मनोज सिन्हा (Manoj Sinha) को जम्मू-कश्मीर का उप राज्यपाल बनाये जाने में दो खास चीजें नजर आती हैं - एक, मनोज सिन्हा को लंबे इंतजार के बाद कोई जिम्मेदारी सौंपा जाना और दूसरा जम्मू-कश्मीर को फिर से राजनीतिक नेतृत्व के हवाले किया जाना.
गिरीश चंद्र मुर्मू (GC Murmu) को केंद्र शासित क्षेत्र बनने के बाद जम्मू-कश्मीर के पहले उप राज्यपाल जैसी जिम्मेदारी सौंपने की सबसे बड़ी वजह ये रही कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद अफसरों में से एक हैं - और अब जीसी मुर्मू की जगह जिसका चयन किया गया है वो भी उतने ही भरोसे के काबिल समझा जाना चाहिये. देखा जाये तो प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मनोज सिन्हा पर ऐसे इलाके की प्रशासनिक जिम्मेदारी सौंपी है, जिस पर पूरी दुनिया की निगाह होती है.
हाल फिलहाल जम्मू कश्मीर में भले ही कोई चुनावी माहौल न हो, लेकिन मनोज सिन्हा सिन्हा को LG बनाये जाने के बावजूद उनसे मोदी-शाह (Narendra Modi and Amit Shah) को अपेक्षा करीब करीब उतनी ही है जितनी किसी सूबे के मुख्यमंत्री से होती है.
जम्मू-कश्मीर की जरूरतें
मनोज सिन्हा को करीब सवा साल के इंतजार के बाद कोई जिम्मेदारी थमायी गयी है - जम्मू-कश्मीर के LG यानी उप राज्यपाल के रूप में. मोदी कैबिनेट 1.0 में मनोज सिन्हा के रेलवे के साथ साथ दूर संचार विभाग में भी जिम्मेदारी संभालते रहे, लेकिन 2019 के आम चुनाव में गाजीपुर लोक सभा सीट पर बीएसपी के अफजाल अंसारी से मिली शिकस्त ने तो जैसे सिन्हा की राजनीति पर ही ब्रेक लगा दिया था.
एक नौकरशाह जीसी मुर्मू को हटाकर मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल की जिम्मेदारी सौंपे जाने का मतलब तो यही लगता है कि सूबे को जहां सत्यपाल मलिक छोड़ गये थे, मनोज सिन्हा को उसे आगे बढ़ाने का टास्क मिला है - क्योंकि जीसी मुर्मू के कुर्सी पर रहते पूरा सिस्टम स्टैंडबाय-मोड में ही रहा क्योंकि वो सिस्टम ऑपरेटर से ज्यादा भूमिका निभा नहीं पा रहे थे.
गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 15 जुलाई,...
मनोज सिन्हा (Manoj Sinha) को जम्मू-कश्मीर का उप राज्यपाल बनाये जाने में दो खास चीजें नजर आती हैं - एक, मनोज सिन्हा को लंबे इंतजार के बाद कोई जिम्मेदारी सौंपा जाना और दूसरा जम्मू-कश्मीर को फिर से राजनीतिक नेतृत्व के हवाले किया जाना.
गिरीश चंद्र मुर्मू (GC Murmu) को केंद्र शासित क्षेत्र बनने के बाद जम्मू-कश्मीर के पहले उप राज्यपाल जैसी जिम्मेदारी सौंपने की सबसे बड़ी वजह ये रही कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद अफसरों में से एक हैं - और अब जीसी मुर्मू की जगह जिसका चयन किया गया है वो भी उतने ही भरोसे के काबिल समझा जाना चाहिये. देखा जाये तो प्रधानमंत्री मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मनोज सिन्हा पर ऐसे इलाके की प्रशासनिक जिम्मेदारी सौंपी है, जिस पर पूरी दुनिया की निगाह होती है.
हाल फिलहाल जम्मू कश्मीर में भले ही कोई चुनावी माहौल न हो, लेकिन मनोज सिन्हा सिन्हा को LG बनाये जाने के बावजूद उनसे मोदी-शाह (Narendra Modi and Amit Shah) को अपेक्षा करीब करीब उतनी ही है जितनी किसी सूबे के मुख्यमंत्री से होती है.
