मायावती और अखिलेश यादव (Mayawati and Akhilesh Yadav) उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ही छोर पर खड़े हैं. तरीके से तो दोनों के कॉमन दुश्मन एक ही होना चाहिये. मगर ऐसा नहीं लग रहा है - और दोनों ही नेताओं के हाल के ट्वीट इस बात के सबूत पेश कर रहे हैं. मायावती और अखिलेश यादव ने 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन बनाया था. चुनाव नतीजे आने के बाद मालूम हुआ कि मायावती तो फायदे में रहीं, लेकिन अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव ही चुनाव हार गयीं. अभी अखिलेश यादव कुछ सोच पाते उससे पहले ही एक दिन अचानक मायावती ने गठबंधन तोड़ देने की घोषणा कर दी. यहां तक कि तत्काल बाद हुई उपचुनाव भी दोनों दल अलग अलग लड़े.
सीधे सीधे देखा जाये तो मायावती की बीएसपी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी दोनों के सामने एक ही राजनीतिक विरोधी है - बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath). जहां तक सूबे में सियासी हिस्सेदारी की बात है, कांग्रेस भी दोनों ही नेताओं के लिए बीजेपी जैसी ही राजनीतिक दुश्मन हुई - और इस लिहाज से दोनों को प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi Vadra), राहुल गांधी या फिर सोनिया गांधी से बराबर की ही चिढ़ होनी चाहिये. करीब करीब वैसे ही जैसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर दोनों के रिएक्शन लंबे अरसे से देखे जाते रहे हैं - लेकिन अभी तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता. अभी तो ऐसा लगता है जैसे दोनों ही नेताओं ने एक दूसरे से चिढ़ कर अपने दुश्मन भी बांट लिये हैं
अब ये समझना जरूरी है कि मायावती और अखिलेश यादव का बीजेपी-कांग्रेस की तरफ अलग अलग झुकाव भविष्य की कौन सी राजनीति की तरफ इशारा कर रहा है?
ये तो दुश्मन भी बांट लिये
2019 के आम चुनाव में मायावती और अखिलेश यादव के सामने बीजेपी तो दुश्मन नंबर 1 रही ही, कांग्रेस ने भी नुकसान पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. चुनाव नतीजे आने के बाद मायावती और अखिलेश यादव दोनों ने महसूस किया कि सिर्फ कांग्रेस के बीच में टांग अड़ा देने की वजह से उनको करीब आधा दर्जन सीटें...
मायावती और अखिलेश यादव (Mayawati and Akhilesh Yadav) उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ही छोर पर खड़े हैं. तरीके से तो दोनों के कॉमन दुश्मन एक ही होना चाहिये. मगर ऐसा नहीं लग रहा है - और दोनों ही नेताओं के हाल के ट्वीट इस बात के सबूत पेश कर रहे हैं. मायावती और अखिलेश यादव ने 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन बनाया था. चुनाव नतीजे आने के बाद मालूम हुआ कि मायावती तो फायदे में रहीं, लेकिन अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव ही चुनाव हार गयीं. अभी अखिलेश यादव कुछ सोच पाते उससे पहले ही एक दिन अचानक मायावती ने गठबंधन तोड़ देने की घोषणा कर दी. यहां तक कि तत्काल बाद हुई उपचुनाव भी दोनों दल अलग अलग लड़े.
सीधे सीधे देखा जाये तो मायावती की बीएसपी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी दोनों के सामने एक ही राजनीतिक विरोधी है - बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath). जहां तक सूबे में सियासी हिस्सेदारी की बात है, कांग्रेस भी दोनों ही नेताओं के लिए बीजेपी जैसी ही राजनीतिक दुश्मन हुई - और इस लिहाज से दोनों को प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi Vadra), राहुल गांधी या फिर सोनिया गांधी से बराबर की ही चिढ़ होनी चाहिये. करीब करीब वैसे ही जैसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर दोनों के रिएक्शन लंबे अरसे से देखे जाते रहे हैं - लेकिन अभी तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता. अभी तो ऐसा लगता है जैसे दोनों ही नेताओं ने एक दूसरे से चिढ़ कर अपने दुश्मन भी बांट लिये हैं
अब ये समझना जरूरी है कि मायावती और अखिलेश यादव का बीजेपी-कांग्रेस की तरफ अलग अलग झुकाव भविष्य की कौन सी राजनीति की तरफ इशारा कर रहा है?
