मायावती अपनी शर्तों पर राजनीति करती आयी हैं. अपने हिसाब से वो बीएसपी को चलाती हैं. अपने मन से ही किसी और राजनीतिक दल से गठबंधन करती हैं और फिर जब मनमाफिक चीजें नहीं लगतीं तो बगैर वक्त गंवाये फौरन रिश्ता भी तोड़ लेती हैं. सपा-बसपा गठबंधन इसकी ताजातरीन मिसाल है. मायावती अपने तरीके की एक्सक्लूसिव पॉलिटिक्स करती हैं जिसमें सबसे खास बात दलित की एक बेटी का मान सम्मान और सत्ता पर काबिज रहना होता है - और ये किरदार वो खुद ही निभाती हैं. किसी और के लिए कोई ऐसा रोल नहीं होता.
मायावती अब तक फेमिली पॉलिटिक्स से बचने का प्रयास करती रही हैं, लेकिन लगातार हार से लगता है समझौते को मजबूर कर दिया है - भाई आनंद कुमार को बीएसपी में दोबारा दाखिला मिलना और भतीजे आकाश आनंद को अहम ओहदे पर बैठाना तो यही साबित करता है.
मायावती का सिद्धांत संशोधन
मायावती की अपने हाव भाव और काम करने के तरीके से हमेशा ये मैसेज देने की कोशिश रही है कि वो उसूलों की पक्की हैं. उसूलों का पक्का होने का मतलब किसी तरह के बदलाव को भी जल्दी स्वीकार नहीं कर पाना है. गुजरते वक्त के साथ मायावती की राजनीति में अपडेट सिर्फ यही हो पाया है कि बीएसपी की बैठकों में काफी दिनों से अकेली कुर्सी सिर्फ मायावती के लिए नहीं होती - और अब उनका अपना एक ट्विटर अकाउंट भी हो गया है. ये भी हाल के ही आम चुनावों के दौरान हुई घटना है.
हालांकि, बीएसपी में अब भी कई पुराने रिवाज कायम हैं और उन पर सख्ती से अमल भी होता है. अब ताजा मीटिंग को ही लीजिए जिसमें बड़े बड़े फैसले लिये गये - सभी नेताओं को नंगे पांव भी अंदर के लिए एंट्री मिल पायी. प्रवेश से पहले ही नेताओं से उनके मोबाइल, बैग, वॉलेट, पेन और यहां तक कि गले में पड़े ताबीज तक बाहर जमा करा लिये गये.
पहली बार जब मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी में एंट्री दी तो माना गया कि वो उनके उत्तराधिकारी बनेंगे - लेकिन बहुत वक्त नहीं बीता और मायावती ने भाई और कुछ दिन बाद उनके दोस्त को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया. तब मायावती का कहना...
मायावती अपनी शर्तों पर राजनीति करती आयी हैं. अपने हिसाब से वो बीएसपी को चलाती हैं. अपने मन से ही किसी और राजनीतिक दल से गठबंधन करती हैं और फिर जब मनमाफिक चीजें नहीं लगतीं तो बगैर वक्त गंवाये फौरन रिश्ता भी तोड़ लेती हैं. सपा-बसपा गठबंधन इसकी ताजातरीन मिसाल है. मायावती अपने तरीके की एक्सक्लूसिव पॉलिटिक्स करती हैं जिसमें सबसे खास बात दलित की एक बेटी का मान सम्मान और सत्ता पर काबिज रहना होता है - और ये किरदार वो खुद ही निभाती हैं. किसी और के लिए कोई ऐसा रोल नहीं होता.
मायावती अब तक फेमिली पॉलिटिक्स से बचने का प्रयास करती रही हैं, लेकिन लगातार हार से लगता है समझौते को मजबूर कर दिया है - भाई आनंद कुमार को बीएसपी में दोबारा दाखिला मिलना और भतीजे आकाश आनंद को अहम ओहदे पर बैठाना तो यही साबित करता है.
मायावती का सिद्धांत संशोधन
मायावती की अपने हाव भाव और काम करने के तरीके से हमेशा ये मैसेज देने की कोशिश रही है कि वो उसूलों की पक्की हैं. उसूलों का पक्का होने का मतलब किसी तरह के बदलाव को भी जल्दी स्वीकार नहीं कर पाना है. गुजरते वक्त के साथ मायावती की राजनीति में अपडेट सिर्फ यही हो पाया है कि बीएसपी की बैठकों में काफी दिनों से अकेली कुर्सी सिर्फ मायावती के लिए नहीं होती - और अब उनका अपना एक ट्विटर अकाउंट भी हो गया है. ये भी हाल के ही आम चुनावों के दौरान हुई घटना है.
