मायावती (Mayawati) अब खुल कर यूपी चुनाव (P Election 2022) के मैदान में खुद भी कूद पड़ी हैं. अब उनके हाथ में हाथी के साथ गणेश भी हैं - और त्रिशूल भी. मायावती के मंच से अब 'जय श्रीराम' के नारे भी लगते हैं और चुनावी शंखनाद तो जैसे शंख ध्वनि से ही होने लगी है.
मायावती ने जब से अपने चुनावी इरादे साफ करने शुरू किये तब से लगातार सफाई देती आ रही हैं. जब असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के साथ चुनावी गठबंधन की चर्चा होने लगी तो सामने आकर बताया कि बीएसपी का गठबंधन सिर्फ पंजाब में अकाली दल के साथ हुआ है और यूपी में पार्टी अकेले दम पर चुनाव लड़ेगी. हाल के ब्राह्मण सम्मेलनों में भी बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा बार बार ये बात दोहराते देखे गये.
ब्राह्मण वोट बैंक को रिझाने की मुहिम के बीच ही मायावती ने कहा था कि आगे से सत्ता में आने पर वो मूर्तियों और पार्कों की जगह सूबे के विकास पर फोकस करेगी - और अब लेटेस्ट ऐलान ये है कि बीएसपी अब किसी बाहुबली या माफिया को विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं देंगी.
मायावती ने मऊ से मुख्तार अंसारी (Mukhtar Ansari) की जगह बीएसपी के प्रदेश अध्यक्ष भीम राजभर को टिकट देने की घोषणा के साथ ही इरादे जाहिर तो कर दिये हैं, लेकिन कुछ सवाल हैं जिनके जवाब मायावती को चुनावों में देने ही होंगे?
मुख्तार अंसारी का टिकट काट कर मायावती सिर्फ एक बाहुबली या माफिया से दूरी बनाने की कोशिश कर रही हैं या फिर राहुल गांधी की तरह किसी सॉफ्ट हिंदुत्व के एजेंडे की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रही हैं क्योंकि अब तो बीएसपी के मंच से हिंदुत्व की झलक भी नजर आने लगी है. जो त्रिशूल अब तक वीएचपी नेता प्रवीण तोगड़िया की हाथों में नजर आता था अब मायावती ने थाम लिया है. देखा जाये तो मायावती भी राहुल गांधी की तरह ही पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं. मायावती की पार्टी को तो सत्ता से बाहर हुए दस साल हो भी गये हैं, राहुल गांधी ने तो ऐसे अभी सात साल ही गुजारे हैं.
जैसे जैसे परत खुल रही है बीएसपी के हर चुनावी पन्ने...
मायावती (Mayawati) अब खुल कर यूपी चुनाव (P Election 2022) के मैदान में खुद भी कूद पड़ी हैं. अब उनके हाथ में हाथी के साथ गणेश भी हैं - और त्रिशूल भी. मायावती के मंच से अब 'जय श्रीराम' के नारे भी लगते हैं और चुनावी शंखनाद तो जैसे शंख ध्वनि से ही होने लगी है.
मायावती ने जब से अपने चुनावी इरादे साफ करने शुरू किये तब से लगातार सफाई देती आ रही हैं. जब असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के साथ चुनावी गठबंधन की चर्चा होने लगी तो सामने आकर बताया कि बीएसपी का गठबंधन सिर्फ पंजाब में अकाली दल के साथ हुआ है और यूपी में पार्टी अकेले दम पर चुनाव लड़ेगी. हाल के ब्राह्मण सम्मेलनों में भी बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा बार बार ये बात दोहराते देखे गये.
ब्राह्मण वोट बैंक को रिझाने की मुहिम के बीच ही मायावती ने कहा था कि आगे से सत्ता में आने पर वो मूर्तियों और पार्कों की जगह सूबे के विकास पर फोकस करेगी - और अब लेटेस्ट ऐलान ये है कि बीएसपी अब किसी बाहुबली या माफिया को विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं देंगी.