ये तो दुश्मन भी बांट लिये
2019 के आम चुनाव में मायावती और अखिलेश यादव के सामने बीजेपी तो दुश्मन नंबर 1 रही ही, कांग्रेस ने भी नुकसान पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. चुनाव नतीजे आने के बाद मायावती और अखिलेश यादव दोनों ने महसूस किया कि सिर्फ कांग्रेस के बीच में टांग अड़ा देने की वजह से उनको करीब आधा दर्जन सीटें गंवानी पड़ी थी. चाहे वो मायावती हों या फिर अखिलेश यादव अगर वे 2022 में यूपी की सत्ता में वापसी की कोशिश में लगे हैं तो उनकी सीधी लड़ाई बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से ही है.
कुछ दिनों से ऐसा क्यों लग रहा है कि प्रियंका गांधी वाड्रा और राहुल गांधी से जो सवाल बीजेपी या योगी आदित्यनाथ को पूछना चाहिये, उनसे पहले मायावती ही पूछने लगती हैं. CAA के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के दौर से ही मायावती हर मौके पर प्रियंका गांधी वाड्रा को कभी नाम लेकर तो टिप्पणी करती रही हैं. साथ में कुछ न कुछ नसीहत भी होती ही है.
जब राहुल गांधी ने दिल्ली में प्रवासी मजदूरों से मुलाकात का वीडियो यूट्यूब पर शेयर किया तो एक बार फिर मायावती आपे से बाहर नजर आयीं.
मायावती ने तब भी ऐसे ही रिएक्ट किया था जब राहुल गांधी दिल्ली के सुखदेव विहार फ्लाईओवर पर मजदूरों से मिलने गये थे - और उनके घर पहुंचने का इंतजाम भी किया था. जब राहुल गांधी का वीडियो आया तो एक बार फिर मायावती कहने लगीं कि मजदूरों के इस हाल में होने के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है.
जब प्रियंका गांधी यूपी की सीमा पर बसें भेज देने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को निशाने पर लिये हुए थीं, तब भी मायावती के हमले जारी रहे. ऐसा तो नहीं कह सकते कि बसों के मामले में भी मायावती सिर्फ कांग्रेस को टारगेट कर रही थीं और योगी आदित्यनाथ को कुछ नहीं कह रही थीं, लेकिन ऐसा जरूर लगा जैसे योगी आदित्यनाथ पर मायावती की टिप्पणी रस्म अदायगी हो - और सारी नसीहतें सिर्फ कांग्रेस के लिए तैयार कर रखी हो. जब राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने 36 लाख रुपये के बसों का बिल भेज दिया तो भी मायावती का रवैया बिलकुल वैसा ही देखने को मिला.
बसों पर मचे बवाल पर रिएक्ट तो अखिलेश यादव ने भी किया, लेकिन ऐसा लगा जैसे मायावती और अखिलेश आपसी विरोध में प्रियंका गांधी के पक्ष और विपक्ष में खड़े हो जा रहे हैं - सच तो ये है कि अखिलेश यादव और मायावती दोनों की लड़ाई योगी आदित्यनाथ से है और प्रियंका गांधी वाड्रा से फिलहाल तो कत्तई नहीं. मजदूरों को घर भेजने के लिए बसों पर छिड़ी प्रियंका गांधी बनाम योगी आदित्यनाथ की जंग में मायावती बीजेपी की तरफ तो अखिलेश यादव कांग्रेस की तरफ नजर आये.
मायावती कांग्रेस पर बीजेपी की तरह हमले बोलती हैं. बीजेपी से पहले ही कांग्रेस से भिड़ जाती हैं - ऐसा करके मायावती बीजेपी का पक्ष ले रही हैं या फिर अपने वोट बैंक को कोई खास मैसेज देना चाहती हैं?
ठीक वैसे ही अखिलेश यादव के बयान मायावती से इतर होकर किसी नये राजनीतिक समीकरण की तरफ संकेत तो नहीं दे रहे हैं?
