डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि का निधन 7 अगस्त को हुआ था और उसके ठीक इक्कीस दिन बाद 28 अगस्त को उनके बेटे एम.के. स्टालिन ने ऑफिशियल तौर पर पार्टी की कमांड अपने हाथों में ले ली. वे डीएमके के अध्यक्ष पद पर काबिज हो गए. स्टालिन जनवरी 2017 से पार्टी में कार्यकारी अध्यक्ष पद पर थे. डीएमके के इतिहास में स्टालिन पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने वाले दूसरे ही नेता हैं. इससे पहले करुणानिधि 49 साल तक पार्टी के अध्यक्ष रहे थे. करुणानिधि के निधन के बाद स्टालिन का पार्टी अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा था. हालांकि स्टालिन को अपने बड़े भाई अलागिरि के विरोध का सामना जरूर करना पड़ा है. उन्हें निर्विरोध रूप से अध्यक्ष चुना गया, जिससे ये बिलकुल प्रतीत होता है कि पार्टी के ज्यादातर नेता और कैडर उनके साथ हैं.
लेकिन डीएमके के अध्यक्ष पद में काबिज होना, उनके लिए कई चुनौतियों की सौगात लाया है. इनको पार पाने के लिए उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा. जितना बड़ा अध्यक्ष पद है उससे बड़ी उनकी चुनौतियां नजर आती हैं.
तात्कालिक चुनौती
सबसे बड़ी और तात्कालिक चुनौती है पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच अनुशासन बनाए रखने की, उन्हें बांध के रखने की. पार्टी के कुछ नेताओं ने पार्टी के स्थानियों नेताओं को बर्खास्त करने में उनके अधिनायकवाद निति की झलक देखी है. अलागिरि 5 सितम्बर को अपना दमखम दिखाने जा रहे हैं. अपने पार्टी कैडर को एकजुट रखना स्टालिन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होगी.
चुनावी मोर्चे में अच्छा प्रदर्शन करना
चुनावी मोर्चे में मजबूत प्रदर्शन करने के लिए उनपर भरी दबाव रहेगा. वे 2017 से ही डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में जिम्मेवारी...
डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि का निधन 7 अगस्त को हुआ था और उसके ठीक इक्कीस दिन बाद 28 अगस्त को उनके बेटे एम.के. स्टालिन ने ऑफिशियल तौर पर पार्टी की कमांड अपने हाथों में ले ली. वे डीएमके के अध्यक्ष पद पर काबिज हो गए. स्टालिन जनवरी 2017 से पार्टी में कार्यकारी अध्यक्ष पद पर थे. डीएमके के इतिहास में स्टालिन पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने वाले दूसरे ही नेता हैं. इससे पहले करुणानिधि 49 साल तक पार्टी के अध्यक्ष रहे थे. करुणानिधि के निधन के बाद स्टालिन का पार्टी अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा था. हालांकि स्टालिन को अपने बड़े भाई अलागिरि के विरोध का सामना जरूर करना पड़ा है. उन्हें निर्विरोध रूप से अध्यक्ष चुना गया, जिससे ये बिलकुल प्रतीत होता है कि पार्टी के ज्यादातर नेता और कैडर उनके साथ हैं.
लेकिन डीएमके के अध्यक्ष पद में काबिज होना, उनके लिए कई चुनौतियों की सौगात लाया है. इनको पार पाने के लिए उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा. जितना बड़ा अध्यक्ष पद है उससे बड़ी उनकी चुनौतियां नजर आती हैं.
तात्कालिक चुनौती
सबसे बड़ी और तात्कालिक चुनौती है पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच अनुशासन बनाए रखने की, उन्हें बांध के रखने की. पार्टी के कुछ नेताओं ने पार्टी के स्थानियों नेताओं को बर्खास्त करने में उनके अधिनायकवाद निति की झलक देखी है. अलागिरि 5 सितम्बर को अपना दमखम दिखाने जा रहे हैं. अपने पार्टी कैडर को एकजुट रखना स्टालिन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होगी.
