बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती जब सत्ता में थीं तब सौंदर्यीकरण के नाम पर उत्तरप्रदेश में बहुत काम किया गया और तभी जगह-जगह मायावती और हाथी की मूर्तियां नजर आने लगी थीं. मायावती के मूर्ति प्रेम को आत्ममुग्धता का नाम दिया गया. आरोप भी लगे कि ये जमता के पासे का दुरुपयोग है.
लेकिन मायावती राज्य के अलग-अलग शहरों में अपनी और हाथी की मूर्तियों के लगाए जाने को एकदम सही बताती हैं. इनका कहना है कि मूर्तियां लोगों की मर्जी से ही लगवाई गई थीं. जो लोगों की भावनाओं को दर्शाती हैं, उनकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करती हैं.
मायावती 2007 सा 2012 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. मायावती की मूर्तियों पर 2009 में एक वकील ने जनहित याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि मायावती ने 2000 करोड़ रुपए के सार्वजनिक धन का उपयोग कर अपनी और हाथी की मूर्तियां बनवाईं. और जनता के टैक्स के पैसों का उपयोग मूर्तियां बनवाने और राजनीतिक दल का प्रचार करने के लिए नहीं किया जा सकता. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने मायावती से कहा था कि उन्हें लखनऊ और नोएडा में अपनी तथा बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियां बनवाने पर खर्च किया गया सारा सरकारी धन लौटाना होगा. लेकिन इसपर मायावती से जवाब मांगा था.
मायावती का जवाब- नहीं दूंगी पैसा !
मायावती ने दायर की गई इस जनहित याचिका को राजनीति से प्रेरित बताते हुए कहा कि यह एक दलित महिला को मिले आदर-सम्मान के खिलाफ दुर्भावना का नतीजा है. मायावती ने इस याचिका पर जो जवाब दिए हैं उसी में सारे तर्क हैं- मायावती ने कहा कि-
मूर्तियां अगर प्रेरणा के लिए हैं तो ये प्रेरण तो सालों...
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती जब सत्ता में थीं तब सौंदर्यीकरण के नाम पर उत्तरप्रदेश में बहुत काम किया गया और तभी जगह-जगह मायावती और हाथी की मूर्तियां नजर आने लगी थीं. मायावती के मूर्ति प्रेम को आत्ममुग्धता का नाम दिया गया. आरोप भी लगे कि ये जमता के पासे का दुरुपयोग है.
लेकिन मायावती राज्य के अलग-अलग शहरों में अपनी और हाथी की मूर्तियों के लगाए जाने को एकदम सही बताती हैं. इनका कहना है कि मूर्तियां लोगों की मर्जी से ही लगवाई गई थीं. जो लोगों की भावनाओं को दर्शाती हैं, उनकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करती हैं.
मायावती 2007 सा 2012 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. मायावती की मूर्तियों पर 2009 में एक वकील ने जनहित याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि मायावती ने 2000 करोड़ रुपए के सार्वजनिक धन का उपयोग कर अपनी और हाथी की मूर्तियां बनवाईं. और जनता के टैक्स के पैसों का उपयोग मूर्तियां बनवाने और राजनीतिक दल का प्रचार करने के लिए नहीं किया जा सकता. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने मायावती से कहा था कि उन्हें लखनऊ और नोएडा में अपनी तथा बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियां बनवाने पर खर्च किया गया सारा सरकारी धन लौटाना होगा. लेकिन इसपर मायावती से जवाब मांगा था.
मायावती का जवाब- नहीं दूंगी पैसा !
मायावती ने दायर की गई इस जनहित याचिका को राजनीति से प्रेरित बताते हुए कहा कि यह एक दलित महिला को मिले आदर-सम्मान के खिलाफ दुर्भावना का नतीजा है. मायावती ने इस याचिका पर जो जवाब दिए हैं उसी में सारे तर्क हैं- मायावती ने कहा कि-
मूर्तियां अगर प्रेरणा के लिए हैं तो ये प्रेरण तो सालों पहले से मिल रही है
मायावती का कहना था कि विधान मंडल में ही ये मांग उठी थी कि दलितों के सामाजिक उत्थान के लिए किए गए प्रयासों के लिए उनकी मूर्तियां स्थापित की जाएं. इन प्रतिमाओं के जरिए विधानमंडल ने दलित महिला नेता के प्रति आदर व्यक्त किया है. मूर्तियां इसलिए बनवाई गई थीं जिससे लोग इसने प्रेरणा ले सकें. निश्चित रूप से मैं कांसीराम की मूर्ति के निकट अपनी प्रतिमा लगाने के राज्य विधान मंडल के सदस्यों की भावनाओं के विरुद्ध नहीं जा सकती. कांसीराम को मरणोपरांत भारत रत्न सम्मान देने की मांग देश में उठी थी.
जाहिर है कांग्रेस ने जब बाबा साहब अंबेडकर की मूर्तियां लगवाई थीं तब भी कारण यही बताया गया था कि पिछड़ी जाति के लोग उनसे प्रेरित हो सकें, दलितों का आत्मविश्वास बढ़ सके. लोगों को ये लगे कि उनके ही बीच का एक व्यक्ति भी ऊंचाइयां छू सकता है और सबके लिए प्रेरणा हो सकता है. जबकी हकीकत तो यही थी न कि ये सब दलित वोटों के लिए किया गया था. वही काम तो मायावती ने किया. जाहिर है वो ये सब सत्ता में रहते हुए ही कर पातीं.
