मजदूरों (Migrant Workers)को खुद के लिए रोटी के भले ही लाले पड़े हों, लेकिन वे लोग सियासतदानों की रोजी का लंबा इंतजाम तो कर ही दिये हैं. प्रवासी मजदूरों को लेकर दिल्ली से शुरू हुई राजनीति फिलहाल तो मुंबई, लखनऊ और पटना को एक ही तार से जोड़े हुए है - क्योंकि अब वे एक नये वोट बैंक (Vote Bank) के रूप में स्थापित होने लगे हैं. योगी आदित्यनाथ और उद्धव ठाकरे की नोक झोंक (Political Fight) में राजठाकरे भी कूद पड़े हैं. बिलकुल अपने अंदाज में. भले राज ठाकरे ने योगी आदित्यनाथ के एक्शन पर रिएक्शन दिया है, लेकिन वो उनकी पुरानी राजनीतिक स्टाइल में आसानी से फिट हो जा रहा है.
सोशल मीडिया पर बॉलीवुड एक्टर सोनू सूद मजदूरों के मसीहा बने हुए हैं, लेकिन मजदूरों की घर वापसी से जो जमीनी चुनौती सामने आने वाली है उसे सीधे सीधे दो मुख्यमंत्रियों को ही जूझना है - एक, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरे, बिहार के सीएम नीतीश कुमार.
अब मजदूर भी एक वोट बैंक है
मजदूरों पर चल रही राजनीति का आलम ये है कि मामला ILO यानी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन तक पहुंच चुका है. वजह है कुछ राज्य सरकारों की तरफ से श्रम कानूनों में बदलाव करना. श्रम कानूनों में बदलाव का मकसद भी चीन छोड़ने का मन बना चुकी विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश के लिए आकर्षित करना है. दरअसल, कांग्रेस समर्थित संगठन NTC, लेफ्ट समर्थित संगठन CIT-AITC और HMS, AITC, TCC, SEWA, AICCT, LPF और TC जैसे संगठनों ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन को पत्र लिखकर अपील की थी कि श्रम कानूनों में बदलाव को रोका जाये - और उसी के आधार पर संगठन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, पत्र में लिखा है कि अंतर्राष्टीय समुदाय के सामने मजदूरों को लेकर भारत ने जो प्रतिबद्धता जतायी है उसका पालन करना चाहिये. श्रम कानूनों में हुए बदलाव का विरोध तो RSS के भारतीय मजदूर संघ ने भी किया है और उसका असर भी हुआ है. यूपी और राजस्थान सरकारों ने 8 घंटे की जगह 12 घंटे की शिफ्ट का आदेश वापस ले लिया है. खास बात ये है कि जिस भारतीय मजदूर संघ के विरोध का असर हु्आ है वो ILO के पास शिकायत दर्ज कराने वालों में शामिल नहीं था.
मजदूरों (Migrant Workers)को खुद के लिए रोटी के भले ही लाले पड़े हों, लेकिन वे लोग सियासतदानों की रोजी का लंबा इंतजाम तो कर ही दिये हैं. प्रवासी मजदूरों को लेकर दिल्ली से शुरू हुई राजनीति फिलहाल तो मुंबई, लखनऊ और पटना को एक ही तार से जोड़े हुए है - क्योंकि अब वे एक नये वोट बैंक (Vote Bank) के रूप में स्थापित होने लगे हैं. योगी आदित्यनाथ और उद्धव ठाकरे की नोक झोंक (Political Fight) में राजठाकरे भी कूद पड़े हैं. बिलकुल अपने अंदाज में. भले राज ठाकरे ने योगी आदित्यनाथ के एक्शन पर रिएक्शन दिया है, लेकिन वो उनकी पुरानी राजनीतिक स्टाइल में आसानी से फिट हो जा रहा है.
सोशल मीडिया पर बॉलीवुड एक्टर सोनू सूद मजदूरों के मसीहा बने हुए हैं, लेकिन मजदूरों की घर वापसी से जो जमीनी चुनौती सामने आने वाली है उसे सीधे सीधे दो मुख्यमंत्रियों को ही जूझना है - एक, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरे, बिहार के सीएम नीतीश कुमार.
