ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) उसी तिकड़ी का हिस्सा हैं जो वाजपेयी सरकार के दौरान खासी चर्चित हुआ करती थी - ममता, माया और जया. जया यानी जयललिता तो रहीं नहीं, मायावती की ट्विटर एक्टिविटी देख कर तो ऐसा ही लगता है जैसे सरेंडर ही कर दिया हो - ले देकर उनमें सबसे ज्यादा सक्रिय ममता बनर्जी को ही देखने को मिल रहा है.
मोदी-शाह (Modi-Shah) काल में जो तीन नेता 2014 के बाद से लोहा लेते आ रहे थे उनमें भी ममता बनर्जी ही मैदान में बची हुई लगती हैं - नीतीश कुमार तो मोदी विरोध के इतिहास का पन्ना बहुत पहले ही बन चुके थे, अरविंद केजरीवाल को अभी खामोश तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हड़बड़ी में अक्सर वो कच्ची बाजी खेल जाते हैं - ऐसे में एक बार फिर कहें तो भी ले देकर ममता बनर्जी अकेले ही उस विरासत को ढो रही हैं.
ममता बनर्जी की ही तरह दोनों नेताओं के साथ एक खास बात ये भी जुड़ी है कि सभी अपने दम पर मोदी-शाह की ताकतवर जोड़ी को चुनावी मैदान में बुरी तरह शिकस्त दे चुके हैं - अरविंद केजरीवाल को तो इस मामले में डबल कामयाबी मिल चुकी है. 2015 में नीतीश कुमार ने बिहार में, 2015 और फिर 2020 में भी अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में और अभी अभी 2021 में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के चुनावी मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के सारे राजनीतिक कौशल को रौंदते हुए फतह हासिल की है.
2014 से पहले से ही बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कांग्रेस मुक्त भारत अभियान शुरू कर दिया था - क्योंकि तब कांग्रेस के नेतृत्व में ही केंद्र में यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार थी. तब बीजेपी के सामने केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए मुख्य प्रतिद्वंद्वी सिर्फ कांग्रेस ही हुआ करती रही, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाने के बाद जब अमित शाह ने बीजेपी की कमान संभाली तो मन में पंचायत टू पार्लियामेंट में बीजेपी के शासन का संकल्प कर लिया.
पांच साल बाद 2019 के आम चुनाव में भी कांग्रेस को तो बीजेपी नेतृत्व ने संभल कर खड़ा भी नहीं होने...
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) उसी तिकड़ी का हिस्सा हैं जो वाजपेयी सरकार के दौरान खासी चर्चित हुआ करती थी - ममता, माया और जया. जया यानी जयललिता तो रहीं नहीं, मायावती की ट्विटर एक्टिविटी देख कर तो ऐसा ही लगता है जैसे सरेंडर ही कर दिया हो - ले देकर उनमें सबसे ज्यादा सक्रिय ममता बनर्जी को ही देखने को मिल रहा है.
मोदी-शाह (Modi-Shah) काल में जो तीन नेता 2014 के बाद से लोहा लेते आ रहे थे उनमें भी ममता बनर्जी ही मैदान में बची हुई लगती हैं - नीतीश कुमार तो मोदी विरोध के इतिहास का पन्ना बहुत पहले ही बन चुके थे, अरविंद केजरीवाल को अभी खामोश तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हड़बड़ी में अक्सर वो कच्ची बाजी खेल जाते हैं - ऐसे में एक बार फिर कहें तो भी ले देकर ममता बनर्जी अकेले ही उस विरासत को ढो रही हैं.
ममता बनर्जी की ही तरह दोनों नेताओं के साथ एक खास बात ये भी जुड़ी है कि सभी अपने दम पर मोदी-शाह की ताकतवर जोड़ी को चुनावी मैदान में बुरी तरह शिकस्त दे चुके हैं - अरविंद केजरीवाल को तो इस मामले में डबल कामयाबी मिल चुकी है. 2015 में नीतीश कुमार ने बिहार में, 2015 और फिर 2020 में भी अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में और अभी अभी 2021 में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के चुनावी मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के सारे राजनीतिक कौशल को रौंदते हुए फतह हासिल की है.
2014 से पहले से ही बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कांग्रेस मुक्त भारत अभियान शुरू कर दिया था - क्योंकि तब कांग्रेस के नेतृत्व में ही केंद्र में यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार थी. तब बीजेपी के सामने केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए मुख्य प्रतिद्वंद्वी सिर्फ कांग्रेस ही हुआ करती रही, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाने के बाद जब अमित शाह ने बीजेपी की कमान संभाली तो मन में पंचायत टू पार्लियामेंट में बीजेपी के शासन का संकल्प कर लिया.
