मायावती पिछले करीब दो दशकों से भारतीय राजनीति का एक ऐसा चेहरा हैं जिसे देश में हर जगह पहचाना जाता है. ये मायावती के अपने करिश्माई व्यक्तित्व के कारण है. पर इसके उलट हाल के चुनाव परिणाम इस बात की गवाही देते हैं कि मायावती की माया क्षीण पड़ रही है.
अगर लोक सभा चुनावों की बात करें तो 2019 में 10 सीटों पर बसपा सिमट गयी. पिछले आम चुनावों (2014) में यह आकड़ा सिर्फ 5 सीटों का था. विधान सभा चुनाव की अगर बात करें तो उत्तर प्रदेश सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती की पार्टी 2017 में सिर्फ 19 सीटें ही जीत पायी.
अगर सवाल ये है कि माया राजनीति पर ढीली पड़ती अपनी पकड़ को बचाने के लिए क्या कर रही हैं. तो इसका जवाब है वो "ट्वीट" कर रही हैं. मायावती की राजनीति हाल के दिनों में सिर्फ ट्विटर पर ही सिमट कर रह गयी है. कोई भी मुद्दा हो वो ट्वीट कर देती हैं और उनके कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है.
हाल में ऐसे दो मामले देखने को मिले जिनमें वो माद्दा था कि माया अपनी खोई ज़मीन पाने की अगर कोशिश करतीं तो निराश नहीं होतीं. उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में नरसंहार हो जाता है, 10 जानें चली जाती हैं. मायावती सिर्फ ट्वीट करके प्रदेश की कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं. इसके उलट अपने शायद सबसे बुरे दौर से गुजरा रही कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी मौके पर पहुंचने का भरसक प्रयास करती दिखती हैं. वो 24 घंटे का धरना देती हैं, अखबारों और टीवी चैनल्स की सुर्खियां बटोरती हैं.
दूसरा मामला हाल में ही दिल्ली में संत...
मायावती पिछले करीब दो दशकों से भारतीय राजनीति का एक ऐसा चेहरा हैं जिसे देश में हर जगह पहचाना जाता है. ये मायावती के अपने करिश्माई व्यक्तित्व के कारण है. पर इसके उलट हाल के चुनाव परिणाम इस बात की गवाही देते हैं कि मायावती की माया क्षीण पड़ रही है.
अगर लोक सभा चुनावों की बात करें तो 2019 में 10 सीटों पर बसपा सिमट गयी. पिछले आम चुनावों (2014) में यह आकड़ा सिर्फ 5 सीटों का था. विधान सभा चुनाव की अगर बात करें तो उत्तर प्रदेश सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती की पार्टी 2017 में सिर्फ 19 सीटें ही जीत पायी.
अगर सवाल ये है कि माया राजनीति पर ढीली पड़ती अपनी पकड़ को बचाने के लिए क्या कर रही हैं. तो इसका जवाब है वो "ट्वीट" कर रही हैं. मायावती की राजनीति हाल के दिनों में सिर्फ ट्विटर पर ही सिमट कर रह गयी है. कोई भी मुद्दा हो वो ट्वीट कर देती हैं और उनके कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है.
हाल में ऐसे दो मामले देखने को मिले जिनमें वो माद्दा था कि माया अपनी खोई ज़मीन पाने की अगर कोशिश करतीं तो निराश नहीं होतीं. उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में नरसंहार हो जाता है, 10 जानें चली जाती हैं. मायावती सिर्फ ट्वीट करके प्रदेश की कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं. इसके उलट अपने शायद सबसे बुरे दौर से गुजरा रही कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी मौके पर पहुंचने का भरसक प्रयास करती दिखती हैं. वो 24 घंटे का धरना देती हैं, अखबारों और टीवी चैनल्स की सुर्खियां बटोरती हैं.
दूसरा मामला हाल में ही दिल्ली में संत रविदास मंदिर के तोड़े जाने का है. मामला अचानक से सामने नहीं आया, कई दिनों से सुलग रहा था. पर माया ने इस मुद्दे पर ट्वीट करना ही सही समझा.
वहीं भीम आर्मी ने देखते-देखते इसे एक आंदोलन का रूप दे दिया. भीम आर्मी ने वो कर दिया जो शायद मायावती को करना चाहिए था. ये उनकी पिछड़ों की राजनीति के लिए और आगामी दिल्ली चुनाव में उनके लिए किसी संजीवनी से कम काम नहीं आता.
वैसे तो प्रधानमंत्री मोदी ट्विटर पर देश के ही नहीं दुनिया के सबसे ज्यादा फॉलो किए जाने वाले नेताओं में से एक हैं. पर उन्होंने ज़मीन पर अपनी पकड़ हर बीते दिन के साथ मजबूत की है.
आज कल बच्चों को ज्यादातर घरों में डांट पड़ती है कि वो सारे दिन फोन में लगे रहते हैं जो उनके भविष्य के लिए ठीक नहीं है. और सच कहें तो राजनेताओं पर भी ये एकदम सटीक बैठता है. सोशल मीडिया का जरुरत से ज्यादा इस्तमाल उनके राजनीतिक भविष्य के लिए ठीक नहीं है. क्योंकि ये उनको अपनी राजनितिक ज़मीन और लोगों से दूर कर सकता है और सत्ता से भी. ज़मीन से उठे नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिए कि ट्विटर राजनीति के लिए जरुरी है पर जरुरत नहीं.
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