यूपी चुनाव में बीजेपी के सामने चाहे जैसी भी चुनौतियां हों, अपने इलाके में योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) तो बेफिक्र ही होंगे - फिर भी अगर थोड़ी बहुत कसर बाकी रही होगी तो मायावती (Mayawati) ने उसे भी पूरा कर दिया है.
उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की मायावती निर्विवाद नेता हैं. 2007 की ही तरह एक बार फिर वो दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के जरिये सत्ता में वापसी की लड़ायी लड़ रही हैं. हालांकि, मौजूदा विधानसभा चुनाव में मायावती के अब तक के प्रदर्शन को देखते हुए कोई सीधे मुकाबले में मानने को तैयार नहीं है.
दलित और ब्राह्मण वोटर के साथ साथ मायावती का मुस्लिम वोटों पर भी पूरा जोर है. आगरा से अपने चुनाव अभियान की औपचारिक शुरुआत करने वाली मायावती का ज्यादा जोर दलित और मुस्लिम वोटर पर ही नजर आ रहा है. चूंकि शुरुआती दौर में जिन इलाकों में वोटिंग होनी है, वहां दलित-मुस्लिम वोटर की ही कई जगह निर्णायक भूमिका भी है. मायावती के अभी जोर देने की एक वजह ये भी हो सकती है.
योगी आदित्यनाथ के खिलाफ भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद के चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद मायावती ने योगी आदित्यनाथ के सामने मुस्लिम चेहरा उतार दिया है. गोरखपुर सदर सीट से ख्वाजा शमशुद्दीन (Khwaja Shamsuddin) को बीएसपी ने अधिकृति प्रत्याशी घोषित किया है. मायावती की ये चाल दुधारी तलवार जैसी लगती है, जिसका पूरा फायदा योगी आदित्यनाथ को मिल सकता है - और सीधा नुकसान चंद्रशेखर आजाद को हो सकता है.
गोरखपुर सीट पर नया समीकरण
बीएसपी उम्मीदवारों की ताजा सूची आने से पहले तक गोरखपुर सदर सीट पर दलित वोट बैंक के अकेले दावेदार आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद अकेले दावेदार हुआ करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा.
मायावती तो लगता है गोरखपुर में चंद्रशेखर आजाद की जमानत जब्त कराने की तैयारी में जुट गयी हैं
पहले तो लगा था कि चंद्रशेखर आजाद विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार भी हो सकते हैं, लेकिन तभी अखिलेश यादव ने सुभावती शुक्ला को समाजवादी पार्टी में शामिल कर लिया. सुभावती शुक्ला, गोरखपुर में बीजेपी के ब्राह्मण चेहरा रहे उपेद्र शुक्ला की पत्नी हैं. उपेंद्र शुक्ला को बीजेपी ने 2018 के उपचुनाव में गोरखपुर संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया था, लेकिन वो सपा और बसपा के ज्वाइंट कैंडिडेट से हार गये थे. गोरखपुर वही सीट है जहां से योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार सांसद चुने गये हैं.
अभी तक न तो अखिलेश यादव की तरफ से और न ही कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की तरफ से ही गोरखपुर सदर सीट पर किसी उम्मीदवार की घोषणा की गयी है - मायावती के उम्मीदवार घोषित करने से पहले तक ऐसा लग रहा था कि हो सकता है चंद्रशेखर आजाद को ही पूरा विपक्ष सपोर्ट कर दे.
मायावती के गोरखपुर सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार उतार देने के बाद अखिलेश और प्रियंका का क्या रुख होता है, देखना होगा. चंद्रशेखर के प्रति 2019 के आम चुनाव के पहले से ही प्रियंका गांधी वाड्रा की सहानुभूति देखी जाती रही है.
जब प्रियंका गांधी पहली बार चंद्रशेखर से मिलने मेरठ के अस्पताल पहुंचीं थी, तो तरह तरह के कयास लगाये जाने शुरू हो गये थे. लेकिन ये बात तब मायावती को बेहद नागवार गुजरी थी. मायावती इस वाकये से इतनी खफा हुईं कि अमेठी और रायबरेली में भी सपा-बसपा गठबंधन का प्रत्याशी उतारने पर आमादा हो गयीं, फिर जैसे तैसे अखिलेश यादव ने उनको ऐसा न करने के लिए मना लिया था.
अखिलेश यादव और चंद्रशेखर की बात करें तो चुनावी गठबंधन की बात चल रही थी, लेकिन फाइनल नहीं हो सका. गठबंधन न होने पर चंद्रशेखर आजाद ने तो अखिलेश यादव को खूब खरी खोटी सुनायी थी, लेकिन समाजवादी पार्टी नेता ने काफी संयम दिखाया है.
