क्या महबूबा मुफ्ती 'भारत माता की जय' बोलेंगी? उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर ये सवाल पूछा तो शिवसेना ने सामना के एडिटोरियल में इसे उठाया है. ये सवाल उठाया जाना वैसे तो पॉलिटिकल ट्रेंड का हिस्सा है मगर ऐसी ढेरों चुनौतियां हैं जिनसे महबूबा मुफ्ती को दो दो हाथ करने हैं. चुनौतियां तो मुफ्ती मोहम्मद सईद के सामने भी थीं, लेकिन महबूबा के सामने उनकी तादाद कहीं ज्यादा है.
केंद्र के साथ रैपो
महबूबा मुफ्ती ने पूरा टाइम लिया. मुख्यमंत्री पद के उनके स्वाभाविक दावेदार होने के बावजूद जम्मू-कश्मीर में करीब तीन महीने तक गवर्नर रूल कायम रहा. इस दौरान पीडीपी और बीजेपी दोनों ओर से बारगेन की कोशिशें भी हुईं. बीच बीच में वो समझा भी रही थीं कि गठबंधन पर उनके पिता की जबान ही उनकी वसीयत है लेकिन जेएनयू एपिसोड के दौरान कश्मीरी छात्रों के केस से लेकर तमाम मामलों पर भी वो बारगेन करने की कोशिश करती रहीं. पीडीपी की ओर से राज्य में केंद्र की एनर्जी प्रोजेक्ट्स को भी राज्य सरकार के हवाले करने की मांग थी. AFSPA और सेना की जमीन में भी पीडीपी की अपनी मांग थी. इन मामलों में वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या फिर गृह मंत्री राजनाथ सिंह से आश्वासन चाहती थीं. केंद्र की ओर से कोई खास आश्वासन तो दूर ज्यादातर खामोशी ही दिखी.
इसे भी पढ़ें : क्या महबूबा भी बीजेपी से मुफ्ती जैसा रिश्ता निभा पाएंगी?
वे यह जताना चाहती थीं कि सरकार के गठन की गरज उन्हें नहीं, भाजपा को ज्यादा है. और इस तरह शायद वे गठबंधन के एजेंडे को नए सिरे से तय करना चाहती थीं. क्या ऐसा हो पाया? गठबंधन का गतिरोध तब टूटा जब कुछ दिन पहले महबूबा दिल्ली आकर प्रधानमंत्री मोदी से मिलीं और बोलीं - वो संतुष्ट हैं.
पीडीपी ने लाख समझाने की कोशिश की कि गठबंधन बीजेपी की जरूरत ज्यादा है, लेकिन बीजेपी ने भी...
क्या महबूबा मुफ्ती 'भारत माता की जय' बोलेंगी? उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर ये सवाल पूछा तो शिवसेना ने सामना के एडिटोरियल में इसे उठाया है. ये सवाल उठाया जाना वैसे तो पॉलिटिकल ट्रेंड का हिस्सा है मगर ऐसी ढेरों चुनौतियां हैं जिनसे महबूबा मुफ्ती को दो दो हाथ करने हैं. चुनौतियां तो मुफ्ती मोहम्मद सईद के सामने भी थीं, लेकिन महबूबा के सामने उनकी तादाद कहीं ज्यादा है.
केंद्र के साथ रैपो
महबूबा मुफ्ती ने पूरा टाइम लिया. मुख्यमंत्री पद के उनके स्वाभाविक दावेदार होने के बावजूद जम्मू-कश्मीर में करीब तीन महीने तक गवर्नर रूल कायम रहा. इस दौरान पीडीपी और बीजेपी दोनों ओर से बारगेन की कोशिशें भी हुईं. बीच बीच में वो समझा भी रही थीं कि गठबंधन पर उनके पिता की जबान ही उनकी वसीयत है लेकिन जेएनयू एपिसोड के दौरान कश्मीरी छात्रों के केस से लेकर तमाम मामलों पर भी वो बारगेन करने की कोशिश करती रहीं. पीडीपी की ओर से राज्य में केंद्र की एनर्जी प्रोजेक्ट्स को भी राज्य सरकार के हवाले करने की मांग थी. AFSPA और सेना की जमीन में भी पीडीपी की अपनी मांग थी. इन मामलों में वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या फिर गृह मंत्री राजनाथ सिंह से आश्वासन चाहती थीं. केंद्र की ओर से कोई खास आश्वासन तो दूर ज्यादातर खामोशी ही दिखी.
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वे यह जताना चाहती थीं कि सरकार के गठन की गरज उन्हें नहीं, भाजपा को ज्यादा है. और इस तरह शायद वे गठबंधन के एजेंडे को नए सिरे से तय करना चाहती थीं. क्या ऐसा हो पाया? गठबंधन का गतिरोध तब टूटा जब कुछ दिन पहले महबूबा दिल्ली आकर प्रधानमंत्री मोदी से मिलीं और बोलीं - वो संतुष्ट हैं.