मायावती ने मऊ से मुख्तार अंसारी (Mukhtar Ansari) की जगह बीएसपी के प्रदेश अध्यक्ष भीम राजभर को टिकट देने की घोषणा के साथ ही इरादे जाहिर तो कर दिये हैं, लेकिन कुछ सवाल हैं जिनके जवाब मायावती को चुनावों में देने ही होंगे?
मुख्तार अंसारी का टिकट काट कर मायावती सिर्फ एक बाहुबली या माफिया से दूरी बनाने की कोशिश कर रही हैं या फिर राहुल गांधी की तरह किसी सॉफ्ट हिंदुत्व के एजेंडे की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रही हैं क्योंकि अब तो बीएसपी के मंच से हिंदुत्व की झलक भी नजर आने लगी है. जो त्रिशूल अब तक वीएचपी नेता प्रवीण तोगड़िया की हाथों में नजर आता था अब मायावती ने थाम लिया है. देखा जाये तो मायावती भी राहुल गांधी की तरह ही पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं. मायावती की पार्टी को तो सत्ता से बाहर हुए दस साल हो भी गये हैं, राहुल गांधी ने तो ऐसे अभी सात साल ही गुजारे हैं.
जैसे जैसे परत खुल रही है बीएसपी के हर चुनावी पन्ने पर लगता है मायावती का माफीनामा दर्ज हो रखा है - जैसे 2015 के विधानसभा चुनावों में AAP नेता अरविंद केजरीवाल घर घर जाकर दिल्लीवालों से माफी मांगा करते थे, कहीं मायावती को भी ये तो नहीं लगने लगा है कि जैसे लोगों ने 70 में से 67 सीटें आप के नाम कर दी थी, बिलकुल वैसे ही यूपी वाले इस बार 403 में से 400 सीटें बीएसपी के नाम कर देंगे. हालांकि, ऐसा दावा फिलहाल अखिलेश यादव कर रहे हैं, ये बताते हुए कि तीन सीटें विपक्ष को भी मिलनी चाहिये ताकि लोकतंत्र मजबूत रहे.
मायावती के जो भी सलाहकार हों और बहुजन समाज पार्टी की जैसी भी चुनावी रणनीति तैयार की गयी हो, लेकिन लगता तो ऐसा है जैसे मायावती का मिशन P-2022 किसी चुनावी मुहिम से कहीं ज्यादा एक भूल सुधार अभियान लगने लगा है!
मुख्तार अंसारी कौन - माफिया डॉन या मुस्लिम बाहुबली?
ये तीसरा मौका है जब बीएसपी नेता मायावती ने जेल में बंद माफिया डॉन मुख्तार अंसारी से दूरी बनाते हुए खुद को पेश किया है. 2017 के यूपी चुनाव में मायावती ने मुख्तार अंसारी को मुस्लिम वोटों के लिए बीएसपी में शामिल किया था. तब मायावती को अपने तत्कालीन साथी नसीमुद्दीन सिद्दीकी (अब कांग्रेस में) की मदद से पश्चिम यूपी और मुख्तार अंसारी की बदौलत पूर्वांचल में मुस्लिमों वोटों की उम्मीद में थीं, लेकिन नाकाम रहीं.
पांच साल बाद मायावती अब कह रही हैं कि अगले यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी का प्रयास होगा कि किसी भी बाहुबली और माफिया तत्व को चुनाव न लड़ाया जाये - बढ़िया है, लेकिन ये आत्मज्ञान अचानक क्यों हुआ है.
हो सकता है मायावती को अफसोस हो रहा हो और रहेगा भी कि वो मुख्तार अंसारी को सुधार नहीं पायीं. पिछले चुनाव में मायावती ने यही कहते हुए अफजाल अंसारी को बीएसपी में लिया था कि वो अंसारी बंधुओं को सुधार का एक मौका देना चाहती हैं.
सबसे बड़ा सवाल ये है कि मुख्तार अंसारी को मायावती महज एक मुस्लिम बाहुबली नेता मानती हैं या फिर माफिया डॉन - अगर मुख्तार अंसारी को मायावती अब माफिया मानने लगी हैं तो पहले सिर्फ मुस्लिम क्यों मानती थीं - निश्चित तौर पर आने वाले विधानसभा चुनाव में मायावती को बीजेपी के ऐसे सवालों के जवाब देने होंगे.