जम्मू-कश्मीर की जरूरतें
मनोज सिन्हा को करीब सवा साल के इंतजार के बाद कोई जिम्मेदारी थमायी गयी है - जम्मू-कश्मीर के LG यानी उप राज्यपाल के रूप में. मोदी कैबिनेट 1.0 में मनोज सिन्हा के रेलवे के साथ साथ दूर संचार विभाग में भी जिम्मेदारी संभालते रहे, लेकिन 2019 के आम चुनाव में गाजीपुर लोक सभा सीट पर बीएसपी के अफजाल अंसारी से मिली शिकस्त ने तो जैसे सिन्हा की राजनीति पर ही ब्रेक लगा दिया था.
एक नौकरशाह जीसी मुर्मू को हटाकर मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल की जिम्मेदारी सौंपे जाने का मतलब तो यही लगता है कि सूबे को जहां सत्यपाल मलिक छोड़ गये थे, मनोज सिन्हा को उसे आगे बढ़ाने का टास्क मिला है - क्योंकि जीसी मुर्मू के कुर्सी पर रहते पूरा सिस्टम स्टैंडबाय-मोड में ही रहा क्योंकि वो सिस्टम ऑपरेटर से ज्यादा भूमिका निभा नहीं पा रहे थे.
गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 15 जुलाई, 2020 तक जम्मू-कश्मीर में हिंसा की कुल 120 घटनाएं हुई हैं, जबकि 2019 में इसी पीरियड में ऐसी 188 घटनाएं दर्ज की गयी थीं. इस दौरान 136 आतंकवादी मारे गये जबकि पिछले साल 126 आंतकी मुठभेड़ में ढेर हुए थे.
आंकड़े हिंसा की घटनाओं में कमी के सबूत हैं, लेकिन चिंता की बात ये है कि इस साल मारे गये आतंवादियों में से सिर्फ 15 विदेशी थे, हालांकि, 9 की शिनाख्त नहीं हो पायी. मतलब तो ये हुआ कि स्थानीय युवक आतंकवाद का रास्ता अब भी तेजी से अख्तियार किये हुए हैं. सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों की शेल्फ लाइफ तो कम कर दी है, लेकिन स्थानीय युवकों के रूझान में कमी नहीं आ रही है.
बतौर प्रशासक तो जीसी मुर्मू का कार्यकाल अच्छा रहा, लेकिन मोदी-शाह की मंशा के मुताबिक कहीं न कहीं वो जम्मू-कश्मीर के लोगों को सियासी संदेश देने में चूक रहे थे. ये भी माना गया कि स्थानीय नौकरशाही भी मुर्मू के कामकाज के तौर तरीके के साथ साथ नहीं चल पा रही थी और सहमति का अभाव महसूस किया गया. साथ ही, जीसी मुर्मू की बयानबाजी से विवाद भी पैदा हुए जो उनकी मेहनत पर पानी फेर दे रहे थे.
जीसी मुर्मू की जगह मनोज सिन्हा को लाये जाने का असली मकसद लोगों के साथ संवाद कायम करना है जो इस वक्त की बड़ी महत्वपूर्ण जरूरत है. विवाद तो सत्यपाल मलिक को लेकर भी हुए थे लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर जम्मू-कश्मीर की जमीन से जो राजनीतिक मैसेज निकलना चाहिये, उसमें नौकरशाही पृष्ठभूमि से आने वाले मुर्मू कहीं न कहीं चूक रहे थे. मनोज सिन्हा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही साबित होने वाली है.
मनोज सिन्हा को लोगों से संवाद स्थापित करने के साथ ही साथ, सरहद पार से चलाये जा रहे प्रोपेगैंडा को भी काउंटर करना है - और चाहे वो पाकिस्तान की तरफ से हो या चीन की तरफ से उसका जम्मू-कश्मीर की धरती से ही काउंटर किया जाना जरूरी है. ऐसे में मनोज सिन्हा को बीच के ट्रांजिशन पीरियड से आगे बढ़ते हुए जम्मू-कश्मीर को राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करना है.