क्या अखिलेश फिर से कांग्रेस को पसंद करने लगे हैं
वैसे सोनिया गांधी के बुलावे पर विपक्ष की वीडियो बैठक में न तो मायावती शामिल हुईं - और न ही अखिलेश यादव. शामिल तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी नहीं हुए, लेकिन उसकी राजनीतिक वजह कोई और रही. मायावती और अखिलेश यादव की तरफ से तो इंकार की आशंका पहले से ही रही, आम आदमी पार्टी की तरफ कहा गया कि न तो उसके पास ऐसी किसी मीटिंग की सूचना है और न ही वो जाने वाले हैं.
मायावती और अखिलेश यादव का ट्विटर पर जो रूख नजर आ रहा है, उसके हिसाब से तो समाजवादी पार्टी के नेता को मीटिंग में शामिल होना चाहिये था. मायावती के साथ गठबंधन के दौर में भी तो अखिलेश यादव ही ऐसी बैठकों में पहुंचा करते थे - चाहे वो कोलकाता में होती या कहीं और. सत्ता विरोधी गठबंधन को एकजुट करने में अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव हमेशा ही सक्रिय रहे. सत्ता विरोधी गठबंधन क्या, मुलायम सिंह यादव तो तीसरे मोर्चे की ही कोशिश में रहते लेकिन कभी भी मुमकिन नहीं हो पाया. अखिलेश यादव पहले भी ऐसी बैठकों में कम ही जाते थे और अब भी रवैया वैसा ही है.
मायावती की कांग्रेस नेताओें से नाराजगी की एक बड़ी वजह भीम आर्मी के प्रति प्रियंका गांधी का सॉफ्ट कॉर्नर भी लगता है. मायावती भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर को हमेशा ही खारिज करती रही हैं. आम चुनाव के दौरान जब से प्रियंका गांधी चंद्रशेखर से मिलने अस्पताल पहुंच गयीं तब से वो मायावती की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं. वैसे भी कांग्रेस की दूरगामी सोच के हिसाब से देखें तो 2022 के लिए प्रियंका गांधी ही मुख्यमंत्री पद की दावेदार रहने वाली हैं और फिर उनकी कोशिश होगी कि यूपी के रास्ते दिल्ली की सत्ता पर कब्जे के लिए राहुल गांधी की राह आसान करें.
मायावती की कांग्रेस से नाराजगी की एक वजह राजस्थान के बीएसपी विधायकों को कांग्रेस में शामिल कराया जाना भी है. यही वजह रही कि मायावती CAA विरोध के दौरान प्रियंका गांधी को यूपी के साथ साथ एक बार कोटा अस्पताल जाकर बच्चों और उनके माता पिता का हाल लेने की नसीहत भी देती रहीं.
अखिलेश यादव शुरू से ही मायावती के साथ चुनावी गठबंधन करना चाहते थे, लेकिन ऐसा मौका पहले कांग्रेस ने दो साल पहले ही मुहैया करा दिया. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने साथ साथ चुनाव प्रचार भी किया. स्लोगन था - यूपी को ये साथ पसंद है. चुनाव बाद चर्चा होने लगी कि राहुल गांधी ने अखिलेश यादव के फोन उठाने ही बेद कर दिये थे और चुनावी गठबंधन टूट गया. जब गठबंधन नहीं हुआ था तो अखिलेश यादव कुछ ऐसे समझाते - सोचो अगर साइकिल को हाथ मिल जाये तो स्पीड कितनी बढ़ जाएगी. ऐसा वो तब कहा करते थे जब खुद यूपी के मुख्यमंत्री रहे. गठबंधन को लेकर एक और चर्चा रही कि फाइनल टच प्रियंका गांधी ने ही दिया था जब एक दिन देर शाम डिंपल यादव के पास फोन आया - और फिर अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी वाड्रा में बात हुई.
ऐसे समझा जाये तो राहुल गांधी तब भी सीन में बाहरी थे और प्रियंका गांधी ही एक बार फिर यूपी के मैदान में हैं. अब ये जरूरी तो नहीं कि राहुल गांधी अखिलेश यादव का फोन न उठायें तो वो भी प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ वैसा ही व्यवहार करें. भाई-भाई और भाई-बहन की केमिस्ट्री अलग तो होती ही है. अखिलेश यादव के हालिया स्टैंड पर गौर करें तो इस बात से इंकार करना मुश्किल हो रहा है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच कोई खिचड़ी नहीं पक रही है.
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