भारत में मोदी विरोधी राजनीति के केंद्र में फिलहाल दो चेहरे ही ज्यादा एक्टिव नजर आते हैं - एक ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और दूसरे, राहुल गांधी (Rahul Gandhi). प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के खिलाफ दोनों ही विपक्ष की राजनीति कर रहे हैं, लेकिन मुकाबला द्विपक्षीय होने की जगह त्रिपक्षीय होकर रह गया. एक चेहरा अरविंद केजरीवाल का भी कभी कभी राष्ट्रीय फलक पर उभर कर आता है, लेकिन वो खुद को अलग और ज्यादा स्पष्ट दिखाने की कोशिश में कहीं ज्यादा ही कन्फ्यूज लगने लगता है - कभी माया कभी राम के चक्कर में हर वक्त परेशान सा नजर आता है.
नतीजा ये हो रहा है कि कोविड 19 महामारी में सरकारी बदइंतजामी और बदहाली में मौका होने के बावजूद विपक्ष सिर्फ खुन्नस खाये लोगों जैसा व्यवहार कर रहा है - और मोदी सरकार को वॉक ओवर भी ऐसे मिल जा रहा है जैसे आपदा में सबसे बड़ा अवसर हो.
लगता तो ऐसा है जैसे ममता बनर्जी और राहुल गांधी दोनों ही नेताओं की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर जीरो बैलेंस वाली हो जाती अगर उनके सामने मोदी फैक्टर नहीं होता - दरअसल, ट्विटर पॉलिटिक्स का एक साइट इफेक्ट ये भी है.
ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे ममता बनर्जी और राहुल गांधी की राजनीति न तो मोदी फैक्टर के बगैर कायम रह सकती है - और न ही उनके सामने आगे का कोई भविष्य ही नजर आ रहा है. मतलब ये कि दोनों की राजनीतिक उम्र भी मोदी फैक्टर का मोहताज हो कर रह गयी है - और ये हाल तब तक बना रह सकता है जो वास्तव में कोई तीसरी राजनीतिक ताकत राष्ट्रीय फलक पर दस्तक नहीं दे देती.
राहुल गांधी की ही तरह ममता बनर्जी में भी, पश्चिम बंगाल चुनाव में मोदी-शाह को भारी शिकस्त देने के बावजूद - न तो दोनों में से किसी एक में अकेले दम पर मोदी से मुकाबला कर नेशनल लेवल पर शिकस्त देने की कुव्वत है - और न मिलकर मुकाबला करने का...
भारत में मोदी विरोधी राजनीति के केंद्र में फिलहाल दो चेहरे ही ज्यादा एक्टिव नजर आते हैं - एक ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और दूसरे, राहुल गांधी (Rahul Gandhi). प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के खिलाफ दोनों ही विपक्ष की राजनीति कर रहे हैं, लेकिन मुकाबला द्विपक्षीय होने की जगह त्रिपक्षीय होकर रह गया. एक चेहरा अरविंद केजरीवाल का भी कभी कभी राष्ट्रीय फलक पर उभर कर आता है, लेकिन वो खुद को अलग और ज्यादा स्पष्ट दिखाने की कोशिश में कहीं ज्यादा ही कन्फ्यूज लगने लगता है - कभी माया कभी राम के चक्कर में हर वक्त परेशान सा नजर आता है.
नतीजा ये हो रहा है कि कोविड 19 महामारी में सरकारी बदइंतजामी और बदहाली में मौका होने के बावजूद विपक्ष सिर्फ खुन्नस खाये लोगों जैसा व्यवहार कर रहा है - और मोदी सरकार को वॉक ओवर भी ऐसे मिल जा रहा है जैसे आपदा में सबसे बड़ा अवसर हो.
लगता तो ऐसा है जैसे ममता बनर्जी और राहुल गांधी दोनों ही नेताओं की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर जीरो बैलेंस वाली हो जाती अगर उनके सामने मोदी फैक्टर नहीं होता - दरअसल, ट्विटर पॉलिटिक्स का एक साइट इफेक्ट ये भी है.
ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे ममता बनर्जी और राहुल गांधी की राजनीति न तो मोदी फैक्टर के बगैर कायम रह सकती है - और न ही उनके सामने आगे का कोई भविष्य ही नजर आ रहा है. मतलब ये कि दोनों की राजनीतिक उम्र भी मोदी फैक्टर का मोहताज हो कर रह गयी है - और ये हाल तब तक बना रह सकता है जो वास्तव में कोई तीसरी राजनीतिक ताकत राष्ट्रीय फलक पर दस्तक नहीं दे देती.
