चौकीदार तो बिलकुल चोर नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि क्या आप माफ़ी मांगेंगे? नहीं सिर्फ चौकीदार से ही नहीं, बल्कि देश के उन सभी नागरिकों से, जिन्होंने फिर से चौकीदार पर भरोसा किया. 2018 के अंत में कांग्रेस की तीन राज्यों में शानदार वापसी हुई. इसके साथ ही विरोधी खेमे में जोड़ तोड़ शुरू हो गयी. पिछले चार एक साल से यह अवधारणा फैलाई जा रही थी कि 'हिंदुस्तान खतरे में है'. धर्मनिरपेक्षता खतरे में है, किसी भी किस्म का विरोध और विरोधी कुचल दिए जा रहे हैं, इस लोकतंत्र का तो बस दम टूटने वाला है.
मतदाता, भ्रांति फैलाने वालों से तेज़ निकले. हमारे देश की जनता भी खूब है- सुनती सबकी है लेकिन फैसला खुद करती है. इस चुनाव प्रचार में नेता भाषा की सारी हदें पार कर गए थे. राहुल गांधी तो प्रधानमंत्री को रत्ती भर सबूत के बिना ही चोर कहते रहे. बंगाल में ममता बनर्जी ने तो सारी हदें लांघ दीं, क्या नहीं कहा- थप्पड़ मारेंगे, जेल में डाल देंगे, मोदी और अमित शाह गुंडा है, और न जाने क्या क्या. एक बार तो उन्होंने खुले मंच से यह भी कह दिया था कि वह मोदी जी को अपना प्रधान मंत्री नहीं मानतीं. किसी राज्य की मुख्यमंत्री क्या ऐसा कह सकती हैं? देश का कानून क्या कहता है?
वैसे जनता ने उनको कुछ हद तक जबाब तो दे दिया. अगर दो साल के भीतर किसी पार्टी का वोट शेयर 11% से बढ़कर करीब करीब 40% हो जाये तो आप उसको क्या कहेंगे? 2 सीट से 19 सीटों में आगे, इसको क्या कहेंगे? ममता दीदी आजकल कह रही हैं कि सारे गैर तृणमूल वोट साजिश के तहत भाजपा को मिला हैं. सही है दीदी, बस वो 'साजिश के तहत' शब्द हटा दीजिये. वह साजिश नहीं है, एक लोकतंत्र में जनता की आवाज़ है. वह आवाज़ है जिसको आपकी पार्टी के गुंडो...
चौकीदार तो बिलकुल चोर नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि क्या आप माफ़ी मांगेंगे? नहीं सिर्फ चौकीदार से ही नहीं, बल्कि देश के उन सभी नागरिकों से, जिन्होंने फिर से चौकीदार पर भरोसा किया. 2018 के अंत में कांग्रेस की तीन राज्यों में शानदार वापसी हुई. इसके साथ ही विरोधी खेमे में जोड़ तोड़ शुरू हो गयी. पिछले चार एक साल से यह अवधारणा फैलाई जा रही थी कि 'हिंदुस्तान खतरे में है'. धर्मनिरपेक्षता खतरे में है, किसी भी किस्म का विरोध और विरोधी कुचल दिए जा रहे हैं, इस लोकतंत्र का तो बस दम टूटने वाला है.
मतदाता, भ्रांति फैलाने वालों से तेज़ निकले. हमारे देश की जनता भी खूब है- सुनती सबकी है लेकिन फैसला खुद करती है. इस चुनाव प्रचार में नेता भाषा की सारी हदें पार कर गए थे. राहुल गांधी तो प्रधानमंत्री को रत्ती भर सबूत के बिना ही चोर कहते रहे. बंगाल में ममता बनर्जी ने तो सारी हदें लांघ दीं, क्या नहीं कहा- थप्पड़ मारेंगे, जेल में डाल देंगे, मोदी और अमित शाह गुंडा है, और न जाने क्या क्या. एक बार तो उन्होंने खुले मंच से यह भी कह दिया था कि वह मोदी जी को अपना प्रधान मंत्री नहीं मानतीं. किसी राज्य की मुख्यमंत्री क्या ऐसा कह सकती हैं? देश का कानून क्या कहता है?
वैसे जनता ने उनको कुछ हद तक जबाब तो दे दिया. अगर दो साल के भीतर किसी पार्टी का वोट शेयर 11% से बढ़कर करीब करीब 40% हो जाये तो आप उसको क्या कहेंगे? 2 सीट से 19 सीटों में आगे, इसको क्या कहेंगे? ममता दीदी आजकल कह रही हैं कि सारे गैर तृणमूल वोट साजिश के तहत भाजपा को मिला हैं. सही है दीदी, बस वो 'साजिश के तहत' शब्द हटा दीजिये. वह साजिश नहीं है, एक लोकतंत्र में जनता की आवाज़ है. वह आवाज़ है जिसको आपकी पार्टी के गुंडो ने पंचायत चुनाव के समय सरेआम डंडे से रोक रखा था. जो लोकसभा चुनाव में केंद्रीय सुरक्षा बल की मौजूदगी में खुलकर नहीं हो पाया. ऐसा नहीं कि हुआ नहीं, अगर नहीं होता तो आंकड़ा उल्टा होता.
मोदी जी भी विरोधियों पर जमकर बरसे लेकिन वो कभी गाली गलौज पर नहीं उतरे. वो अपने काम के बारे में बोले, आगे क्या करने वाले हैं उसकी रूपरेखा जनता के सामने रखी, जनता ने सुना और जवाब ईवीएम से दिया.
जीत किन कारणों से हुई इसका अभी से आकलन करना मुश्किल है. पर ऐसी लैंड स्लाइड जीत किसी एक कारण से नहीं आती. मोदी के सकारात्मक प्रचार, भारतीय अस्मिता को आगे करना यह सब तो अहम वजह रहीं, पर शायद 2019 के चुनावों ने पहली बार यह दर्शाया कि देश अब धीरे-धीरे जात-पात की राजनीति से दूर हो रहा है. जात और धर्म की राजनीती के दिन अब शायद ढलने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में और तमिलनाडु को छोड़ दें तो बाकी देश ने नकारात्मक राजनीति को ठुकरा दिया है.
2019 के लोक सभा चुनाव के दौरान करीब 8.4 करोड़ नए वोटर्स थे. मतलब हर लोकसभा सीट पर औसतन 1.54 लाख वोटर. हालांकि यह संख्या हर जगह सामान नहीं थी. यह नई जनरेशन है, इनके सोचने और समझने के तरीके अलग हैं. यह हमेशा इंटरनेट और सोशल मीडिया पर जुड़े रहते हैं, तो जानकारियों को टटोल सकते हैं, अपना फैसला खुद ले सकते हैं. बुनियादी ज़रूरतों के साथ इनकी एस्पिरेशनल ज़रूरतें अलग हैं. इस चुनाव में शायद इन्होंने भी नकारात्मक सोच को नकार दिया.
आंकड़ो की मानें तो काफी सारे राज्यों में महिलाओं ने पुरुषों से ज़्यादा मतदान किए. स्वच्छ भारत या उज्ज्वला आदि योजना इसका कारण हो सकती हैं. फिलहाल यह कहा जा सकता है कि देश ने नकारात्मक राजनीति से पीछा छुड़ाने का फैसला कर लिया है. तो क्या आप इन करोड़ों मतदाताओं से माफी मांगेंगे?
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