नागरिकता कानून के विरोध (CAA protest) को लेकर शाहीन बाग (Shaheen Bagh) समेत देशभर में तनाव रहा, प्रदर्शन हुए. और फिर उत्तर-पश्चिमी दिल्ली में वो भी हो गया, जिसकी आशंका साफ नजर आ रही थी. दिल्ली दंगे (Delhi riots 2020) में मारे गए 40 से अधिक लोगों की ओर से पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) और उनकी सरकार आखिर दंगे की आशंका को भांपने में क्यों नाकाम रही. CAA से जुड़ी अफवाहों को क्यों फैलने दिया? और यदि अफवाह रोकने के प्रयास किए भी, तो वे नाकाफी क्यों रह गए? उकसावे वाले बयान देने के मामले में मोदी सरकार की नीति ढीली क्यों रही? और सबसे बड़़ी़ बात कि माहौल में घुले जहर का इलाज करने के लिए अब भी क्या मोदी सरकार के पास कोई रणनीति है?
इन सवालों के जवाब हम सबके पास हैं. जो एक निष्कर्ष की ओर ले जाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और उनकी सरकार बड़े फैसले लेने का साहस तो रखती है, लेकिन उन फैसलों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो होगा, उसको लेकर इस सरकार के पास कोई खास रणनीति नहीं होती है. आइए, कुछ उदाहरण के साथ इन दलीलों को समझते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी को पहले से ही पक्का यकीन था कि 23 मई, 2019 के बाद भी केंद्र की सत्ता की बागडोर बीजेपी के हाथ में ही होने जा रही है. लिहाजा वो भावी सरकार के फैसलों (Modi govt big decisions) को ध्यान में रखकर चुनावी वादे भी करते गये - और चुनाव जीतने के बाद तो पूरे भी करने थे. आम चुनाव सिर पर थे और घरेलू से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक तमाम चुनौतियां बनी हुई थीं और तभी पुलवामा में आंतकी हमला हो गया. देश गुस्से से उबल ही रहा था और सरकार ने भी आव न देखा ताव बालाकोट एयर स्ट्राइक कर डाला - बगैर इस बात की परवाह किये कि पाकिस्तान दुनिया भर में उसे कैसे भुनाने की कोशिश करेगा? हुआ भी कुछ वैसा ही, इमरान खान को हीरो बनने का पूरा मौका मिल गया - और उसे काउंटर करने के लिए राजनयिकों को दिन-रात कर कर मोर्चा संभालना पड़ा.
सत्ता में वापसी के 100 दिन...
नागरिकता कानून के विरोध (CAA protest) को लेकर शाहीन बाग (Shaheen Bagh) समेत देशभर में तनाव रहा, प्रदर्शन हुए. और फिर उत्तर-पश्चिमी दिल्ली में वो भी हो गया, जिसकी आशंका साफ नजर आ रही थी. दिल्ली दंगे (Delhi riots 2020) में मारे गए 40 से अधिक लोगों की ओर से पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) और उनकी सरकार आखिर दंगे की आशंका को भांपने में क्यों नाकाम रही. CAA से जुड़ी अफवाहों को क्यों फैलने दिया? और यदि अफवाह रोकने के प्रयास किए भी, तो वे नाकाफी क्यों रह गए? उकसावे वाले बयान देने के मामले में मोदी सरकार की नीति ढीली क्यों रही? और सबसे बड़़ी़ बात कि माहौल में घुले जहर का इलाज करने के लिए अब भी क्या मोदी सरकार के पास कोई रणनीति है?
इन सवालों के जवाब हम सबके पास हैं. जो एक निष्कर्ष की ओर ले जाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और उनकी सरकार बड़े फैसले लेने का साहस तो रखती है, लेकिन उन फैसलों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो होगा, उसको लेकर इस सरकार के पास कोई खास रणनीति नहीं होती है. आइए, कुछ उदाहरण के साथ इन दलीलों को समझते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी को पहले से ही पक्का यकीन था कि 23 मई, 2019 के बाद भी केंद्र की सत्ता की बागडोर बीजेपी के हाथ में ही होने जा रही है. लिहाजा वो भावी सरकार के फैसलों (Modi govt big decisions) को ध्यान में रखकर चुनावी वादे भी करते गये - और चुनाव जीतने के बाद तो पूरे भी करने थे. आम चुनाव सिर पर थे और घरेलू से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक तमाम चुनौतियां बनी हुई थीं और तभी पुलवामा में आंतकी हमला हो गया. देश गुस्से से उबल ही रहा था और सरकार ने भी आव न देखा ताव बालाकोट एयर स्ट्राइक कर डाला - बगैर इस बात की परवाह किये कि पाकिस्तान दुनिया भर में उसे कैसे भुनाने की कोशिश करेगा? हुआ भी कुछ वैसा ही, इमरान खान को हीरो बनने का पूरा मौका मिल गया - और उसे काउंटर करने के लिए राजनयिकों को दिन-रात कर कर मोर्चा संभालना पड़ा.