राहुल गांधी की ही तरह ममता बनर्जी में भी, पश्चिम बंगाल चुनाव में मोदी-शाह को भारी शिकस्त देने के बावजूद - न तो दोनों में से किसी एक में अकेले दम पर मोदी से मुकाबला कर नेशनल लेवल पर शिकस्त देने की कुव्वत है - और न मिलकर मुकाबला करने का कोई स्कोप ही कहीं से नजर आ रहा है - फिर तो जैसी नीयत है वैसी ही बरकत भी तो होगी. डार्विन की थ्योरी के अनुसार कोरोना काल की भी जिंदगी हो या फिर राजनीति - सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट ही शाश्वत सत्य है - और सत्यमेव जयते भी.
राहुल गांधी में कुछ दिनों से एक चीज देखने को मिल रही है कि वो मोदी सरकार की वैक्सीनेशन पॉलिसी पर अपने आक्रमण फोकस किये हुए हैं, जबकि ममता बनर्जी रोजाना अगर टकराव के 10 मसले हों तो एक एक करके सभी मामलों में वो एक भाव से ही रिएक्ट करती हैं - सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ हों या फिर बंगाली की राजनीति में बीजेपी की मदद की बदौलत बराबरी में उछल रहे शुभेंदु अधिकारी ही क्यों न हों.
ममता बनाम मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का ताजा टकराव साइक्लोन यास की समीक्षा बैठक के दौरान देखने को मिली. ओडिशा से पहले प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल में रिव्यू मीटिंग के लिए रुके थे और राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी बुलाया गया था.
ममता बनर्जी मीटिंग में पहुंची भी लेकिन आधे घंटे देर से - और कुछ कागज देकर खड़े खड़े निकल भी लीं, ये बताते हुए कि उनको पहले से तय किसी मीटिंग में पहुंचना जरूरी है. किसी दूसरी मीटिंग की बात दरअसल तात्कालिक तौर पर बताने की वजह रही, जबकि वो पहले ही स्पष्ट कर चुकी थीं कि शुभेंदु मुखर्जी अगर मीटिंग में होंगे तो वो आने से रहीं. ममता के सामने प्रोटोकॉल की मजबूरी रही - क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी का कार्यक्रम तूफान को लेकर ही बना था. चुनावों से पहले ऐसे ही अम्फान तूफान आने के तत्काल बाद प्रधानमंत्री मोदी पहुंचे थे. तब तो ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मोदी को जमीनी हालात देखने के लिए बुलाया भी था और मार्च, 2020 के संपूर्ण लॉकडाउन के बाद वो पहला मौका था जब प्रधानमंत्री दिल्ली से बाहर गये थे. तब भी प्रधानमंत्री मोदी ने बंगाल का दौरा ओडिशा से पहले ही किया था.
प्रधानमंत्री के साथ ममता बनर्जी की मीटिंग के बाद दो चीजें चर्चा में हैं, खासकर सोशल मीडिया पर. एक, ममता बनर्जी का देर से पहुंचना और दूसरा पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव को उतनी ही देर करने के लिए दिल्ली तलब किया जाना.
ममता बनर्जी की तरफ से मुख्यमंत्री के 30 मिनट इंतजार कराने पर बचाव में तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा सामने आयी हैं - और ताजा वाकये को 2014 के काले धन के 15 लाख वाले चुनावी जुमले के साथ जोड़ कर पेश किया है.
महुआ मोइत्रा ने मोदी सरकार की वैक्सीनेशन पॉलिसी पर भी तंज किया है, 'वैक्सीन के लिए महीनों से इंतजार कर रहे. थोड़ा आप भी इंतजार कर लीजिए कभी-कभी...'
वैसे मीटिंग की राजनीति को लेकर ममता बनर्जी भी खुल कर सामने आ गयी हैं - और कहा है कि बंगाल के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री मोदी अगर पैर छूने को भी कहेंगे तो उनको कोई हिचकिचाहट नहीं होगी.
ममता बनर्जी का कहना है कि वो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री का सम्मान करती हैं, 'मैंने पीएम से मिल कर प्रॉजेक्ट रिपोर्ट दी और उनकी इजाजत लेकर हम वहां से गये.' याद कीजिये विक्टोरिया पैलेस के कार्यक्रम में भी ममता बनर्जी ने ऐसे ही रिएक्ट किया था, हालांकि, वहां वो जय श्रीराम के नारे से चिढ़ गयी थीं. ममता बनर्जी को आपत्ति ये रही कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की याद में हो रहे सरकारी कार्यक्रम में जय श्रीराम जैसा सियासी स्लोगन क्यों लगाया जाना चाहिये - और ये सब हुआ प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी में ही.