कौन हैं ख्वाजा शमसुद्दीन: ख्वाजा शमसुद्दीन गोरखपुर के ही जाफरा बाजार के रहने वाले हैं. फिलहाल बीएसपी के गोरखपुर मंडल सेक्टर के प्रभारी भी हैं. अब तक सिर्फ एक बार वो पार्षद का चुनाव लड़े हैं - लेकिन 20 साल से बीएसपी में कई पदों पर काम कर चुके हैं.
यूपी के 22 फीसदी दलित वोटों के साथ साथ मायावती करीब 10-12 फीसदी ब्राह्मण वोटों को तो साधने की कोशिश में हैं ही, 19 फीसदी मुस्लिम वोट पर भी निगाह हमेशा से टिकी रहती है. वैसे दलितों में मायावती के साथ जाटव वोट ही रह गया है. यूपी में जाटव वोट करीब 11 फीसदी बतायी जाती है - मायावती जाटव वर्ग से ही आती हैं.
जहां तक गोरखपुर का सवाल है, अर्बन विधानसभा इलाके के करीब 4.50 लाख मतदाताओं में 50 हजार मुस्लिम वोटर हैं - यहां ब्राह्मण वोटर करीब 55 हजार और दलित वोटर करीब 20 हजार बताये जाते हैं. गोरखपुर अर्बन सीट पर सबसे ज्यादा कायस्थ वोटर हैं और पंजाबी, सिंधी, बंगाली, सैनी मिलाकर करीब 30 हजार वोट हो जाते हैं. साथ में 45 हजार वैश्य, 25 हजार क्षत्रिय, 25 हजार यादव और 25 हजार ही निषाद वोटर हैं.
लेकिन सारी खुदाई एक तरफ और गोरखनाथ मंदिर का प्रभाव एक तरफ ही अब तक देखने को मिला है. ये वही सीट है जिस पर 2002 में योगी आदित्यनाथ ने पहली बार सांसद बनने के चार साल बाद ही अपने बूते एक नये नये डॉक्टर को मैदान में उतार कर बीजेपी के अधिकृत प्रत्याशी शिव प्रताप शुक्ल को शिकस्त दे डाली थी.
और अब तो खुद योगी आदित्यनाथ ही मैदान में उतर चुके हैं, वो भी पांच साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद - एक मात्र यही कारण है कि हर कोई गोरखपुर सीट पर चुनावी लड़ाई को एकतरफा मान कर चल रहा है.
लेकिन मायावती के मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा कर देने के बाद वोटों का समीकरण बदलेगा - और उसका पूरा फायदा योगी आदित्यनाथ को ही मिलेगा. फिर तो जाहिर है नुकसान में चंद्रशेखर आजाद ही रहेंगे.
मायावती ने ओवैसी को पछाड़ दिया है
भले ही अमित शाह कई बार मायावती से चुनाव मैदान में उतरने में हो रही देर को लेकर को लेकर कई बार सवाल पूछ चुके हों. भले ही मायावती को प्रियंका गांधी वाड्रा बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता बता चुकी हों - लेकिन एक झटके में ही मायावती ने इस मामले में असदुद्दीन ओवैसी को भी लगता है पीछे छोड़ दिया है.
मायावती की आगरा रैली और उसके बाद के चुनावी कार्यक्रमों में भी बीजेपी पर तीखे हमलों से परहेज करते महसूस किया गया है. मायावती सबसे ज्यादा कांग्रेस और समाजवादी पार्टी पर हमले बोल रही हैं. बीजेपी के खिलाफ मायावती का रुख बस इतना ही महसूस किया गया है कि वो बेबी रानी मौर्य के इलाके से बीएसपी की मुहिम की शुरुआत कर अपने वोटर को संदेश भेजने की कोशिश की है.
हो सकता है कि असदुद्दीन ओवैसी के मन में भी आया हो कि योगी आदित्यनाथ के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा करें. अगर ओवैसी की पार्टी गोरखपुर में प्रत्याशी खड़ा करती तो भी ज्यादा संभावना किसी मुस्लिम उम्मीदवार की ही होती.
दरअसल, मायावती और ओवैसी के साथ साथ अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी की भी कोशिश ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम वोट हासिल करने की है. यही वजह है कि अनुपात जो भी हो, यूपी में मुस्लिम वोट इन चारों ही पार्टियों के बीच बंटने जा रहा है - और अगर वाकई ऐसा ही होता है तो पूरा फायदा बीजेपी को ही मिलना पक्का है.
ऊपर से तो मायावती ने गोरखपुर सदर सीट पर दलित और मुस्लिम वोटों को लेकर दावेदारी पेश की है, ऐसा ही असर हो ये बिलकुल भी जरूरी नहीं है. बल्कि, सब कुछ उलटा होने की ज्यादा संभावना लग रही है.
