आगरा की रैली से पहले मायावती (Mayawati) की राजनीति पर सभी निगाहें टिकी हुई थीं - और अपने सारे राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर भी बीएसपी नेता बनी हुई थीं, लेकिन अब बहस का टॉपिक थोड़ा बदल गया है.
अब तक बीजेपी (BJP) नेता अमित शाह से लेकर कांग्रेस (Congress) महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा तक मायावती से पूछ रहा था कि आखिर वो घर से निकल क्यों नहीं रही हैं? और अखिलेश यादव की ही तरह मायावती पर भी वर्क फ्रॉम होम पॉलिटिक्स का इल्जाम लगता रहा.
आगरा से पहले मायावती अरसा बाद लखनऊ में किसी सार्वजनिक मंच पर नजर आयी थीं, जब बीएसपी के ब्राह्मण सम्मेलन का समापन हो रहा था. अयोध्या में ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत से लेकर पूरे यूपी में जगह जगह जो भी कार्यक्रम हुए बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ही हैंडल करते रहे. कहीं कहीं वो बीएसपी कार्यकर्ताओं के साथ अपने बेटे सहित परिवार के लोगों को भी बुला लिया करते थे.
सितंबर, 2021 में ब्राह्मण वोटर पर फोकस प्रबुद्ध सम्मेलन के बाद, अब जाकर चुनावी रैली में पहुंचीं मायावती ने आगरा को दलित राजनीति की राजधानी बताया है.
असल में सवाल भी यही उठ रहा था कि मायावती ने सबसे पहले आगरा का रुख क्यों किया? काफी पहले देखने में आया था कि कांशीराम के जमाने के कई बीएसपी कार्यकर्ता चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी में चले गये थे, लेकिन धीरे धीरे वे लौट आये. नवंबर, 2021 में आजाद समाज पार्टी के कई पदाधिकारियों के मिलने आने पर मायावती ने फिर से बीएसपी ज्वाइन करा लिया था. साथ ही मायावती की नजर 10 फरवरी को यूपी चुनाव के पहले चरण की वोटिंग पर भी है. पश्चिम यूपी में मायावती के काफी वोटर हैं. आगरा से ही मायावती ने अपने वोट बैंक को साधने की कोशिश की है.
आगरा की रैली से पहले मायावती (Mayawati) की राजनीति पर सभी निगाहें टिकी हुई थीं - और अपने सारे राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर भी बीएसपी नेता बनी हुई थीं, लेकिन अब बहस का टॉपिक थोड़ा बदल गया है.
अब तक बीजेपी (BJP) नेता अमित शाह से लेकर कांग्रेस (Congress) महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा तक मायावती से पूछ रहा था कि आखिर वो घर से निकल क्यों नहीं रही हैं? और अखिलेश यादव की ही तरह मायावती पर भी वर्क फ्रॉम होम पॉलिटिक्स का इल्जाम लगता रहा.
आगरा से पहले मायावती अरसा बाद लखनऊ में किसी सार्वजनिक मंच पर नजर आयी थीं, जब बीएसपी के ब्राह्मण सम्मेलन का समापन हो रहा था. अयोध्या में ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत से लेकर पूरे यूपी में जगह जगह जो भी कार्यक्रम हुए बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ही हैंडल करते रहे. कहीं कहीं वो बीएसपी कार्यकर्ताओं के साथ अपने बेटे सहित परिवार के लोगों को भी बुला लिया करते थे.
सितंबर, 2021 में ब्राह्मण वोटर पर फोकस प्रबुद्ध सम्मेलन के बाद, अब जाकर चुनावी रैली में पहुंचीं मायावती ने आगरा को दलित राजनीति की राजधानी बताया है.
असल में सवाल भी यही उठ रहा था कि मायावती ने सबसे पहले आगरा का रुख क्यों किया? काफी पहले देखने में आया था कि कांशीराम के जमाने के कई बीएसपी कार्यकर्ता चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी में चले गये थे, लेकिन धीरे धीरे वे लौट आये. नवंबर, 2021 में आजाद समाज पार्टी के कई पदाधिकारियों के मिलने आने पर मायावती ने फिर से बीएसपी ज्वाइन करा लिया था. साथ ही मायावती की नजर 10 फरवरी को यूपी चुनाव के पहले चरण की वोटिंग पर भी है. पश्चिम यूपी में मायावती के काफी वोटर हैं. आगरा से ही मायावती ने अपने वोट बैंक को साधने की कोशिश की है.