अब मजदूर भी एक वोट बैंक है
मजदूरों पर चल रही राजनीति का आलम ये है कि मामला ILO यानी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन तक पहुंच चुका है. वजह है कुछ राज्य सरकारों की तरफ से श्रम कानूनों में बदलाव करना. श्रम कानूनों में बदलाव का मकसद भी चीन छोड़ने का मन बना चुकी विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश के लिए आकर्षित करना है. दरअसल, कांग्रेस समर्थित संगठन NTC, लेफ्ट समर्थित संगठन CIT-AITC और HMS, AITC, TCC, SEWA, AICCT, LPF और TC जैसे संगठनों ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन को पत्र लिखकर अपील की थी कि श्रम कानूनों में बदलाव को रोका जाये - और उसी के आधार पर संगठन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, पत्र में लिखा है कि अंतर्राष्टीय समुदाय के सामने मजदूरों को लेकर भारत ने जो प्रतिबद्धता जतायी है उसका पालन करना चाहिये. श्रम कानूनों में हुए बदलाव का विरोध तो RSS के भारतीय मजदूर संघ ने भी किया है और उसका असर भी हुआ है. यूपी और राजस्थान सरकारों ने 8 घंटे की जगह 12 घंटे की शिफ्ट का आदेश वापस ले लिया है. खास बात ये है कि जिस भारतीय मजदूर संघ के विरोध का असर हु्आ है वो ILO के पास शिकायत दर्ज कराने वालों में शामिल नहीं था.
मजदूरों के बीच सोनू सूद वैसे ही हीरो बने हुए हैं, जैसा पटना में जब बाढ़ आयी थी तो मदद में हाजिर दो ही हाथ नजर आ रहे थे - और वे दोनों ही पप्पू यादव के थे. शहर के हर इलाके में नाव लेकर दूध और दवाइयां पहुंचा रहे पप्पू यादव ने जो किया उसे लोग शायद भूल भी चुके होंगे. वैसे सोनू सूद ने बताया है कि वो मजदूरों की मदद के लिए एक टोल फ्री हेल्पलाइन भी शुरू करने वाले हैं.
सोनू सूद ने आज तक को बातचीत में बताया है कि वो करीब 1000 मजदूरों को घर भेज चुके हैं. सभी तो नहीं लेकिन इनमें ज्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं. जितने मजदूर लौटे हैं वे तो इसके कई गुना हैं. रिपोर्ट के मुताबिक यूपी में अब तक ट्रेन और बस से 23 लाख और बिहार में दस लाख मजदूर लौट चुके हैं - और ये सिलसिला अभी थमा नहीं है.
मान कर चलना होगा अब मजदूर एक अलग वोट बैंक के तौर पर उभर रहा है. मजदूरों के बहाने तमाम तरफ से जो राजनीतिक बयानबाजी हो रही है, वो कुछ और नहीं बल्कि आने वाले वक्त के वोटों की छीनाझपटी का ही तस्वीर है.
अभी योगी आदित्यनाथ और उद्धव ठाकरे के बीच मजदूरों को लेकर संजय राउत के माध्यम से तू-तू मैं-मैं चल ही रही थी कि अब उसमें थोड़ी सी जगह पाकर राज ठाकरे भी एंट्री मार चुके हैं. MNS नेता की भूमिका तो बहती गंगा में हाथ धोने जैसी ही है, लेकिन वो उनकी पॉलिटिकल लाइन को काफी सूट कर रहा है.
सामना में संजय राउत ने यूपी के मुख्यमंत्री की हिटलर से तुलना की थी तो योगी आदित्यनाथ से उद्धव ठाकरे को मजदूरों की सौतेली मां जैसा बताते हुए कहा था कि वे कभी माफ नहीं करेंगे. बात थोड़ी आगे बढ़ी और योगी आदित्यनाथ भी एक्शन में दो कदम आगे निकल गये. बोले, आगे से किसी भी राज्य सरकार को मजदूरों के लेने के लिए यूपी सरकार से बाकायदा परमिशन लेनी पड़ेगी. योगी आदित्यनाथ की इसी बात पर राज ठाकरे को भी मौका मिल गया.
