लंदन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने फिर से वही सवाल खड़ा हो गया - 'क्या आप खुद को भारत के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं?' बहुत सोचने की जरूरत नहीं पड़ी. जवाब पहले से ही तैयार था, "फिलहाल मैं इस बारे में नहीं सोच रहा. मैं खुद को एक वैचारिक लड़ाई लड़ने वाले के तौर पर देखता हूं. मुझमें यह बदलाव 2014 के बाद आया. मुझे लगा कि भारत में जैसी घटनाएं हो रही हैं, उससे भारत और भारतीयता को खतरा है. मुझे इससे देश की हिफाजत करनी है."
प्रधानमंत्री पद को लेकर कर्नाटक चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने जो राय जाहिर की थी, उससे अलग दूसरी बार ऐसी बात कही है. इससे पहले राहुल गांधी ने साफ किया था कि संघ या बीजेपी को छोड़ कर किसी के भी प्रधानमंत्री बनने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं है.
राहुल गांधी के बयान के बाद ही मार्केट में ममता बनर्जी और मायावती का नाम आगे आया - और अब तो दोनों के बीच ही रेस हो चली है. कई बार तो ऐसा लगता है जैसे विपक्षी दलों में दोनों के पक्ष में अलग अलग गुटबाजी होने लगी है.
आधे मायावती के पक्ष में, आधे ममता के साथ - और बाकी राहुल गांधी के सपोर्ट में!
26 जुलाई को एनसीपी नेता शरद पवार ने मायावती से दिल्ली में मुलाकात की और अगले ही दिन यानी 27 जुलाई को जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ममता बनर्जी से कोलकाता में. इन मुलाकातों को 2019 के लिए विपक्ष के संभावित गठबंधन के दो गुटों में बंटते देखा गया. एक धड़ा यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की तरफ झुकता दिखा तो दूसरा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर. उमर अब्दुल्ला से मुलाकात के बाद ममता बनर्जी का जोर इस बात पर दिखा कि प्रधानमंत्री पद के लिए नाम पर ध्यान न दिया जाये. लगता है ममता बनर्जी यूपी की अहमियत को अच्छी तरह समझ रही हैं.
लंदन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने फिर से वही सवाल खड़ा हो गया - 'क्या आप खुद को भारत के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं?' बहुत सोचने की जरूरत नहीं पड़ी. जवाब पहले से ही तैयार था, "फिलहाल मैं इस बारे में नहीं सोच रहा. मैं खुद को एक वैचारिक लड़ाई लड़ने वाले के तौर पर देखता हूं. मुझमें यह बदलाव 2014 के बाद आया. मुझे लगा कि भारत में जैसी घटनाएं हो रही हैं, उससे भारत और भारतीयता को खतरा है. मुझे इससे देश की हिफाजत करनी है."
प्रधानमंत्री पद को लेकर कर्नाटक चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने जो राय जाहिर की थी, उससे अलग दूसरी बार ऐसी बात कही है. इससे पहले राहुल गांधी ने साफ किया था कि संघ या बीजेपी को छोड़ कर किसी के भी प्रधानमंत्री बनने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं है.
राहुल गांधी के बयान के बाद ही मार्केट में ममता बनर्जी और मायावती का नाम आगे आया - और अब तो दोनों के बीच ही रेस हो चली है. कई बार तो ऐसा लगता है जैसे विपक्षी दलों में दोनों के पक्ष में अलग अलग गुटबाजी होने लगी है.
आधे मायावती के पक्ष में, आधे ममता के साथ - और बाकी राहुल गांधी के सपोर्ट में!
26 जुलाई को एनसीपी नेता शरद पवार ने मायावती से दिल्ली में मुलाकात की और अगले ही दिन यानी 27 जुलाई को जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ममता बनर्जी से कोलकाता में. इन मुलाकातों को 2019 के लिए विपक्ष के संभावित गठबंधन के दो गुटों में बंटते देखा गया. एक धड़ा यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की तरफ झुकता दिखा तो दूसरा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर. उमर अब्दुल्ला से मुलाकात के बाद ममता बनर्जी का जोर इस बात पर दिखा कि प्रधानमंत्री पद के लिए नाम पर ध्यान न दिया जाये. लगता है ममता बनर्जी यूपी की अहमियत को अच्छी तरह समझ रही हैं.
पहले से आम धारणा तो रही ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सूबत दे दिया कि पीएम की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुजरता है, भले ही उसके लिए गुजरात से ही क्यों न आना पड़े. पहली वजह तो यही है कि ममता बनर्जी पर मायावती भारी पड़ रही हैं.
ममता बनर्जी और मायावती के बीच होड़ मच जाने के बाद राहुल गांधी ने पीएम की कुर्सी पर दावेदारी की बजाये लड़ाई को लीड करने का फैसला किया है. राहुल के इस स्टैंड का फायदा है कि विपक्ष जो उनके नाम पर दूरी बना लेता रहा, अब बहाना नहीं बना सकेगा. अगर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ विपक्ष कोई चेहरा घोषित नहीं करता तो जाहिर है सीटों के हिसाब से दावेदारी होगी. अगर कांग्रेस के पास जरूरत भर नंबर आ गया तो अपनेआप दावा काबिज हो जाएगा. मायावती और ममता के बीच भी फैसला नंबर के आधार पर ही होगा. राहुल गांधी के लिए फायदे की एक बात ये भी है कि प्रधानमंत्री कम से कम इस बात पर उनके अहंकार को लेकर हमला नहीं करेंगे.