मायावती ने ये भी समझाने की कोशिश की कि जिन्हें बीएसपी को लेकर गलतफहमी है, उन्हें निराशा हो सकती है - और दावा किया कि उनकी पार्टी उतनी सीटें जीत लेगी जिनकी बदौलत सरकार बनायी जा सके.
मायावती इस बात को लेकर भी सतर्क लगीं कि उनका वोटर भी यकीन करे कि कैसे यूपी में बीएसपी की सत्ता में वापसी सुनिश्चित हो सकती है. मायावती ने कहा, 'हमारी पार्टी उत्तर प्रदेश की लगभग सभी सीटों पर तैयारी - और दमदारी के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए लड़ रही है.'
एक तरह से ये बताने की कोशिश रही कि दलित वोटर मायावती के विरोधियों के इस बहकावे में न आये कि मायावती चुनाव नतीजे आने के बाद किंगमेकर की भूमिका में होंगी. लिहाजा उम्मीदवारों के बारे में भी बता दिया, 'हमारी पार्टी ने पहले की तरह इस बार भी बसपा से जुड़ने की तादाद को ध्यान में रख कर उसी हिसाब से सर्वसमाज के लोगों को टिकट दिया है.'
दलित वोट बैंक को संदेश देने की ये भी एक कोशिश रही कि 2007 की तरह ही इस बार भी बीएसपी की ब्राह्मण वोट के सपोर्ट से सरकार बनाने की तैयारी है. दरअसल, अब तक आये सभी सर्वे में मायावती को तीसरी पोजीशन पर बताया जाता रहा है - और मायावती इसीलिए मीडिया का नाम ले लेकर सत्ता में वापसी की दावेदारी कर रही हैं.
मायावती ने चुनावी रैली में जो कुछ कहा उसमें यही लगा है कि अब भी वो कांग्रेस के प्रति आक्रामक अंदाज अपना रही हैं, समाजवादी पार्टी को भी भला-बुरा कह रही हैं, लेकिन बीजेपी के प्रति उनका नरम रुख काफी हद तक बरकरार है.
आगरा की चुनावी रैली से एक बात तो साफ है कि मायावती सार्वजनिक तौर पर ऐसा कुछ नहीं बोला नहीं जिसे सुन कर बीजेपी नेतृत्व की नाराजगी झेलनी पड़े - और बीएसपी के वोटर तक अपना मैसेज तो पहुंचा ही दिया है. भला अब क्या चाहिये?
मायावती की मोर्चेबंदी
बीएसपी की आगरा रैली की अहमियत थोड़ा ध्यान देने पर समझ में आ जाता है. बीएसपी की आगरा रैली में मायावती ने क्या क्या बोला, इस पर ध्यान देने से ज्यादा जरूरी ये समझना है कि किस जगह से अपनी बात कही है.
आगरा बीजेपी के उस नेता का इलाका है जिसे उत्तराखंड के राजभवन से बुला कर यूपी चुनाव के मैदान में उतार दिया गया है - बेबी रानी मौर्य. आगरा की मेयर रह चुकीं बेबी रानी मौर्य हाल फिलहाल अपने इंटरव्यू में उत्तराखंड राज्यपाल के तौर पर दो साल के बचे हुए अपने कार्यकाल की याद दिलाना नहीं भूल रही हैं.
हालांकि, अब बेबी रानी मौर्य का लहजा काफी बदला लग रहा है. हाल के एक इंटरव्यू में हाथरस के सवाल पर वो बीजेपी की योगी आदित्यनाथ सरकार का बचाव करती नजर आयीं और सवाल दोहराये जाने पर इंटरव्यू भी छोड़ दिया. ये वही बेबी रानी मौर्य हैं जो दलितों की बस्ती में जाकर लोगों को आगाह कर रही थीं कि शाम के 5 बजे के बाद महिलाएं थाने तो कतई न जायें. अगर जाना जरूरी हो तो भी घर के किसी पुरुष सदस्य को लेकर अगले दिन जायें - ये योगी आदित्यनाथ सरकार में यूपी पुलिस के कामकाज पर बड़ा सवाल था.