मायावती के मुस्लिम उम्मीदवार की वजह से वोटों का ध्रुवीकरण होना पक्का हो गया है. मतलब, मुस्लिम उम्मीदवार के खिलाफ हिंदू वोट एकजुट होंगे - और फिर जरूरी नहीं कि दलित वोटर भी दो ही विकल्पों पर विचार करेगा - योगी आदित्यनाथ और ख्वाजा शमसुद्दीन.
मुस्लिम वोट जरूर ख्वाजा शमसुद्दीन के हिस्से में जा सकता है क्योंकि गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के नामकरण संस्कार से खफा लोगों का गुस्सा खत्म तो हुआ नहीं होगा. गोरखपुर के अलीनगर का नाम आर्यनगर और उर्दू बाजार का नाम हिंदी बाजार काफी चर्चित रहा है.
चंद्रशेखर की राजनीति खत्म करने की कोशिश
सहारनपुर से युवा दलित नेता के रूप में उभरे चंद्रशेखर आजाद हर जगह आत्मविश्वास से लबालब नजर आते हैं. चंद्रशेखर के विरोधी अहंकारी और महत्वाकांक्षी होने के साथ साथ सब कुछ जल्दी पा जाने की हड़बड़ी में भी देखते हैं - और सबसे बड़ा सच तो ये है कि अभी तक वो मुख्यधारा की राजनीति में स्थापित भी नहीं कर पाये हैं.
जमाने के अनुसार अपडेट और नये तेवर को देखते हुए दलित युवाओं में चंद्रशेखर की फैन फॉलोविंग भी अच्छी खासी देखने को मिलती है, लेकिन सत्ता की राजनीति के लिए चुनाव जीतना जरूरी होता है - और इस मामले में तो वो अभी तक शुरुआत भी नहीं कर पाये हैं.
गोरखपुर सदर सीट के नतीजों को लेकर चंद्रशेखर के मन में भी वही ख्याल होगा जो हर कोई सोच रहा है, लेकिन योगी आदित्यनाथ को चैलेंज करके जो संदेश वो देना चाहते हैं - सबसे खास बात वही है.
मुश्किल ये है कि चंद्रशेखर के चैलेंज करने के इरादे को ही मायावती ने कुचल डालने की कोशिश की है. दरअसल, मायावती कभी नहीं चाहतीं कि उनका उत्तराधिकारी कोई ऐसा दलित नेता हो जो उनके मनमाफिक काम न किया हो.
मायावती ने सहारनपुर हिंसा के बाद ही चंद्रशेखर को संदेश देने की कोशिश की थी कि वो बीएसपी ज्वाइन कर लें, लेकिन तब भीम आर्मी को मिले सपोर्ट के चलते उनका दिमाग भी सातवें आसमान पर था. पहली बार चंद्रशेखर ने जेल से छूटने के बाद माायवती को बुआ कह कर संबोधित किया तो बीएसपी नेता साफ तौर पर मुकर गयीं कि वो किसी की बुआ नहीं हैं.
देखा जाये तो अभी तक ऐसा कोई नहीं दिखा है जो चंद्रशेखर को नेता बन जाने देना चाहता हो. अगर वो कांग्रेस या समाजवादी पार्टी ज्वाइन करने को तैयार हो जायें तो शायद ही किसी को दिक्कत होगी - शायद मायावती को भी कोई आपत्ति न हो, अगर चंद्रशेखर बीएसपी ज्वाइन करने का प्रस्ताव पेश करें.
चंद्रशेखर, दरअसल, गठबंधन की कोशिश करते हैं और ऐसा करके कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता - मायावती तो उनके धरने और विरोध प्रदर्शनों को भी खारिज करती रही हैं - और दलित समुदाय को ऐसे लोगों से गुमराह न होने की सलाह देती रही हैं.
अब तो मायावती ने एक ही चाल में ही गोरखपुर में वोटों का ध्रुवीकरण भी कर दिया है - और चंद्रशेखर आजाद के असर को पूरी तरह न्यूट्रलाइज भी. शमसुद्दीन की वजह से सारे मुस्लिमों के खिलाफ सारे वोट एकजुट हो जाएंगे - और चंद्रशेखर भी गुबार देखते रह जाएंगे क्योंकि दलितों का कारवां तो अब शमसुद्दीन के साथ ही जाएगा.
असल बात तो ये है कि मायावती ने चंद्रशेखर की जमानत जब्त करा कर उनकी राजनीति को ही कुचल देना चाहती हैं - लेकिन जो कुछ भी हो रहा है वो यूपी की दलित राजनीति के हितों के खिलाफ ही लगता है.
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