'वाइब्रेंट गुजरात समिट' तो आपको याद ही होगा, हो भी क्यों न, नरेंद्र मोदी से जो जुड़ा है. आज से 16 साल पहले मीडिया ने नरेंद्र मोदी की छवि को भस्मासुर जैसा प्रस्तुत करना शुरू ही किया था, कि राजनीति के माहिर खिलाड़ी नरेंद्र मोदी ने उसका तोड़ खोज लिया और अपने मैनेजमेंट के बुते पूरे खेल को ही पलट के रख दिया था. जो मीडिया कल तक उनको हत्यारा, कातिल और दंगाई की उपाधि दे रही थी वही मीडिया इस इवेंट के सफलतापूर्वक आयोजन के बाद उनमें नयी संभावनाओं को तलाशने लगी. उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में दिखाया जाने लगा और नरेंद्र मोदी एक बाज़ीगर की तरह पूरे खेल को बहुत ही विनम्रता के साथ जीत ले गए. उद्योग जगत ने इनमें विश्व नेता बनने की संभावनाओं को उसी दौर में तलाश लिया था. टाटा नैनो के प्लांट को पचास पैसे का एक सन्देश भेजकर गुजरात में स्वागत करने का काम आखिर नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई मार्केटिंग गुरु ही कर सकता था.
मैं ये कतई नहीं कह रहा हूं कि ये गलत है या जनता के पैसे की बर्बादी है. कुछ करोड़ खर्च करके अगर हज़ारों करोड़ का निवेश आ रहा है तो क्या दिक्कत है...
'वाइब्रेंट गुजरात समिट' तो आपको याद ही होगा, हो भी क्यों न, नरेंद्र मोदी से जो जुड़ा है. आज से 16 साल पहले मीडिया ने नरेंद्र मोदी की छवि को भस्मासुर जैसा प्रस्तुत करना शुरू ही किया था, कि राजनीति के माहिर खिलाड़ी नरेंद्र मोदी ने उसका तोड़ खोज लिया और अपने मैनेजमेंट के बुते पूरे खेल को ही पलट के रख दिया था. जो मीडिया कल तक उनको हत्यारा, कातिल और दंगाई की उपाधि दे रही थी वही मीडिया इस इवेंट के सफलतापूर्वक आयोजन के बाद उनमें नयी संभावनाओं को तलाशने लगी. उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में दिखाया जाने लगा और नरेंद्र मोदी एक बाज़ीगर की तरह पूरे खेल को बहुत ही विनम्रता के साथ जीत ले गए. उद्योग जगत ने इनमें विश्व नेता बनने की संभावनाओं को उसी दौर में तलाश लिया था. टाटा नैनो के प्लांट को पचास पैसे का एक सन्देश भेजकर गुजरात में स्वागत करने का काम आखिर नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई मार्केटिंग गुरु ही कर सकता था.
मैं ये कतई नहीं कह रहा हूं कि ये गलत है या जनता के पैसे की बर्बादी है. कुछ करोड़ खर्च करके अगर हज़ारों करोड़ का निवेश आ रहा है तो क्या दिक्कत है मंच सजाने में. लेकिन निवेश के आंकड़ों पे हमेशा से सवाल उठते रहे हैं जो कि लाज़िमी हैं. क्योंकि उस अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं पैदा हो पाते हैं.