पांच साल बाद 2019 के आम चुनाव में भी कांग्रेस को तो बीजेपी नेतृत्व ने संभल कर खड़ा भी नहीं होने दिया, लेकिन ममता बनर्जी को मुख्यधारा से हाशिये की राजनीति में भेजने में चूक गये. नीतीश कुमार को तो बिहारी की चुनावी हार के डेढ़ साल बाद ही कब्जे में ले लिया था और 2020 के चुनाव में चिराग पासवान जैसे उपायों की बदौलत पूरी तरह घेर भी लिया, लेकिन ममता बनर्जी का अब तक कुछ भी नहीं बिगाड़ सके हैं.
नीतीश कुमार की राजनीति जरूर अलग रही है, लेकिन ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति करीब करीब मिलती जुलती ही रही है - आंदोलनकारी राजनीति. फर्क ये जरूर है कि दिल्ली को पश्चिम बंगाल जैसा पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं हासिल है - और अब तो केंद्र सरकार ने संसद के जरिये कानून में संशोधर करके अरविंद केजरीवाल की दिल्ली पॉलिटिक्स को तो करीब करीब वैसे ही कर दिया है जैसे धारा 370 खत्म हो जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर के नेताओं का हाल हो रखा है. जम्मू कश्मीर में चुनाव कराये जाने के लिए अच्छे माहौल का इंतजार किया जा रहा है, लेकिन चुनाव जीत कर भी तो वहां के नेताओं का हाल केजरीवाल जैसा ही रहेगा.
विपक्ष को नेस्तनाबूत करने वाले बीजेपी के विध्वंसक कांग्रेस मुक्त भारत (Congress Mukt Bharat) अभियान का मकसद राहुल गांधी की यूपी के अमेठी से विदाई के बावजूद अधूरा लगता है - क्योंकि विपक्षी खेमे से ममता बनर्जी बीजेपी नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रही हैं.
सात साल का आमने-सामने का संघर्ष
तमिलनाडु के बारे में तो सोच भी नहीं सकते थे, लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल बीजेपी के एजेंडे में पहले से ही रहा. 2016 के पश्चिम बंगाल चुनाव में मोदी-शाह को हाल की तरह एक्टिव इसलिए भी नहीं देखने को मिला था क्योंकि 2015 में नीतीश कुमार ने लालू यादव से हाथ मिलाकर और प्रशांत किशोर की मदद से आत्मविश्वास ही डिगा दिया था. तब दिल्ली के बाद बिहार में बीजेपी की लगातार दूसरी हार थी, जबकि उसके पहले के सारे विधानसभा चुनावों में जीत और जम्मू-कश्मीर में भी बीजेपी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था.
2016 में बीजेपी बस एक ही ख्वाहिश बची थी. जैसे भी हो असम में सत्ता हासिल हो जाये और उसके लिए मोदी-शाह ने पूरी सतर्कता भी बरती. ये बिहार की शिकस्त का ही सबक रहा होगा कि 2016 के असम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैलियां हाजिरी लगाने भर ही रखी गयी थीं - और ये असम की ही जीत रही बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में हौसलाअफजाई की वजह बनी. हालांकि, पांच साल बाद एक बार फिर यूपी बड़े ही नाजुक मोड़ से गुजर रहा है. तभी तो दत्तात्रेय होसबले के दौरे के बाद अब संघ प्रमुख मोहन भागवत पर्यावरण दिवस के मौके पर दिल्ली में मीटिंग लेने वाले हैं.
नीतीश कुमार के फिर से एनडीए में जा मिलने पर लगा कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी से भी ज्यादा गुस्सा ममता बनर्जी को आया था, तभी तो नोटबंदी के विरोध में पटना तक रैली करने पहुंच गयीं और लालू यादव ने भी अपनी पूरी पलटन भेज दी थी - और ये ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल के ताजा नतीजों को लेकर आत्मविश्वास ही रहा होगा कि तेजस्वी यादव के कोलकाता जाकर आरजेडी के लिए सिर्फ 6 सीटें मांगने को भी ममता बनर्जी ने नजरअंदाज कर दिया.