यदि मूर्ति लगाना पैसे की बर्बादी है तो यह देश भर में हुई है
मायावती के मूर्ति लगवाने को पैसे की बर्बादी कहा जा रहा है. लेकिन क्या ये बर्बादी सिर्फ उत्तर प्रदेश में हुई है. लोगों को नेताओं का स्मरण रहे, इसके लिए शहर के हर चौराहे पर नोताओं की मूर्तियां लगवाई जाती रही हैं. क्या उनमें पैसे बर्बाद नहीं हुए. जो काम वो मूर्तियां कर रही हैं वही काम मायावती के हाथी और खुद मायावती की मूर्तियां भी करती हैं. फिर सिर्फ मायावती से परेशानी क्यों? इस लिहाज से तो सवाल सरदार पटेल की मूर्ति 'statue of unity' पर भी होने चाहिए. 3000 करोड़ की एक मूर्ति बनवाई गई है. उसमें और इन मूर्तियों में क्या फर्क है. और अगर है तो अदालत ही बताए.
स्कूल या अस्पताल पर बहस हमेशा होती है
मायावती ने कहा कि पैसा स्कूलों पर खर्च करना चाहिए या अस्पतालों पर, इसपर बहस हो सकती है लेकिन इसपर अदालत फैसला नहीं कर सकती. जाहिर सी बात है सरकार ऐसे बहुत से काम करती है जिसे देखकर ये कहा जा सकता है कि इससे बेहतर तो स्कूल-अस्पताल खोल देते. स्टैचू ऑफ यूनिटी जब बनी थी तब भी बहुत सी आवाजें उठी थीं कि ये मूर्ति किस तरह लोगों के लिए फायदेमंद हो सकती है, इससे तो स्कूल या अस्पताल खोल लेते. पर बहस तो बहस है. होता वही है जो होना होता है. यानी पता सबको होता है कि जनता की भलाई किसमें है लेकिन फिर भी न तो स्कूल बनता है और न अस्पताल. और अगर अदालत ही इसपर फैसला करने योग्य होती तो क्या आज अयोध्या मामला अब तक पेंडिग होता, वहां क्यों नहीं बना स्कूल या अस्पताल? लेकिन अगर सरकार किसी जगह पर मूर्ति बनवाती है तो उसके पीछे कोई न कोई हित तो होता ही है.
सवाल सिर्फ दलित मूर्तियों पर क्यों?
मायावती का कहना है कि बाकी पार्टियों ने भी नेताओं की मूर्तियां बनवाई हैं. सवाल सिर्फ दलित नेताओं की मूर्तियों पर क्यों उठते हैं? तो ये बात तो सही ही है. इससे पहले क्या हमने कभी किसी की मूर्ति नहीं देखीं. लेकिन तब मूर्तियों पर खर्च किए गए पैसों पर सवाल नहीं उठा करते थे. मायावती दलित वर्ग से आती हैं उन्होंने खुलकर खर्च किया, और अपने जीते जी भी अपनी मूर्ति लगवा दीं. आज के समय में मायावती ही दलितों की मसीहा हैं तो उनकी मूर्ति का होना तो बनता है. मायावती को भी ये पता था कि अन्य राजनीतिक पार्टियों का उनके प्रति जो व्यवहार है उसके चलते तो वाले समय में शायद ही कोई उनकी मूर्तियां बनवाता.
क्या हाथी सिर्फ चुनाव चिन्ह है?
मायावती का तर्क है कि हाथी सिर्फ बसपा का चुनावी चिन्ह नहीं होते. वे भारतीय पारंपरिक वास्तुकला में प्रयुक्त होने वाला वास्तुशिल्प प्रतीक भी हैं. तो ये भी सच ही है. इसपर भले ही आप कुछ भी कह लें लेकिन ये तर्क सभी बातों पर भारी है. क्योंकि हाथी तो हाथी है.
मूर्तियों की कोई पार्टी नहीं होती
मायावती के तर्कों पर मायावती का साथ देने के लिए हो सकता है लोग मुझसे सहमत न हों. लेकिन ये मामला ऐसा है कि इसपर बात तो होनी ही चाहिए और बात तार्किक भी हो. मूर्तियों का इतिहास बताता है कि उन्हें किसी न किसी वजह से ही बनवाया जाता है. वो वजह यादगार से ज्यादा राजनैतिक होती हैं इसे नकार नहीं सकते. मूर्तियों की कोई पार्टी नहीं होती. पार्टियां ही मूर्तियों से फायदा उठाती हैं. मूर्तियां तो हर किसी के लिए समान हैं. इनके साथ होने वाला व्यवहार भी समान है. हर पार्टी भी इनके साथ समान व्यवहार ही करती है. निश्चित समय पर गले में माला डालती है और काम निकल जाने के बाद इन मूर्तियों की दुर्दशा भी एक ही जैसी होती है. उनपर बैठने वाले कौवे और कबूतर भी एक ही जैसे होते हैं और एक ही तरह से उन्हें गंदा भी करते हैं. सौंदर्य कम राजनीति ज्यादा चलाती हैं ये मूर्तियां.
तो supreme court अगर इन मूर्तियों की वजह से मायावती पर जो भी फैसला ले, वो फैसला सभी के लिए बराबर होना चाहिए. अगर धन वापसी को कहती है तो फिर दूसरी मूर्तियां बनवाने वालों को भी कहना होगा. साथ ही देश में मूर्तियां या स्मारक बनवाने को लेकर कुछ पैमाने भी तय करने की जरूरत है जिससे इन मूर्तियों का होना सार्थक हो सके. एक मूर्ति अगर गल है तो दूसरी सही कैसे हो सकती है ये भी साफ करना होगा. इस मामले पर मायावती के तर्क गलत नहीं हैं. और इन मूर्तियों के समर्थन में देश की सभी मूर्तियां एक साथ खड़ी हैं.
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