सत्ता में वापसी के 100 दिन पूरे होते होते मोदी सरकार 2.0 ने एक के बाद एक ताबड़तोड़ फैसलों (Article 370 and CAA) की झड़ी लगा दी - धारा 370, APA, तीन तलाक और बैंकों का विलय. ये ऐसे फैसले रहे जिन्हें पूरा करने के वादे के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में लौटे थे, लेकिन बिगड़ती अर्थव्यवस्ता की तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी. जब GDP 5.0 से नीचे पहुंच गया तो भी सरकार बेपरवाह अपने काम में लगी रही.
अपनी स्पीड में रफ्तार भरते हुए मोदी-शाह की जोड़ी ने एक झटके में ही नागरिकता (संशोधन) कानून (CAA) भी संसद से पास करा डाला - और तत्काल ही नोटिफिकेशन जारी कर लागू भी कर दिया गया. बाद में जो हो रहा है वो तो सबके सामने ही है.
CAA का विरोध नहीं थमा, लेकिन मलाल नहीं
11 दिसंबर, 2019 को संसद से बिल पास होने और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी के बाद 10 जनवरी को नोटिफिकेशन जारी हुआ और नागरिकता कानून पूरे देश में लागू भी हो गया. ये वो समय था जब दिल्ली में चुनावों की तैयारी तेज हो चली थी और पूरे देश में जगह जगह CAA के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और फिर काबू पाने के लिए पुलिस एक्शन हो रहा था. विरोध प्रदर्शन के दौरान देश भर में 27 लोगों की मौत हो गयी जिनमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश के लोग थे.
उत्तर प्रदेश में जब हालात बेकाबू होने को लेकर जांच पड़ताल हुई तो पता चला एहतियाती उपाय वक्त रहते नहीं किये जाने से मामला बिगड़ता गया. एहतियाती उपाय क्यों नहीं हो पाये, इस पर रिपोर्ट तलब हुई तो पता चला पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की तनातनी से देर हुई - क्योंकि पुलिस अफसरों को जिलाधिकारी का मुंह देखना पड़ता था. फिर फैसला हुआ कि यूपी में भी कमिश्नरी सिस्टम लागू किया जाये. तब जाकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सबसे पहले लखनऊ और नोएडा में पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति को हरी झंडी दी - और कामकाज नये तरीके से शुरू हुआ.
ये तो एक नमूना भर है - CAA विरोध को हैंडल करने में मोदी सरकार कदम कदम पर परेशान दिखी, भले ही योगी आदित्यनाथ जैसे बयान बहादुर नेता कह डालते रहे - 'जो मरने के लिए आए वो मरेगा ही...' इसमें भी बिलकुल उनका एनकाउंटर वाला ही अंदाज देखने को मिला.
CAA का विरोध सड़क पर भी लोग करते रहे और राजनीतिक विरोध भी लामबंद होता रहा. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के अलावा प्रशांत किशोर ने भी गैर बीजेपी मुख्यमंत्रियों को खड़ा करने की पूरी कोशिश की. रामलीला मैदान से तो सोनिया गांधी ने भी बोल ही दिया था - ये घरों से निकल कर विरोध करने का वक्त है.
केरल की लेफ्ट सरकार और पंजाब सरकार ने तो CAA के विरोध में प्रस्ताव भी पास किया और सुप्रीम कोर्ट में भी अपील दायर की गयी - बाकी शाहीन बाग तो विरोध का सबसे बड़ा सेंटर बन ही चुका है.
CAA लागू करके मोदी-शाह ने बीजेपी समर्थकों का जोश तो बरकरार रखा है, लेकिन इसके विरोध में शुरू हुए शाहीन बाग को मुद्दा बनाकर बीजेपी ने दिल्ली में भी चुनावी बाजी गंवा दी - लेकिन कोई मलाल नहीं लगता. बिहार से तो बीजेपी बेफिक्र है, लेकिन मिसाल तो महाराष्ट्र गठबंधन भी है - और हरियाणा-झारखंड के चुनाव नतीजे भी.
शाहीन बाग पर देर और अंधेर क्यों?
शाहीन बाग की बुनियाद ही CAA विरोध पर टिकी है - और शाहीन बाग के प्रदर्शन दिल्ली चुनावों में मुद्दा बनाने में बीजेपी नेतृत्व और बाकी नेताओं ने कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन पूरा दांव उलटा पड़ गया. इस बार तो अरविंद केजरीवाल ने ये भी नहीं समझाया कि कोई उन्हें परेशान भी कर रहा है. वो तो सिर्फ यही बताते रहे कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बस काम करती रही - और करती रहेगी.