पीडीपी ने लाख समझाने की कोशिश की कि गठबंधन बीजेपी की जरूरत ज्यादा है, लेकिन बीजेपी ने भी समझा दिया कि केंद्र के साथ रैपो बनाकर चलना भी महबूबा की मजबूरी है. महबूबा अगर सरकार बनाने को राजी न होतीं तो जो हाथ में है वो भी ज्यादा देर रह पाता, कहना मुश्किल था. महबूबा को ये तो मालूम होगा ही कि बीजेपी को मौके की तलाश होगी. पीडीपी के अंदरूनी कलह का बीजेपी पूरा फायदा उठाना चाहेगी. कांग्रेस शासित राज्यों में बीजेपी का तिकड़म तो वो देख ही रही होंगी.
पीडीपी में अंदरूनी कलह
महबूबा के फाइनल हां कहने से पहले भी उन अफवाहों को काफी हवा दी गई कि सरकार बनाने के मुद्दे पर पीडीपी में बगावत हो सकती है. महबूबा को फैसला लेने में इस अफवाह की भी कुछ न कुछ भूमिका जरूर रही होगी.
इरादा तो है, बस कायनात भी मदद के लिए साजिश रच दे... |
तब की बात और थी. तब महबूबा के विरोधी भी मुफ्ती के चलते पीडीपी के साथ बने रहे. लेकिन अब वो बात नहीं रही. पीडीपी सांसद तारिक हमीद कारा ने तो शपथग्रहण का ही बहिष्कार किया. कारा का आरोप है कि महबूबा ने मंत्रिमंडल में नये चेहरों को जगह नहीं दी. वैसे कारा की मांग थी कि मुफ्ती कैबिनेट के तीन मंत्रियों को नई सरकार से दूर रखा जाए. कारा की नजर में वे तीनों मुफ्ती सरकार के बारे में खराब राय बनने देने के लिए जिम्मेदार रहे.
कोई नई मुसीबत खड़ी न हो जाए इसलिए महबूबा ने उसमें कोई छेड़छाड़ करना उचित नहीं समझा. बिखराव की जद में खड़े कुनबे को महबूबा जब तक बचा लें बड़ी बात होगी.
सहानुभूति और सपोर्ट बेस
अलगाववादियों के साथ महबूबा की सहानुभूति जग जाहिर है. महबूबा आतंकवाद से जुडी हिंसा में मारे गए लोगों के घर जाती रही हैं. रोती बिलखती महिलाओं को गले लगाकर वो उनसे सीधे कनेक्ट रही हैं.
कश्मीर में अमन वापस लाने के पक्षधर रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 1999 में पीडीपी की शुरुआत की. पीडीपी को लोगों से जोड़ने और उसे मजबूत बनाने का श्रेय महबूबा को दिया जाता है. मुफ्ती जहां अपनी प्रो-इंडिया स्वीकार्यता बनाए रखने में सफल रहे वहीं महबूबा अलगाववादियों की भी हमदर्द बनी रहीं - और पीडीपी को युवाओं से खास तौर पर जोड़ने में कामयाब रहीं. अब सत्ता संभालने के बाद अगर वो उनका इंटरेस्ट पूरा नहीं कर पाईं तो वो सपोर्ट भी हाथ से निकल जाएगा. आखिर उन्हीं नीतियों के कारण महबूबा को कुर्सी संभालने में इतना वक्त जाया करना पड़ा.
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पार्टी सांसद कारा के साथ साथ कैबिनेट सहयोगी सज्जाद लोन ने भी महबूबा का झटका दिया है. अलगाववादी से मुख्यधारा के नेता बने सज्जाद लोन पीपुल्स कांफ्रेंस नेता अब्दुल गनी लोन के बेटे हैं. साल 2002 में आतंकवादियों ने लोन की हत्या कर दी थी. नई सरकार में मनमाफिक विभाग न मिलने से खफा सज्जाद ने बीजेपी आलाकमान को अपना इस्तीफा भेज दिया है, इस गुजारिश के साथ कि उसे मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को फॉरवर्ड कर दिया जाए. मुफ्ती सरकार में सज्जाद भेड़ और पशुपालन मंत्री थे, इस बार उन्हें सामाजिक कल्याण विभाग मिला था, जबकि उन्हें स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा की उम्मीद थी.
मुफ्ती ने जो नहीं किया महबूबा को अब वो सब भी करना होगा. मुफ्ती की तरह उन्हें केंद्र के साथ मजबूत रिश्ता और भरोसा तो बनाए रखना ही होगा - आम कश्मीरियों को उम्मीदों पर भी खरा उतना होगा. मुफ्ती के जनाजे में लोगों की कम तादाद ने जो मैसेज देने की कोशिश की महबूबा को उसका भी ख्याल रखना होगा. अलगाववादियों और उनके समर्थक परिवारों की सहानुभूति और समर्थन भी उनके बनाए रखना होगा - वरना, गच्चा देते देर नहीं लगती.
सबसे बड़ी बात अब यही है कि अगर इन चुनौतियों से महबूबा उबर गईं तो बाकियों की लंबे अरसे के लिए छुट्टी कर सकती है. बीजेपी ही नहीं, उमर अब्दुल्ला भी इस बात से नावाकिफ नहीं होंगे.
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