कहने को तो ममता बनर्जी केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व को चैलेंज कर भी संघर्ष कर रही हैं, लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि मोदी-शाह भी वैसा ही संघर्ष कर रहे हैं.
ये तो आमने सामने का संघर्ष है. विधानसभा चुनाव से पहले भले ही एकतरफा रहा हो. भले ही ऐसा लगता हो जैसे केंद्र सरकार पश्चिम बंगाल के खिलाफ अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल कर रही हो. लॉकडाउन लागू करने में हीलाहवाली का इल्जाम लगा कर जांच के लिए केंद्रीय टीम भेज दे रही हो, लेकिन स्पेशल ट्रेन को लेकर ममता बनर्जी ने भी कितने रोड़े अटकाये थे. हालिया चुनाव नतीजे आने के बाद हुई हिंसा को लेकर जिस तरीके से केंद्र ने राजनीति की और राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने भी अपनी तरफ से उठा नहीं रखा, केंद्र की आयुष्मान भारत जैसी स्कीम हो या किसान सम्मान निधि का मामला हो, ममता बनर्जी का स्टैंड तो केंद्र के लिए संघर्ष कराने वाला ही रहा है. लगता तो यही है कि अगर पश्चिम बंगाल की सीआईडी को मौका मिले तो वो भी बीजेपी नेताओं को वैसे ही जेल भेजने की कोशिश करेगी जैसे सीबीआई ने अभी अभी तृणमूल कांग्रेस के चार नेताओं के साथ किया है. जरा याद कीजिये, कोलकाता पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने गये सीबीआई के अफसरों के साथ पश्चिम बंगाल के पुलिसवालों ने कैसा सुलूक किया था.
सत्ता पर काबिज होने के इस संघर्ष और वर्चस्व की राजनीतिक लड़ाई में जनता तो पिसी ही है, सीनियर अफसरों का भी करीब करीब वैसा ही हाल हो रखा है. जैसे आईपीएस अफसर राजीव कुमार केंद्र की नजर में चढ़े थे, वैस ही वे आईपीएस अफसर भी जिन पर बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी जिस पर हमले हुए थे - और वैसे ही अब अलपन बंदोपाध्याय का हाल हो रखा है.
केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व को तो अब तक समझ में आ ही चुका होगा कि ममता बनर्जी कैसे अपने राजनीतिक हितों के लिए अफसरों का इस्तेमाल करने में कोई संकोच नहीं करतीं. अफसरों के साथ आगे चल कर क्या होगा, इसकी ममता बनर्जी को कोई फिक्र नहीं लगती - राजीव कुमार का भी ममता बनर्जी ने वैसे ही इस्तेमाल किया था, जैसे अभी अलपन बंदोपाध्याय को कर रही हैं.
एक अफसर क्या कर सकता है भला. -अगर वो केंद्र सरकार के आदेश को मान ले तो ममता बनर्जी की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. पश्चिम बंगाल काडर के अफसर के लिए ये भी अच्छा नहीं होगा. आखिरी रास्ता यही है कि वो सेवा से ही इस्तीफा दे दे - तब तो वो कहीं का भी नहीं होगा, न बीजेपी का, न ममता का होकर रहेगा और न ही नौकरी ही रहेगी.
देखा जाये तो ममता बनर्जी का ताजा तेवर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए नया और बड़ा चैलेंज बनता जा रहा है - और किसी को शक शुबहा भी नहीं होना चाहिये कि ममता बनर्जी की नजर सीधे अब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है.
मोदी-शाह के लिए बड़ी चुनौती बन चुकी हैं ममता बनर्जी
कांग्रेस को अगर हाल के विधानसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल की तरह ही ये लगता कि बीजेपी सत्ता पर काबिज हो जाएगी तो राहुल गांधी के सिक्स-पैक ऐब्स भी शायद ही किसी को देखने को मिले होते. एक तो कांग्रेस को यकीन था कि बीजेपी की केरल में दाल नहीं गलने वाली है - और दूसरे वायनाड से सांसद होने के नाते राहुल गांधी की कुछ मजबूरी और कुछ उम्मीदें रहीं कि वो केरल में जमे रहे, वरना, पश्चिम बंगाल की ही तरह परहेज करते.
कांग्रेस को कमजोर करके मोदी-शाह भले ही मन ही मन वाहवाली लूटें, लेकिन ममता बनर्जी वो चिंगारी हैं जो कांग्रेस की तरह से थोड़ा सा भी ईंधन और विपक्षी खेमे की हवा मिल जाये तो बराबरी की टक्कर दे सकती हैं.