हालांकि, बीएसपी में अब भी कई पुराने रिवाज कायम हैं और उन पर सख्ती से अमल भी होता है. अब ताजा मीटिंग को ही लीजिए जिसमें बड़े बड़े फैसले लिये गये - सभी नेताओं को नंगे पांव भी अंदर के लिए एंट्री मिल पायी. प्रवेश से पहले ही नेताओं से उनके मोबाइल, बैग, वॉलेट, पेन और यहां तक कि गले में पड़े ताबीज तक बाहर जमा करा लिये गये.
पहली बार जब मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी में एंट्री दी तो माना गया कि वो उनके उत्तराधिकारी बनेंगे - लेकिन बहुत वक्त नहीं बीता और मायावती ने भाई और कुछ दिन बाद उनके दोस्त को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया. तब मायावती का कहना रहा कि कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक दलों की तरह बीएसपी में भी परिवारवाद को बढ़ावा देने की खबरें मीडिया में आने लगीं थीं.
जब मायावती भाई आनंद कुमार को लेकर आईं तो जोर देकर बताया था कि वो न तो कभी चुनाव लड़ेंगे और न ही सत्ता के दावेदार होंगे. सेवाभाव से पार्टी में कार्यकर्ता की भूमिका में बने रहेंगे. फिर एक दिन मायावती ने आनंद कुमार को बीएसपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से हटा दिया. मायावती ने मैसेज तो यही देने की कोशिश की कि वो राजनीति में भाई-भतीजा वाद के पूरी तरह खिलाफ हैं. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले भी जिस किसी साथी नेता ने बीएसपी छोड़ी मायावती का यही कहना रहा कि वो बेटे या परिवार के किसी सदस्य के लिए टिकट चाहते थे. वैसे देखा जाये तो मायावती ने अपने सगे भाई आनंद कुमार को मुसीबत में साथ दिया था. सरकारी जांच एजेंसियों की नजर से बचाने के लिए सियासी सुरक्षा कवच मुहैया कराया, लेकिन उसी भाई को वजह से जब मायावती विरोधियों के निशाने पर आईं तो उसे बाहर करते देर न लगी.
मायावती ने अपने भाई को लेकर बीएसपी की एक मीटिंग में घोषणा की और लगे हाथ ये भी बता दिया कि पार्टी के संविधान में संशोधन करते हुए नया नियम बनाया गया है - अब से राष्ट्रीय अध्यक्ष के जीवनकाल में या उसके बाद, उसके परिवार का कोई व्यक्ति न तो पार्टी के किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाएगा, न ही पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर सांसद या विधायक बन सकेगा.
ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि मायावती ने अपने सिद्धांतों से समझौता कर लिया है, लेकिन ये तो माना ही जाएगा कि बीएसपी नेता ने सिद्धांतों में संशोधन जरूर कर लिया है. आनंद कुमार बीएसपी में उपाध्यक्ष के पद पर पुनर्स्थापित कर दिये गये हैं - और उनके बेटे आकाश आनंद को भी पार्टी का राष्ट्रीय समन्वयक बनाया गया है.
मायावती को भी फेमिली पॉलिटिक्स पर लौटना पड़ा, लेकिन क्यों?
मायावती ने मिशन 2022 को ध्यान में रखते हुए बीएसपी में जिम्मेदारियां बांट दी हैं. वैसे 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती के लिए तात्कालिक चुनौती आने वाले उपचुनाव हैं.
यूपी में होने जा रहे उपचुनाव अकेले लड़ने की घोषणा करते हुए मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन को लेकर सस्पेंस बनाया था. मायावती का कहना है कि गठबंधन उपचुनावों के लिए होल्ड पर रहेगा और बाद ठीक लगा तो साथ में चुनाव मैदान में उतरा जा सकता है. मगर, नयी नियुक्तियों के बाद तो यही लगता है कि गठबंधन की अब हर संभावना खत्म हो चुकी है.
मायावती ने राज्य सभा में बीएसपी का नेता सतीशचंद्र मिश्रा को बरकरार रखा है. लोक सभा में बीएसपी का नेता दानिश अली को बनाया गया है. दानिश अली आम चुनाव के ऐन पहले विशेष तौर पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की सहमति से बीएसपी में आये थे.
सवाल ये है कि पारिवारिक राजनीति के खिलाफ सख्ती दिखाने के बाद मायावती को आखिर क्यों भार्ई-भतीजावाद पर ही लौटना पड़ा? भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश आनंद.