बीजेपी ने शाहीन बाग को चुनावी मुद्दा बना कर अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को उलझाना जरूर चाहा, लेकिन वे बड़े चालाक निकले. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के दिशानिर्देश पर अरविंद केजरीवाल ऐसी चाल चलते गये कि बीजेपी की सारी चालें बगैर कोई असर छोड़े ही चलती बनीं. आगे पीछे की राजनीति छोड़ दें तो ये तो मान ही सकते हैं कि बीजेपी नेतृत्व अरविंद केजरीवाल की चाल नहीं समझ सका और सारे प्रयोग बैकफायर करते गये.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शाहीन बाग को यूपी चुनावों की तरह श्मशान और कब्रिस्तान के कंसेप्ट में फिट करने की कोशिश की, मगर अफसोस, सारी कवायद बेकार गयी. खुद प्रधानमंत्री मोदी ने शाहीन बाग को संयोग और प्रयोग के हिसाब से लोगों को समझाने की कोशिश की, यूपी और बिहार से आये लोगों ने भी दिल्ली में ऐसी बातों को अनसुना कर दिया.
सबसे बुरी बात तो ये हुई कि शाहीन बाग की बहस हिंसा की तरफ बढ़ी और जंगल में लगने वाली आग से भी तेज दिल्ली में दंगे फैल गये. जान-माल के नुकसान के साथ जब कानून-व्यवस्था भी कंट्रोल के बाहर होने लगी तो गृह मंत्री अमित शाह हरकत में आये और NSA अजीत डोभाल और IPS अफसर एसएन श्रीवास्तव को स्पेशल कमिश्नर बनाकर फील्ड में उतारा - और तब कहीं जाकर चीजें बेहतरी की तरफ बढ़ती दिखायी दीं.
शाहीन बाग की मुश्किल को जानते समझते हुए भी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दूरी बनाये रखी, लेकिन ये जानते हुए भी कि दिल्ली पुलिस की रिपोर्टिंग के चलते सारी जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर ही आएगी - तीन दिन तक सब कुछ अपनी हालत पर छोड़ दिया गया.
शाहीन बाग का मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है और सुनवाई की अगली तारीख में अभी महीने भर का वक्त है - क्या शाहीन बाग की गंभीरता को पहले ही समझ कर दिल्ली दंगों को टाला नहीं जा सकता था? और शाहीन बाग भी तो आखिर CAA की ही देन है - कोई बीच का रास्ता क्यों नहीं निकाला गया या फिर लागू करने का कोई कारगर तरीका क्यों नहीं खोजा गया?
बीजेपी नेताओं की बेलगाम बयानबाजी
दिल्ली में चुनावों के दौरान तो बीजेपी नेताओं की बयानबाजी विवादों का कारण बनती ही रही, बाद में कपिल मिश्रा के भड़काऊ बयान को दिल्ली के दंगों से जोड़ा जाने लगा है. सुप्रीम कोर्ट ने तो दिल्ली पुलिस को फटकार लगायी ही, दिल्ली हाई कोर्ट ने तो कपिल मिश्रा के साथ साथ बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के वीडियो क्लिप भी अदालत में देखे - और पुलिस को सोच समझ कर एक्शन लेने का निर्देश दिया. बाद में भले ही जस्टिस मुरलीधरन के तबादले के बाद हुई सुनवाई में FIR के लिए पुलिस को मिली मोहलत बढ़ा दी गयी हो, लेकिन पुलिस को कार्रवाई तो करनी ही है.
दिल्ली चुनाव के दौरान भी बीजेपी नेताओं के खिलाफ इलेक्शन कमिशन एक्शन लेता ही रहा - और बाद में खुद अमित शाह ने भी माना कि नेताओं के बयान से चुनाव नतीजों पर फर्क पड़ा और बीजेपी हार गयी. अमित शाह ने ये भी माना था कि विपक्ष ने उनके भी '...शाहीन बाग तक करंट लगे!' वाले बयान को मुद्दा बना दिया.
जब सब समझ भी आ रहा था तो कपिल मिश्रा के बयान पर क्या बीजेपी की तरफ से एक्शन नहीं लिया जा सकता था? जब साध्वी ऋतंभरा से माफी मंगवायी जा सकती है तो कपिल मिश्रा के खिलाफ एक्शन क्यों नहीं लिया जा सकता था?
जब कपिल मिश्रा के खिलाफ दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी और बीजेपी सांसद गौतम गंभीर भी आवाज उठा चुके हैं, उसके बाद भी जो खामोशी बरती जा रही है, वो क्या है?