राज ठाकरे कह रहे हैं कि अगर कामगारों के लिए यूपी सरकार से इजाजत लेनी होगी तो आगे से बाहरी मजदूरों के महाराष्ट्र में काम करने के लिए सरकार और महाराष्ट्र पुलिस से इजाजत लेनी होगी. बगैर इसके वे महाराष्ट्र में काम नहीं कर पाएंगे और ये बात योगी आदित्यनाथ को ध्यान में रखनी होगी. राज ठाकरे की राजनीतिक स्टाइल तो मराठी बनाम बाहरी को लेकर ही रही है और धीरे धीरे वो फेल भी होती गयी है.
राज ठाकरे ने ट्विटर पर एक बयान जारी कर कहा है, 'महाराष्ट्र सरकार को इस बात पर गंभीरता से ध्यान देना होगा की आगे से कामगारों को लाते वक्त सबका रजिस्ट्रेशन हो - और पुलिस स्टेशन में उनकी तस्वीर और प्रमाण पत्र हों... शर्तों के साथ ही उन्हें महाराष्ट्र में घुसने दिया जाये.'
हाल फिलहाल राज ठाकरे की राजनीति भीड़ में खो सी गयी थी, लेकिन प्रवासी मजदूरों के नाम पर नये सिरे से सक्रिय होने का मौका तो मिल ही गया है. प्रवासी मजदूर राज ठाकरे के वोट बैंक भले ही न बन पायें, लेकिन उनकी वाली राजनीति को फिर से जिंदा तो कर ही सकते हैं. ये भी हो सकता है कि अगर कुछ कामगार यूपी या बिहार नहीं लौटे और जैसे तैसे महाराष्ट्र में ही टिके रहे तो राज ठाकरे के लोग फिर से उत्पात मचाएंगे. ये भी राजनीतिक टकराव का कारण बनेगा और मजदूरों को लड़ाई में पिसना भी पड़ सकता है.
ये प्रवासी मजदूरों का ही मामला है जो प्रियंका गांधी भी राजनीति का मौका दे रहा है और राहुल गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक बारी बारी हाथ आजमा रहा है. प्रियंका गांधी चुनावों में मजदूरों को याद दिलाएंगी कि कैसे योगी आदित्यनाथ ने उनकी 1000 बसों में बैठने से रोक दिये. राहुल गांधी भी 16 मजदूरों को सोनू सूद की ही तरह उनके घर तक तो पहुंचा ही दिये हैं - और कांग्रेस शासन वाले राज्यों के रेलवे स्टेशनों पर मजदूरों को जाते जाते बता ही दिया जा रहा है कि उनके टिकट के पैसे सोनिया गांधी ने दिये हैं. जाहिर है सुन कर तो मजदूरों को ऐसा लगता ही होगा कि चुनावों में टिकट के पैसे वसूलने कांग्रेस नेता तो उनके पास पहुंचेंगे ही.
जिन मजदूरों के लिए लॉकडाउन के बाद से योगी आदित्यनाथ लगातार जूझ रहे हैं, वे कभी कांग्रेस के वोट बैंक हुआ करते थे. बाद में जातीय आधार पर अखिलेश यादव और मायवती की पार्टियों ने बांट लिये थे, लेकिन अब उन पर बीजेपी अपना हक जताने वाली है. मायावती और अखिलेश यादव तो वैसे भी बीजेपी और कांग्रेस को अपने हिसाब से बांट ही चुके हैं.
अभी तक चुनाव में धर्म और जाति के आधार पर बने वोट बैंक तो थे ही, आगे से प्रवासी मजदूरों के साथ भी एक वोट बैंक जैसा ही व्यवहार होने वाला है. सबसे बड़ी समस्या तो उनके साथ ये है कि उनको पहले काम मिल पाएगा या वोट देने के बाद ही. बिहार में तो चुनाव इसी साल है, लेकिन यूपी में तारीख दो साल बाद आने वाली है.