लेकिन मायावती का इतने भर से ही पीछा नहीं छूटने वाला है - मुख्तार का टिकट काटे जाने के बाद मायावती से बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा का सवाल है कि क्या अब वो अफजाल अंसारी को भी के साथ भी वैसा सलूक करने की हिम्मत दिखा पाएंगी?
केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा ने पूछा है, 'क्या मायावती को पहले नहीं पता था कि मुख्तार अंसारी अपराधी हैं? उनके बड़े भाई बीएसपी से सांसद हैं - क्या उनको पार्टी से निकालने की हिम्मत दिखाएंगी मायावती?'
मुख्तार अंसारी को लेकर मायावती का ये कदम बीएसपी छोड़ने वाले नेताओं को पार्टी से निकाल देने की घोषणा जैसा क्यों लगता है?
मायावती ने 2017 में मऊ से मुख्तार अंसारी और मोहम्मदाबाद से उनके बड़े भाई सिबगतुल्लाह अंसारी को टिकट दिया था. मुख्तार अंसारी तो चुनाव जीत गये लेकिन मोहम्मदाबाद में बीएसपी उम्मीदवार को शिकस्त देकर बीजेपी की अलका राय विधानसभा पहुंच गयीं. बीजेपी विधायक अलका राय का आरोप है कि मुख्तार अंसारी का उनके पति तत्कालीन बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय की हत्या में हाथ रहा है, हालांकि लोअर कोर्ट से हत्या के सारे आरोपी बरी हो चुके हैं.
2019 के लोक सभा चुनाव में भी मायावती ने मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी को गाजीपुर से बीएसपी उम्मीदवार बनाया और जिसमें बीजेपी के मनोज सिन्हा को हार का मुंह देखना पड़ा था. फिलहाल मनोज सिन्हा जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं.
अभी कुछ ही दिन पहले मुख्तार अंसारी के भाई सिबगतुल्लाह अंसारी समाजवादी पार्टी में फिर से शामिल हो गये हैं - और मायावती को मुख्तार अंसारी के भी पाला बदलने की भनक लगी चुकी होगी या कम से कम आशंका तो हो ही गयी होगी, लिहाजा एहतियातन अपनी चाल पहले ही चल दी है.
वैसे भी योगी आदित्यनाथ सरकार माफिया और बाहुबली कहे जाने वाले ऐसे तत्वों के खिलाफ एनकाउंटर स्टाइल में ही सफाया करने में जुटी हुई है - मायावती ने दूर की सोच कर आगे की मुश्किलों से पहले ही निजात पा ली है.
प्री-पोल सर्वे को खारिज करने का आधार क्या है?
आज कल यूपी के ब्राह्मण वोटर से बढ़ चढ़ कर वादे कर रहीं मायावती को आगे बढ़ने से पहले खुद से कुछ सवाल जरूर पूछने चाहिये - पहला सवाल तो यही कि दलित समुदाय से इतर कोई और उनको वोट क्यों देना चाहेगा? मतलब, ब्राह्मण समुदाय से ही है.
अगर ब्राह्मणों की बात है तो वो क्यों बीएसपी को वोट दें? एक बार ब्राह्मणों के वोट से अपने दम पर मायावती ने सरकार बनायी तो पूरे प्रदेश में अपनी और अपने चुनाव निशान की मूर्तियां लगवा दीं, जिसे चुनाव आयोग को एक बार वोटिंग से पहले ढके जाने का भी आदेश देना पड़ा था. क्या ब्राह्मणों ने यही सोच कर 2007 में बीएसपी को वोट दिया होगा?
अभी कुछ दिन पहले तक जोर शोर से कह रही थीं कि वो पूरे सूबे में भगवान परशुराम की मूर्तियां लगवाएंगी - अब कह रही हैं कि वो कोई मूर्ति नहीं लगवाएंगी क्योंकि वो विकास के काम पर जोर देंगी. जब मायावती खुद ये सब कह रही हैं तो वोटर को कन्फ्यूजन तो होगा ही - और कन्फ्यूजन कितना खतरनाक होता है, ये वो भी जानती ही होंगी.