2019 में माया बनाम ममता
ममता बनर्जी ने हिंदी उन दिनों सीखना शुरू कर दिया था जब दूर दूर तक उनके प्रतिद्वद्वी के नाम के तौर पर मायावती की कोई संभावना भी नहीं जतायी जा रही थी. गैर हिंदी भाषी होने को अगर कोई कमजोरी मानी जाये तो मायावती वैसे भी भारी पड़ेंगी - क्योंकि हिंदी में लिखा हुआ भाषण तो वो अरसे से देती आयी हैं. कभी कभार अटकने की बात और है, लेकिन ममता बनर्जी को तो ऐसा प्रयोग करते अब तक नहीं देखा गया.
प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध प्रतिरोध की मजबूत आवाज के तौर पर देखा जाये तो ममता बनर्जी बीस लगती हैं. मोदी सरकार के फैसलों पर विरोध तो मायावती भी जताती रहती हैं, लेकिन उसमें सेलेक्टिव अप्रोच रहता है. ममता का मजबूत विरोध ज्यादातर मसलों पर जोरदार रहता है, लेकिन मायावती के रूख में कुछेक को छोड़ कर रस्मअदायगी ज्यादा लगती है. इसकी एक वजह मायावती पर बीते बरसों में लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी हो सकते हैं जिनके बारे में तोते के चाबुक की कहानियां भी चलती रहती हैं. यूपीए के शासन में तो हाल और भी बुरा रहा था. कभी मायावती तो कभी मुलायम सिंह यादव के सपोर्ट में खड़े रहने की वजह भी यही मानी जाती रही है.
बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. असम में NRC के मुद्दे पर ममता बनर्जी ने भले ही अलख जगाये रखा हो, लेकिन 2019 में अगर दलितों का मुद्दा उठा तो मायावती की तो पहले से ही जमींदारी है.
एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के बाद पहला विरोध राहुल गांधी ने जताया - और अब तो मोदी सरकार ने भी वो सब किया जो दलित समुदाय चाहता था. ये तोहमत भी मोदी सरकार पर ही लगा था कि वो कानूनी रास्ते से दलित कानून को कमजोर करना चाहती है. मोदी सरकार ने भूल सुधार तो कर लिया, लेकिन क्या उसे उसका राजनीतिक फायदा भी मिलेगा. लोगों की बातचीत से तो ऐसा नहीं लगता.
गली-मोहल्लों और चाय पर जो चर्चाएं हो रही हैं उनसे तो ऐसा लगता है बीजेपी एससी-एसटी एक्ट पर न माया मिली न राम वाली स्थिति को प्राप्त हो चुकी है. दलित तो करीब आने से रहे, बीजेपी का कोर वोट बैंक सवर्ण भी इस कदम से नाराज लगने लगा है.
अगर चुनाव की तारीख आने तक एससी-एसटी एक्ट और दलित मुद्दा कायम रहा तो ममता बनर्जी को मायावती पछाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे - वैसे भी जिस हिसाब से वो बीएसपी के विस्तार में जुटी हैं तस्वीर काफी साफ लग रही है.
बीएसपी और टीएमसी में भी फासला बढ़ने लगा है
जहां तक ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी यानी तृणमूल कांग्रेस और मायावती की बीएसपी के बीच तुलना की बात है - वो गहराई तक गौर करने वाली है. टीएमसी जहां पश्चिम बंगाल तक सिमट आयी है, बीएसपी एक एक करके कई राज्यों तक पांव जमाती जा रही है. ये बात अलग है कि बीएसपी यूपी में ही हाशिये पर पहुंच चुकी है जबकि टीएमसी ने चुनाव जीत कर दोबारा सत्ता हासिल की है.
यूपी से बाहर बीएसपी उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में सक्रिय रही है, चुनाव तो वो बिहार सहित कई राज्यों में लड़ती रही है. हाल फिलहाल कर्नाटक में उसका एक विधायक एचडी कुमारस्वामी सरकार में मंत्री भी है.
ताजा गठबंधन की चर्चा तो हरियाणा में ही है. अभय चौटाला को राखी बांध कर मायावती ने एक बार फिर गठबंधन में रक्षाबंधन से मजबूती लाने की कोशिश की है. अगले ही महीने हरियाणा के गोहाना में चौटाला की पार्टी INLD के साथ बीएसपी की भी रैली होने की संभावना है.
साथ ही साथ, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर भी बीएसपी और कांग्रेस के बीच गठबंधन के पूरे आसार हैं. कांग्रेस को दलित वोट बैंक से खासी उम्मीदें हैं - और मायावती की हाथी की सवारी को कांग्रेस कुछ कुछ वैसे ही देख रही है जैसे कभी अखिलेश यादव साइकल के हैंडल पर कांग्रेस के हाथ को लेकर उत्साहित नजर आया करते थे.
ऊपर से मंडल कमीशन रिपोर्ट के रचयिता बीपी मंडल के जन्म शताब्दी वर्ष में उन्हें भारत रत्न देने की मांग भी शुरू हो चुकी है. पहली आवाज आयी है आरजेडी नेता तेजस्वी यादव की ओर से. जल्द ही दूसरे नेताओं के मिले सुर मेरा तुम्हारा भी सुनने को मिलेगा ही.
सारी बातें एक तरफ, ममता और मायावती की एक बड़ी खासियत एक तरफ. ममता के मुकाबले मायावती से डील करना कांग्रेस के लिए ज्यादा आसान है - और मुमकिन है यही फर्क आखिरी फैसले का आधार भी बने.
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...तो राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर ग्रहण लग ही गया?
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