूमिका रही होगी.
वैसे तृणमूल से कांग्रेस शब्द हटाने के साथ साथ भगवा रंग को कमतर कर देना ममता बनर्जी के मन की बात समझने के लिए काफी है. ममता बनर्जी कांग्रेस और बीजेपी से बराबर नफरत करने लगी हैं.
विपक्षी खेमे में ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पद की अगली दावेदार के तौर पर उभरी हैं. जो नेता ममता बनर्जी को ऐसी अहमियत नहीं दे रहे हैं उनमें राहुल गांधी के अलावा मायावती का भी नाम शामिल है. डीएमके नेता एमके स्टालिन जैसे भी कुछ नेता हैं जो खुल कर राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी का सपोर्ट करते हैं.
क्या पश्चिम बंगाल की कांग्रेस रैली में राहुल गांधी का ममता बनर्जी को झूठा बताने के पीछे भी यही वजह हो सकती है? 23 मार्च की मालदा रैली में राहुल गांधी ने ममता पर उसी भाषा में हमला बोला था जिस भाषा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह बोला करते हैं.
ऐसा लगता है लोगो में बदलाव के जरिये ममता बनर्जी कांग्रेस और बीजेपी के साथ साथ अपने समर्थकों को कोई खास संदेश देने की कोशिश कर रही हों. देख कर तो यही लगता है ममता बनर्जी बीजेपी को एक हद में कैद करने और कांग्रेस को पश्चिम बंगाल से पूरी तरह बेदखल करने के इरादे के साथ चुनावी अभियान चलाने जा रही हैं.
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