बेबी रानी मौर्य को, दरअसल, बीजेपी मायावती को काउंटर करने के लिए ही लायी थी, ऐसा माना जाता रहा है. क्योंकि बेबी रानी मौर्य भी दलितों में उसी जाटव वर्ग से आती हैं जो मायावती का कोर वोट बैंक है. ध्यान देने वाली बात यही है कि मायावती ने पहली रैली के लिए जगह भी वही चुनी है जो बेबी रानी मौर्य का गढ़ समझा जाता है.
मायावती पहले बीजेपी और कांग्रेस की खासियत कुछ ऐसे बताती थीं, एक नागनाथ है और दूसरा सांपनाथ. दोनों में कोई फर्क नहीं है, लेकिन आगरा में मायावती ने ऐसे बैलेंस नहीं किया - वो बीजेपी के खिलाफ बोलने की जगह एक्शन लेने लगी हैं.
मायावती अपने सभी राजनीतिक विरोधियों के प्रति अपने वोटर को बड़े आराम से आगाह कर रही हैं - और लगे हाथ ये भरोसा दिलाने की भी कोशिश करती हैं कि वे किसी के बहकावे में न आयें - बीएसपी फिर से सत्ता में वापसी कर रही है ये बात वे मन में बिठा लें.
मायावती के चुनाव कैंपेन का परंपरागत तरीका भी यही है. मायावती ने अमित शाह और प्रियंका गांधी के सवालों पर भी ऐसे ही समझाया था कि बीएसपी के पास बाकी राजनीतिक दलों जितने संसाधन नहीं हैं, इसलिए वो पहले से ही बड़ी बड़ी रैलियों की जगह वोटिंग से पहले अपने तरीके से अपने वोटर तक पहुंचेगी. मायावती की आगरा रैली ऐसी ही शुरुआत है.
वोटर से सीधा संवाद: देखा जाये तो मायावती के चुनाव कैंपेन पर चुनाव आयोग की बंदिशों का भी कोई असर नहीं हुआ. जब वो चुनाव प्रचार के लिए निकलीं हैं तो आयोग की तरफ से कई तरह की छूट भी दी जा चुकी है.
आगरा की रैली में मायावती अपने वोटर को समझा रही थीं, 'आपको अपना वोट कांग्रेस, सपा या भाजपा को न देकर अपनी एक मात्र हितैषी पार्टी बसपा को ही देना है - आप लोगों को ये समझना होगा कि बीएसपी को ही वोट देना क्यों जरूरी है.'
ऐसी समझाइश मायावती की तरफ से बीएसपी के वोटर तक पहंचाने की कोशिश काफी दिनों से चल रही है. कभी ट्विटर तो कभी मीडिया के जरिये, हाल फिलहाल मायावती दलित वोटर को ये समझाने की कोशिश करती आ रही हैं कि वे किसी भी कीमत पर अपना वोट बर्बाद न करें. वे अपना वोट सिर्फ बीएसपी को ही दें - क्योंकि बीएसपी ही दलितों के हितों का ख्याल रख सकती है.
चुनावी माहौल बनने से काफी पहले भी भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद को लेकर भी मायावती को ऐसी ही बातें कहते सुना गया था. मायावती की सलाह थी कि उनके समर्थक ऐसे लोगों के बहकावे में न आयें क्योंकि उनका इरादा कुछ और है.
बीबीसी की एक रिपोर्ट में चंद्रशेखर को लेकर ऐसा ही सवाल पूछा गया है. बिजनौर के रुखोड़ियो गांव में कई लोग एक सांस में 'न' कहते हैं. जोर देकर पूछे जाने पर जवाब मिलता है, 'उन्हें बहनजी की ताकत बनना चाहिये था, न कि सत्ता लोलुप.'
आसानी से समझा जा सकता है कि किस तरह मायावती ने चंद्रशेखर को लेकर अपने वोटर तक संदेश पहुंचा दिया है - और आगरा की रैली के जरिये ऐसी ही बातें बीएसपी नेता ने बीजेपी के बारे में भी समझा दिया है, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बारे में भी.