योगी आदित्यनाथ का लखनऊ समिट
देश के पहले भगवाधारी मुख्यमंत्री ने उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में फरवरी के अंतिम सप्ताहांत में पूरे देश के प्रमुख बिज़नेस के लोगों को एक मंच पर खड़ा कर दिया. बेतहाशा मीडिया कवरेज भी मिला और 4 लाख करोड़ का निवेश भी. अपने आप को कट्टर हिंदुत्ववादी छवि से बाहर निकलने का सुअवसर भी प्रदान किया. आखिर जवान हैं अभी, जोशीले भी हैं, अच्छे वक्ता भी हैं, हिंदुत्व का साथ भी है और फिर नरेंद्र मोदी को भी कोई उत्तराधिकारी तो चाहिए ही होगा जो उनके हिंदुत्व और विकास के थ्योरी को आगे बढ़ाये और बहुत ही पुरजोर तरीके से बढ़ाये. योगी जी के पास हिंदुत्व तो कूट-कूट के भरा हुआ है, बस जिसकी कमी थी वो भी पूरी हो गयी. तो है न उनके पास भी सत्ता के शिखर पर पहुंचने का सुनहरा मौका तो एक बार प्रेम से बोलिये मार्केटिंग ही आज के राजनीति का अंतिम सत्य है.
उड़ीसा के शांत और सज्जन स्वभाव के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' के फ्रंट पेज पर एक विज्ञापन छपता है कि देश के सबसे आदर्श मुख्यमंत्री हमारे राज्य उड़ीसा से हैं. कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं का तो समझ में आता है लेकिन इन्हें क्यों आदर्शवादी होने की सनक सवार हो गई, और अगर आप हैं भी तो इसे दिल्लीवासियों को बताने की क्या जरुरत है? लगता है वैश्वीकरण का असर हमारे नेताओं पर कुछ ज्यादा ही पड़ रहा है. भारतीय लोकप्रियता से मन ऊब गया है, अब ग्लोबल पहचान की ख़्वाहिश बढ़ रही है.
नीतीश कुमार का इवेंट मैनेजमेंट
'सुशासन बाबू' के नाम से विख्यात बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 'इवेंट मैनेजमेंट' को अपने सबसे बड़े जुगाड़ के रूप में विकसित कर लिया है. ऐसे भी बिहारी लोग जुगाड़ तकनीक के सबसे माहिर खिलाड़ी होते हैं. मैं ऐसा इसलिए बोल रहा हूं क्योंकि मैं भी बिहारी हूं और ज्यादातर काम जुगाड़ के भरोसे ही करता हूं. अब सुशासन का ध्वज लहराने के बावजूद नीतीश बाबू कोई खास निवेश तो ला नहीं पाए, बिहार में तो उन्होंने अपने तथाकथित सबसे बड़े फैसलों की ही मार्केटिंग कर ली.
पूरे बिहार को कतार में खड़ा किया गया और शराबबंदी का जश्न मनाया गया. मीडिया ने भी सामाजिक सरोकार मिशन के तहत पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ कवर किया और ऐसे में नीतीश कुमार का पैगाम पूरे विश्व में फैला दिया गया.
उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा दहेज़ प्रेमी लोगों की संख्या बिहार में है, दहेज़ के कारण हत्या के मामले में भी दूसरे स्थान पर होना लाज़िमी है. दहेज़ लोभियों के खिलाफ एक सबसे बड़ी मानव श्रृंख्ला बनाई गयी जिसे 'गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड' में भी शामिल किया गया. अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली, इस प्रकार से सामाजिक क्रांति भी आ गयी और थोड़ी बहुत राजनीति भी चमक गयी. 'एक पंथ दो काज'.
ये बात सही है कि आज वैश्वीकरण के इस दौर में लोगों के अंदर वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता पाने का खुमार बहुत तेजी के साथ पनप रहा है. बीच-बीच में 'प्रिया प्रकाश वरियर' जैसे उदाहरण के अवतरित होने से ये लालसा उफ़ान पे चली जाती है. हमारे नेताओं के अंदर भी ये इच्छा होना लाज़िमी है, लेकिन एक बात और है आज के दौर में अपनी सत्ता को संरक्षित करने का इससे बेहतर विकल्प उपलब्ध नहीं है, तो एक बार प्रेम से बोलिए मार्केटिंग ही आज की राजनीति का अंतिम सत्य है.
कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न, इंडिया टुडे)
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