चुनावी मोर्चे में अच्छा प्रदर्शन करना
चुनावी मोर्चे में मजबूत प्रदर्शन करने के लिए उनपर भरी दबाव रहेगा. वे 2017 से ही डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में जिम्मेवारी निभा रहे हैं. एक तरह से कहे तो उनके नेतृत्व में ही आरके नगर विधानसभा उपचुनाव लड़ा गया था और जिसमें उनकी पार्टी को करारी हार मिली थी. उन्होंने 2016 के राज्य के विधानसभा चुनावों में भी मुख्य भूमिका निभाई थी. हालांकि डीएमके ने पिछले चुनाव की अपेक्षा अपनी सीटों में सुधार किया लेकिन फिर भी विरोधी लहर और 2015 चेन्नई बाढ़ में सरकार की नाकामी का फायदा लेने में असफल रही. जयललिता के निधन के बाद और एआईएडीएमके में सत्ता संघर्ष के बीच तमिलनाडु की राजनीति में अपना स्थान बनाने में नाकामयाब रही. उनकी पार्टी पर ये आरोप भी लगा कि वे सार्थक विपक्ष की भूमिका निभाने में असफल रहे.
तमिलनाडु में चुनावी परिदृश्य अब बदल गया है. चुनावी समर डीएमके, एआईएडीएमके और दिनाकरन के एएमएमके के बीच त्रिकोण लड़ाई में बदलता जा रहा है. अब चुनौती यह है कि आने वाले 2 सीटों के विधानसभा उपचुनाव में पार्टी का परचम फहराया जा सके. करूणानिधि के निधन के बाद तिरूवरूर और एआईएडीएमके के बोस के निधन के बाद तिरुपरंकुन्द्रम में उपचुनाव होने हैं. जो इन चुनावों में विजय होगा वो तमिलनाडु के भावी राजनीति की दिशा तय करेगा. 2019 लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव उनपर रहेगा.
अलागिरी से निपटने की चुनौती
पार्टी के अंदर अलागिरी उनके लिए चैलेंज नहीं हैं, लेकिन बाहर से वे उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं. आने वाले चुनावों में वो स्टालिन के विरुद्ध जाकर डीएमके के वोट बैंक को नुकसान पहुंचा सकते हैं.
करूणानिधि के शैडो (छाया) से बाहर आना
स्टालिन की तुलना हमेशा करुणानिधि से की जाएगी. वे हमेशा समीक्षकों के राडार पर रहेंगे. स्टालिन को अपने पिता की छाया से बाहर आने में कुछ समय लग सकता है. आने वाले समय में उनकी पार्टी का प्रदर्शन उस छाया से बाहर आने में मदद कर सकता है. उनको परिवार के सदस्य और पार्टी में बैलेंस बनाकर चलना होगा. स्टालिन की आलोचना हुई थी जब उनका बेटा पार्टी के पोस्टर और कार्यकर्मों में खूब दिखने लगा था.
गठबंधन पार्टियों से अच्छे सम्बन्ध बनाना
स्टालिन को अपने गठबंधन साझीदारों के साथ अच्छे समीकरण विकसित करने होंगे. करुणानिधि ने सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ सौहार्दपूर्ण व्यक्तिगत संबंध बनाए रखे थे. उन्होंने हमेशा अपने गठबंधन के नेताओं के लिए खुद को उपलब्ध रखा था. स्टालिन को ठीक उनके विपरीत माना जाता है.
स्टालिन के लिए चुनौतियां अनेक हैं. आने वाले समय में अब देखना ये है कि द्रविड़ पॉलिटिक्स में उनके नेतृत्व में डीएमके शीर्ष पर पहुंच पाती है कि नहीं. उम्मीद उनपर काफी है, कितना खरा उतरते हैं ये देखने वाली बात होगी.
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