अब तो कांग्रेस और सपा एक जैसे लगते हैं
जिस तरह की समानता मायावती पहले कांग्रेस और बीजेपी के बारे में बताया करती थीं, अब बीजेपी वाली जगह वो अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को दे चुकी हैं.
बीजेपी को लेकर मायावती खामोशी से काम चला रही हैं, लेकिन प्रियंका गांधी और अखिलेश यादव को लेकर खुल कर बोल रही हैं - कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों ही से बच कर रहने की सलाह दे रही हैं.
आगरा की रैली में मायावती ने जहां कांग्रेस को दलित विरोधी पार्टी के तौर पर पेश किया, वहीं समाजवादी शासन के खराब कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े किये - अपने अखिलेश यादव की सरकार के कामकाज को कुशासन करार दिया.
जो बातें यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अमित शाह कैराना और पश्चिम यूपी में जगह जगह जाकर लोगों को समझा रहे हैं, मायावती ने आगरा से ही अपने वोटर को संदेश भेज दिया है.
अमित शाह भी मुजफ्फरनगर दंगों की याद दिला कर अखिलेश यादव को टारगेट कर रहे हैं और मायावती भी. अमित शाह उसमें हिंदू-मुस्लिम ऐंगल पेश करते हैं, लेकिन मायावती वही बात महज कानून-व्यवस्था का सवाल उठा कर कह दे रही हैं.
मायावती कहती हैं, 'याद रखना... मुजफ्फरनगर में दंगे इसीलिए हुए क्योंकि समाजवादी पार्टी की सरकार स्थिति को ठीक से संभाल न सकी.'
मायावती पहले यूपी में कानून-व्यवस्था लागू करने के मामले में बीएसपी सरकार की मिसाल देती रही हैं - असल में मायावती को मालूम है कि बीजेपी से बड़ी दुश्मन तो उनके लिए समाजवादी पार्टी ही है.
मायावती को पता है कि करीब 20 फीसदी दलितों में 11 फीसदी जाटव वोट उनको छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला और यादव ओबीसी वोट भी मिलने से रहा - लेकिन जो गैर-जाटव दलित वोट हैं या फिर गैर-यादव ओबीसी वोट हैं उनमें हिस्सेदारी तो बनायी ही जा सकती है. बीजेपी की भी नजर इसी वोट बैंक पर है, लेकिन मायावती की नजर मुस्लिम वोटर पर भी है जो समाजवादी पार्टी और कहीं कहीं कांग्रेस के हिस्से में भी जा सकता है.
कांग्रेस को लेकर मायावती का कहना रहा - 'ये पार्टी जबर्दस्त जातिवादी होने के कारण शुरू से ही हर मामले में दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग विरोधी रही है - और अब भी है.
पहले से लिखा हुआ भाषण पढ़ते हुए मायावती बोलीं, 'कांग्रेस पार्टी की सरकार ने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित भी नहीं किया था.' अंबेडकर को भारत रत्न 1990 में दिया गया जब कांग्रेस सत्ता से बाहर थी.
मायावती ने बीएसपी के संस्थापक कांशीराम को भी सम्मान न देने का का कांग्रेस पर आरोप लगाया. बोलीं, 'मान्यवर कांशीराम के देहांत के समय केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी ने उनके सम्मान में एक दिन का अवकाश भी घोषित नहीं किया था.' कांशीराम का निधन 2006 में हुआ था जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हुआ करते थे.
देखा जाये तो चुनावी रैलियां न करने से मायावती को बहुत ज्यादा नुकसान भी नहीं हुआ है. बीजेपी से मायावती भले न मुकाबला कर सकें, लेकिन जब समाजवादी पार्टी के टिकट के लिए नेता लखनऊ में डेरा डाले रहे तब भी जमीनी स्तर पर बीएसपी का चुनाव प्रचार जारी था. ऐसा इसलिए क्योंकि मायावती ने सबसे पहले विधानसभा प्रभारियों की नियुक्ति कर दी थी. थोड़े बहुत बदलाव को छोड़ दें तो वे विधानसभा प्रभारी ही बीएसपी के उम्मीदवार बन जाते हैं - अमित शाह और प्रियंका गांधी जैसे नेता जिस बात को लेकर सवाल उठाते रहे हैं, दरअसल, मायावती की असली चुनावी तैयारी भी वही है.
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