धारा 370 के बाद कश्मीर के हालात
धारा 370 को संसद ने खत्म कर दिया. ये बीजेपी के चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा रहा और इसके साथ ही मोदी-शाह ने देश भर के लोगों से किया चुनावी वादा भी पूरा कर लिया - लेकिन उसके बाद जो हालात बने हुए हैं, ऐसा तो नहीं लगता जैसे मोदी सरकार ने उसे हैंडल करने की पहले से कोई तैयारी की हो.
संसद में ये प्रस्ताव लाये जाने से पहले भारी मात्रा में सुरक्षा बलों की तैनाती हुई. स्थानीय प्रशासन की तरफ से तमाम तरह की पाबंदिया लगायी हुई हैं और क्षेत्रीय नेताओं प्रशासन ने नजरबंद कर रखा है और उन पर कई तरह की कानूनी कार्रवायी भी हुई है. नेताओं के लिए तो ये राजनीतिक लड़ाई है, लेकिन आम अवाम के लिए?
बेशक अलगाववादियों से सख्ती से निबटा जाना चाहिये. बेशक अलगाववादियों को समर्थन देने वालों से भी वैसे ही पेश आना चाहिये, लेकिन जनता? भला जनता क्यों पिसती रहे?
धारा 370 खत्म किये जाने के बाद सरकार की तरफ से जो आश्वासन दिये गये थे. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने लोगों के बीच जाकर सरकार का जो संदेश और भरोसा दिलाया था - हकीकत कभी समझने की कोशिश की गयी?
अगर सख्ती से कानून-व्यवस्था लागू करना सरकार की जिम्मेदारी है तो जनता के कल्याण की फिक्र भी सरकार की ही जिम्मेदारी है. आज के जमाने में जब ज्यादातर काम इंटरनेट के मोहताज हों - लोगों का संघर्ष लंबा नहीं खिंचना चाहिये. ये भी कल्याणकारी सरकार के जिम्मे ही आता है.
5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म किये जाने के बाद जो जमीनी हकीकत है या तो वे लोग जानते होंगे जो रोज झेल रहे हैं या फिर सरकार जो हर बात पर नजर रखे हुए हैं - जिस तरह संसद में प्रस्ताव लाये जाते वक्त जरूरी एहतियाती उपाय किये गये थे, बाकी मामलों में भी ऐसा ही होना चाहिये था. है कि नहीं?
बालाकोट एयर स्ट्राइक
26 फरवरी, 2019 की रात में पाकिस्तानी सीमा में कई किलोमीटर तक अंदर घुस कर सेना ने एयर स्ट्राइक किया - और पूरे देश के लोगों को ऐसे ही बदले की उम्मीद भी थी. ये उम्मीद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद राष्ट्र के नाम संदेश में दिलायी थी. विपक्ष की राजनीतिक कोशिशों में एक भी काम न आयी और मोदी सब पर भारी पड़े - और चुनाव जीत कर दोबारा कुर्सी पर भी बैठे.
रो-गाकर ही सही, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने बालाकोट स्ट्राइक के बाद हीरो बनने का एक भी मौका नहीं गंवाया. एयर स्ट्राइक को लेकर पाकिस्तान में भारत पर हमले की भी कोशिश की और विंग कमांडर अभिनंदन वर्धमान को भेज कर अपनी दरियादिली प्रोजेक्ट करने की भी पूरी कोशिश की.
भारत के हाउडी मोदी कार्यक्रम के पीछे पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिलने तक भी गये और संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण से मुस्लिम मुल्कों के बीच खुद को सबसे बड़ा रहनुमा साबित करने की भी पूरी कोशिश की. भारत के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भड़काने की कोशिश के साथ साथ इमरान खान ने चीन को भी करीब लाने में एयर स्ट्राइक का पूरा फायदा उठाया - और मसूद अजहर के मामले में चीन को आखिर तक सपोर्ट में खड़ा रखा.
ये सच है कि भारत की कूटनीतिक कोशिशों की बदौलत इमरान खान कदम कदम पर चारों खाने चित्त होते गये. सऊदी क्राउन प्रिंस से पहले तो मेहमानवाजी कराते कराते इमरान खान ने अमेरिका जाने तक का इंतजाम कर लिया लेकिन लौटते वक्त इस कदर एक्सपोज हो गये कि कैसे इस्लामाबाद लौटे वो हमेशा याद रखेंगे.
अगर संभावित वाकयों का पहले से अंदाजा लगाकर मोदी सरकार ये सारे फैसले लेती तो क्या बाद में वैसा ही होता जैसा देखने को मिला है? शायद नहीं. ये जरूरी नहीं कि कोई भी कदम उठाने से पहले उसके बाद की स्थिति से मुकाबले के लिए जो तैयारी की जाये वो सफल ही हो, लेकिन ये भी नहीं हो सकता कि हर मामले में चुनौतियां एक जैसी ही हो जायें - और फिर फूंक फूंक कर कदम बढ़ाने पड़े.
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