क्या ये चुनाव की भी आहट है
5 अगस्त 2020 जब जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाने को साल भर हुए लेकिन वो जीसी मुर्मू के कार्यकाल का आखिरी दिन साबित हुआ. हाल ही में एक इंटरव्यू में जीसी मुर्मू ने जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराये जाने की संभावना जतायी थी. एक बार ये भी कहा था कि परिसीमन के बाद चुनाव कराये जा सकते हैं. जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल का ये बयान चुनाव आयोग को बेहद नागवार गुजरा और आयोग की तरफ से साफ साफ कह दिया गया कि चुनाव कब होंगे ये सिर्फ चुनाव आयोग ही तय कर सकता है.
बेशक, जम्मू कश्मीर क्या कहीं भी चुनाव आयोग ही तय करेगा कि कब चुनाव हो, लेकिन ये देर सबेर होना तो निश्चित ही है - और मनोज सिन्हा के सामने भी चुनाव लायक माहौल तैयार करना प्राथमिकताओं की सूची में ऊपर ही होगा, ऐसा मान कर तो चलना ही चाहिये. हो सकता है जीसी मुर्मू भी अपने हिसाब से लोगों में चुनाव को लेकर कोई मैसेज देने की कोशिश कर रहे हों लेकिन राजनीतिक तौर पर उसका पूरी तरह सही न होना उनके लिए उलटा पड़ा. फिर भी मनोज सिन्हा की नियुक्ति तो चुनावी आहट की तरफ ही इशारा कर रही है.
रिहाई के बाद से खुद को लॉकडाउन के अनुभवी के तौर पर पेश कर रहे जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो एक तरीके से चुनावों का स्थायी तौर पर बहिष्कार कर ही चुके हैं. उमर अब्दुल्ला का कहना है कि जब तक जम्मू-कश्मीर का पुराना स्वरूप बहाल नहीं किया जाता, वो विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. हो सकता है उनको लगता हो कि सत्ता बदलने पर कोई बदलाव की गुंजाइश बने. ये बात अलग है कि ऐसी कोई संभावना मौजूदा राजनीतिक माहौल में तो दूर दूर तक नजर नहीं आ रही है.
मनोज सिन्हा बीजेपी में प्रधानमंत्री मोदी के विश्वासपात्रों में गिने जाते हैं. सिन्हा के पूर्ववर्ती मुर्मू भी मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते प्रिंसिपल सेक्रेट्री रहे और उसी दौरान भरोसा कायम हु्आ था. अपडेट ये है कि मुर्मू को देश का नया CAG बनाया गया है. 2017 में यूपी विधानसभा चुनावों के बाद योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जरूर बैठे, लेकिन उससे पहले राजनीतिक गतिविधियों का लंबा दौर भी चला. समझा गया कि राजनाथ सिंह के इंकार के बाद मनोज सिन्हा यूपी के मुख्यमंत्री पद के लिए पहली पसंद बन कर उभरे थे. जब वो बनारस पहुंचे और काशी विश्वनाथ मंदिर दर्शन करने गये तो मनोज सिन्हा के करीबियों में बधाइयों का दौर शुरू हो चुका था - लेकिन तभी मालूम हुआ कि वो बनते बनते रह गये.
मनोज सिन्हा ने ऐसे वक्त जम्मू-कश्मीर का कामकाज संभाला है जब 24 घंटे के भीतर बीजेपी के चार नेताओं ने इस्तीफा सौंप दिया है - और उसकी वजह कुलगाम में सरपंचों पर हुए जानलेवा हमले माने जा रहे हैं. खास बात ये है कि अपने इस्तीफे में बीजेपी नेताओं ने निजी कारणों का हवाल दिया है और कहा है कि आज के बाद उनका बीजेपी से कोई नाता नहीं है. ये भी कहा है कि अगर उनके कारण किसी की भावना को ठेस पहुंची हो तो वे माफी चाहते हैं.
जम्मू-कश्मीर के LG के रूप में मनोज सिन्हा के पास सारे प्रशासनिक अधिकार होंगे. तकनीकी तौर पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधि न होने के बावजूद मनोज सिन्हा से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को अपेक्षा करीब करीब उतनी ही रहेगी जितनी किसी सूबे के मुख्यमंत्री से होती है - और मनोज सिन्हा को इसी इम्तिहान में पास भी होना है.
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