वैसे भी ममता बनर्जी 2021 में नरेंद्र मोदी के 2012 की तरह मुख्यमंत्री की तीसरी पारी शुरू कर चुकी हैं - जिस तरीके से शपथग्रहण के वक्त भतीजे अभिषेक बनर्जी को लेकर राजभवन पहुंची थीं, ममता बनर्जी एक तरह से पॉलिटिकल मैसेज देने की ही कोशिश कर रही थीं. जिस अभिषेक बनर्जी को पूरे चुनाव के दौरान बीजेपी नेतृत्व निशाने पर लिये रहा वो जीत के जश्न में मजबूत मौजूदगी दर्ज करा रहा है - और हो सकता है तृणमूल कांग्रेस में बचे नेताओं को भी ममता बनर्जी ये जताने की कोशिश कर रही हों कि अभिषेक बनर्जी ही तृणमूल कांग्रेस का भविष्य हैं. नीतीश कुमार ने ये बात प्रशांत किशोर के लिए जेडीयू उपाध्यक्ष के रूप में ज्वाइन कराते वक्त कही थी.
मोदी-शाह ने बिहार की हार का बदला नीतीश कुमार को कमजोर करके पहले ही ले लिया था. संसद में कानून पास कराने और दिल्ली लेफ्टिनेंट गवर्नर को ही सरकार बना देने के बाद अरविंद केजरीवाल से दिल्ली की डबल हार का भी बदला मोदी-शाह ने ले ही लिया है - अब बच जाती हैं ममता बनर्जी.
मोदी-शाह से आगे बढ़ कर सीधे सीधे दो-दो हाथ करने से पहले ममता बनर्जी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा तो राहुल गांधी ही हैं. ममता बनर्जी को भी मोदी-शाह की ही तरह कांग्रेस मुक्त भारत ही ज्यादा सूट करता है - और ऐसा तभी होता है जब मकसद एक जैसा हो.
ममता बनर्जी और केंद्र की मोदी सरकार के बीच चुनाव बीत जाने के बाद भी शह मात का खेल जारी है. केंद्र सरकार ने अलपन बंदोपाध्याय को दिल्ली तलब कर ममता बनर्जी सरकार से तत्काल प्रभाव से रिलीव करने को कहा, लेकिन ममता बनर्जी ने अपनी तरह से बेस्ट चाल चलते हुए पूर्व मुख्य सचिव का रिटायरमेंट मंजूर कर तीन साल के लिए अपना सलाहकार बना लिया. केंद्र को लगा कि सीधे सीधे तो संभव नहीं, लिहाजा डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत उनकी प्रधानमंत्री की मीटिंग से गैरहाजिरी को लेकर कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है.
ममता अपने हिसाब से चल रही हैं और मोदी सरकार अपने हिसाब से - बीच बलि का बकरा अगर कोई बना है तो वो हैं अलपन बनर्जी. कोई रास्ता बचने पर अलपन बनर्जी अदालत का रुख कर सकते हैं - लेकिन उसके बाद का अच्छा-बुरा तो खुद ही झेलना होगा. ममता बनर्जी का क्या, उनका तो काम हो गया. अलपन बनर्जी की जगह कोई दूसरा अफसर मिल जाएगा.
मोदी-शाह के लिए फिलहाल ऐसा तो नहीं लगता कि पश्चिम बंगाल की लड़ाई ही सब कुछ है. बीजेपी नेतृत्व के सामने अभी तो सबसे बड़ी जंग पहले पांच और फिर दो राज्यों में अगले साल होने जा रहे विधानसभा के चुनाव हैं - और उनमें भी जंग का सबसे बड़ा मैदान उत्तर प्रदेश है.
ऐसे में मोदी-शाह बीजेपी कार्यकर्ताओं में जोश बनाये रखने के मकसद से पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ साथ कार्यकर्ताओं को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि एक लड़ाई भले खत्म हो गयी हो, लेकिन बड़ी जंग बाकी है.
मोदी-शाह के लिए फिलहाल राहत की बात ये भी है कि जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं वहां ममता बनर्जी के चाह कर भी डिस्टर्ब करने का कम ही स्कोप है - फिर भी, ममता बनर्जी बीजेपी के लिए ऐसी चुनौती तो बन ही चुकी हैं जो कांग्रेस मुक्त भारत अभियान की जो मंजिल उसे और भी दूर करती जा रही हैं.
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