एक दौर था जब स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और ब्रजेश पाठक जैसे नेता मायावती के सबसे भरोसेमंद सिपाही और सिपहसालार दोनों ही भूमिकाओं में हुआ करते थे. सभी का काम बंटा हुआ था. हर काम में आखिरी फैसला तो मायावती का ही होता, लेकिन उसे अमल में लाने की जिम्मेदारी इन नेताओं की होती. परिस्थितियां ऐसी हुईं कि एक एक करके सभी साथ छोड़ दिये. स्वामी प्रसाद मौर्य तो यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं, लेकिन नसीमुद्दीन सिद्दीकी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव हार चुके हैं.
ऐसा लगता है कि मायावती ने अखिलेश यादव में भी एक भरोसेमंद सहयोगी देखा होगा और तभी गठबंधन तक बात पहुंची होगी. गठबंधन में सबसे बड़ी बाधा तो अखिलेश का मुलायम सिंह यादव का बेटा होना रहा जो गेस्ट हाउस कांड के बाद जानी दुश्मन बन चुके थे. ये अखिलेश यादव की बदौलत मुमकिन हो पाया कि मायावती ने सारी दुश्मनी भुलाकर मैनपुरी पहुंची और सार्वजनिक रूप से मुलायम सिंह के साथ मंच शेयर किया और उनके लिए वोट मांगे - लोगों ने वोट दिया भी. मुलायम सिंह भी नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने के दिये आशीर्वाद को फलते फूलते साक्षात् देखने के लिए लोक सभा भी पहुंच गये.
अब सवाल ये उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि मायावती को अखिलेश यादव को छोड़ कर फिर से भाई आनंद कुमार को बीएसपी में लाना पड़ा? क्या अखिलेश यादव मायावती के राजनीतिक खांचों में फिट नहीं हो पाये?
मायावती ने ही सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा की और शुरू से आखिर तक हर कदम पर बीएसपी नेता का ही दबदबा दिखा. मायावती आगे आगे और अखिलेश यादव पीछे पीछे चलते देखे गये. सारे फैसलों में मायावती की मनमर्जी और सभी जगह अखिलेश यादव की मजबूरी दिखी. यहां तक कि फायदे में भी मायावती ही रहीं जिनकी लोक सभा सीटें पांच साल में शून्य से 10 पहुंच गयीं. अखिलेश को तो सबसे बड़ा घाटा ये हुआ कि पत्नी डिंपल यादव और एक भाई चुनाव हार गया. सीटें तो पांच की पांच ही रहीं जिनमें खुद वो भी आजमगढ़ से चुनाव जीते हैं.
सारी बातों के बावजूद समाजवादी पार्टी का बीएसपी के साथ गठबंधन हुआ था, कोई विलय जैसी बात नहीं थी. जाहिर है अखिलेश यादव एक पार्टनर के रूप में मायावती की उम्र और अनुभव का लिहाज करते हुए पूरा सम्मान देते होंगे. अखिलेश यादव ने तो कार्यकर्ताओं से कह भी दिया था कि मायावती का सम्मान और अपमान भी समाजवादी पार्टी नेता की तरह ही लिया जाये.
मायावती को अपने तरीके से नेताओं और कार्यकर्ताओं से पेश आने की अरसे से आदत बनी हुई है. ये तो साफ है कि मायावती के लिए अखिलेश यादव के साथ वैसा कम्फर्ट तो नहीं महसूस होता होगा जो बीएसपी काडर के साथ होता है. मायावती को समाजवादी कार्यकर्ताओं से भी परेशानी रही. एक रैली जब समाजवादी कार्यकर्ता लगातार शोर मचाते रहे तो मायावती ने कह डाला कि उन्हें अभी बीएसपी कार्यकर्ताओं से काफी चीजें सीखने की जरूरत है. हो सकता है ये बात अखिलेश यादव नजरअंदाज कर गये हों - लेकिन पत्नी का हार जाना तो बड़ा झटका रहा. भला वो कैसे बर्दाश्त हो पाता. मायावती को जब लगा होगा कि काडर से पेश आने और गठबंधन पार्टनर से डील करने में जमीन आसमान का फर्क है - तभी अपनों की याद आयी होगी.
मायावती 2012, 2014, 2017 और 2019 के चुनाव लगातार हार चुकी हैं. सबसे बुरा अनुभव तो 2014 का रहा जब वो एक भी लोक सभा सीट नहीं जीत पायीं और 2017 में सत्ता में वापसी नहीं हो पायी. 2019 में तो मायावती प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने तक के ख्वाब संजोने लगी थीं - देखना होगा क्या थक हार कर भाई-भतीजावाद की राजनीति में शुमार हो जाने के बाद मायावती का सपना पूरा हो पाता है या नहीं?
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