वोट तो वे देंगे ही काम क्या मिलेगा?
जो भी मजदूर लौट चुके हैं, भले ही वे घर न पहुंचे हों और क्वारंटीन सेंटर में वक्त गुजार रहे हों लेकिन वे इतने भर से भी बेहद खुश है और खुद को खुशनसीब मान कर चल रहे हैं. बदनसीब तो वे रहे जो रास्ते में ही रह गये, हमेशा के लिए. कहीं ट्रेन से कट कर तो कहीं ट्रक या बस के नीचे कुचल कर. कइयों ने तो पैदल चलते चलते ही दम तोड़ दिया.
मजदूरों के सामने अब यक्ष प्रश्न तो यही है कि काम कहां मिलेगा और क्या करेंगे? काम का संकट यूपी और बिहार दोनों ही राज्यों में होने वाला है. यूपी में योगी आदित्यनाथ तो लगे ही हैं, अब नीतीश कुमार भी बिहार लौटे मजदूरों से मुखातिब हो रहे हैं. मजबूरी भी है विधानसभा के इम्तिहाना की तारीख जो तेजी से नजदीक आती जा रही है.
मजदूरों से बातचीत के दौरान नीतीश कुमार कह रहे हैं - हमारी इच्छा है कि सभी को यहीं रोजगार मिले, किसी को अकारण बाहर नहीं जाना पड़े. भरोसा भी दिला रहे हैं, 'हम सब के रोजगार की यहीं व्यवस्था करेंगे. बिहार का और विकास होगा इसलिए सभी लोग बिहार के विकास में भागीदार बनें.'
अव्वल तो नीतीश कुमार किसी को लौटने देने के पक्ष में ही नहीं लगते थे, लेकिन अब करें तो क्या करें. मुसीबत ऐसे वक्त गले पड़ चुकी है जब सिर पर चुनाव का टेंशन मंडरा रहा है. वैसे नीतीश कुमार अपने अफसरों को मजदूरों के लिए काम के इंतजाम के उपाय खोजने पर लगा भी चुके हैं. नीतीश कुमार को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो 20 लाख करोड़ का पैकेज दिया है उसकी बदौलत काम के इंतजाम किये जा सकते हैं.
लौटने वाले भले ही प्रवासी मजदूर के तौर पर प्रचारित किये जा रहे हों, लेकिन ऐसा नहीं है कि सब के सब किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर दिहाड़ी मजदूर थे या ऐसे ही रोजदारी पर काम कर रहे थे. लौटने वालों में तमाम ऐसे लोग हैं जो अच्छे से परिवार के साथ गुजारा कर पाते रहे, लेकिन जब काम ही बंद हो गया तो काम देने वाले से लेकर किराये पर ठिकाना देने वाले सभी ने मुंह मोड़ लिये और लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा. मतलब ऐसा भी नहीं है कि नीतीश कुमार मनरेगा में और ईंट भट्टों पर सबको काम देने के बारे सोच रहे हैं तो ये नहीं चलने वाला.
यूपी को लेकर तो खबर रही कि योगी आदित्यनाथ ने कई लोगों की टीम बनायी हुई है. चीन से कारोबार समेटने का मन बना चुकीं अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के लिए तीन डेस्क भी बना रखे हैं और 20 लाख लोगों को रोजगार देने का लक्ष्य रखा गया है. श्रम कानूनों में बदलाव की वजह भी यही रही, लेकिन अब तो वो भी विरोध के चलते वापस ले चुके हैं.
घर लौटने की खुशी का ये जोश ऐसे कुछ दिन तो चल जाएगा, लेकिन लंबे वक्त तक काम नहीं मिला तो अपराध भी बढ़ेंगे. जरूरी है कि वो नौबत आने से पहले सबके लिए काम का इंतजाम कर लिया जाये.
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