रही बात मुसलमानों को सपने दिखाने की तो वे भी भला कैसे भरोसा करें? वैसे भी ये तो मान कर चला जाता है कि मौजूदा दौर में मुस्लिम वोट उसी को मिलता है जो बीजेपी को हराने की गारंटी देता हो. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के दौरान तो ऐसा लगता भी था, लेकिन मायावती ने ही गठबंधन तोड़ लिया - और वैसे भी हालिया रुझान तो यही बता रहे हैं कि यूपी चुनाव में मुकाबला बीजेपी और सपा के बीच होने जा रहा है. ऊपर से मायावती कभी मुख्तार अंसारी को मुस्लिम बताती हैं और कभी माफिया - क्या मुसलमानों को ये कन्फ्यूजन नहीं होगा?
भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद रावण भी सपा-बसपा गठबंधन का थोड़ा सा क्रेडिट ले रहे हैं. नवभारत टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में चंद्रशेखर आजाद कहते हैं, 'कोई शक नहीं ये बहुत ही प्रभावशाली गठबंधन था. मेरी भी कुछ न कुछ भूमिका थी, लेकिन यह रिजल्ट नहीं दे पाया.
चंद्रशेखर की नजर में ऐसा क्यों हुआ होगा, खुद ही बताते भी हैं, 'वजह जहां तक मैं समझ पाया हूं, वो ये है कि दोनों दलों के नेताओं के बीच तो गठबंधन हो गया था, लेकिन कार्यकर्ताओं और उनके वोटर के बीच नहीं हो सका... जो प्रयास किए जाने चाहिये थे - दोनों दलों के नेताओं की ओर से नहीं हुए.'
और मायावती की दलित राजनीति को लेकर भीम आर्मी नेता का जो ऑब्जर्वेशन है, वो भी काफी हद तक सही लगता है, 'धर्म की आंधी के साथ जब बहुसंख्यक समाज बहा तो उसमें दलित भी बह गया, हालांकि उसमें गैर-जाटव ज्यादा थे. यहां चूक ये हुई कि अंबेडकर जी, कांशीराम जी के विचारों पर राजनीति करने वाली जो काडर बेस पार्टियां थीं - वे खुद बीजेपी के एजेंडे पर राजनीति करने लगीं.'
चंद्रशेखर की ही तरह असदुद्दीन ओवैसी भी मायावती को बीजेपी के उभार के लिए दोषी ठहरा रहे हैं - हालांकि, वो अखिलेश यादव को भी मायावती के बराबर ही दोषी मान रहे हैं - और खुलेआम कह रहे हैं कि दोनों नेताओं की मूर्खता से ही बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी दो-दो बार प्रधानमंत्री बन गये.
ऐसे हाल में भी मायावती को यूपी चुनाव को लेकर आये एबीपी न्यूज और सी वोटर के सर्वे पर सख्त ऐतराज है. सर्वे के मुताबिक अगले यूपी चुनाव में बीजेपी को 41.8 फीसदी, समाजवादी पार्टी को 30.2 फीसदी और बीएसपी को महज 15.07 फीसदी वोट मिलने की संभावना है. वोट शेयर के आधार पर बीएसपी के हिस्से में 12-16 सीटें आने का अनुमान लगाया गया है, जबकि बीजेपी को 259-267 सीटें और समाजवादी पार्टी को 109-117 सीटें मिलने की अपेक्षा की गयी है.
मायावती की नजर में सर्वे का खास मकसद बीजेपी को मजबूत दिखाते हुए बीएसपी समर्थकों का मनोबल को गिराने की भी ये साजिश है. मायावती कह रही हैं कि बीएसपी के लोग ऐसी साजिशों का सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और वे ऐसे सर्वे के बहकावे में नहीं आने वाले हैं.
2007 के विधानसभा चुनाव के नतीजों की याद दिलाते हुए मायावती का कहना है, 'उस समय भी सभी सर्वे वाले हमारी पार्टी की सरकार बनने की बात कबूल करने की बजाय हमें सिर्फ सबसे बड़े दल के रूप में दिखा रहे थे, लेकिन जब चुनाव नतीजे सामने आये तो बीएसपी को पूर्ण बहुमत मिला था.
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