ममता बनर्जी का सवाल है कि जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की मीटिंग थी तो उसमें बीजेपी नेताओं और राज्यपाल को क्यों बुलाया गया - और कह रही हैं कि ऐसा होने से वो अपमानित महसूस कर रही हैं.
मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय के मामले में ममता बनर्जी का कहना है, 'मैं प्रधानमंत्री मोदी से अनुरोध करती हूं कि राजनीतिक प्रतिशोध खत्म करें, मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय को बुलाने का आदेश वापस लें और उनको कोरोना संक्रमण से प्रभावित लोगों के लिए काम करने की अनुमति दें.'
पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय को दिल्ली तलब किये जाने को कांग्रेस ने लोकतंत्र और सहकारी संघवाद पर हमला बताया है. कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का सवाल है अलपन बंदोपाध्याय को तीन महीने का एक्सटेंशन देने चार दिन बाद ही दिल्ली बुलाने का फैसला क्यों किया गया?
ये तो हुई ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजातरीन तकरार. मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तत्काल बाद राज्यपाल जगदीप धनखड़ी ने ममता बनर्जी को नसीहत दी तो मौके पर ही मामला केंद्र पर डाल दिया. बाद में राज्यपाल के हिंसा प्रभावित इलाकों के दौरों को लेकर भी ममता बनर्जी सरकार ने घोर आपत्ति जतायी - और कोरोना पर हुई दो मीटिंग के बाद तीसरी वाली में ममता बनर्जी प्रधानमंत्री की बैठक में शामिल तो हुईं, लेकिन अपने जिलाधिकारियों को मना कर दिया - और मीटिंग के बाद हेमंत सोरेन की ही तरह इल्जाम लगाया कि जब बोलने नहीं देना है तो ऐसी बैठकें बुलाये जाने का क्या मतलब है?
बंगाल की हार को लेकर बीजेपी नेतृत्व को जो मलाल रह गया है, वो भी किसी न किसी रूप में सामने आ ही रहा है - तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों सहित चार नेताओं की नारदा स्टिंग केस में गिरफ्तारी को लेकर भी ममता बनर्जी ने अपने तरीके से कड़ा विरोध किया - सीबीआई अफसरों से तो साफ साफ बोल दिया कि गिरफ्तार करना है तो 'मुझे करो'.
एक ही मामले में चार्जशीट को लेकर सीबीआई के डबल स्टैंडर्ड पर ममता बनर्जी और उनकी टीम ने तो बवाल किया ही, अदालत में भी अदालत में भी सीबीआई को बहाने बनाने पड़े कि मुकुल रॉय और शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ जांच एजेंसी ने एक्शन क्यों नहीं लिया - और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ये कहते हुए सवाल टाल गये कि वो केवल कानूनी सवालों का ही जवाब दे सकते हैं.
लगता तो नहीं कि अगर अभिषेक बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस के लिए प्रशांत किशोर की सेवायें न ली होतीं तो ममता बनर्जी सत्ता में वापसी की हैट्रिक लगा पातीं - और जो ताजा हाल है, उसमें सरकार को पांच साल चला पाना ममता बनर्जी के लिए अलग से चुनौती है.
अगर प्रशांत किशोर के पास सिर्फ चुनाव जिताने का ही हुनर है तो अभिषेक बनर्जी को अपनी बुआ के उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य के लिए ऐक ऐसा सलाहकार भी खोज लेना चाहिये जो सही राजनीतिक फैसले लेने की सलाह दे और शर्त ये भी है कि वे सलाहियतें ममता बनर्जी मानें भी.
ममता बनर्जी के ताजा तेवर बताते हैं कि वो अपने राजनीतिक फैसलो में दिल और दिमाग को समुचित तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं. किसी मामले में दिल हावी रहता है तो किसी मामले में दिमाग - जब तक दोनों का अनुपात जरूरत के हिसाब से ना हो, वैसा ही नतीजा सामने आता है जैसा देखने को मिल रहा है.
राहुल बनाम मोदी
राहुल गांधी भी लगता है ममता बनर्जी की ही तरह दिल और दिमाग के राजनीतिक इस्तेमाल में बैलेंस नहीं बना पाते. मान लेते हैं कि ममता बनर्जी की ही तरह राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री मोदी से घृणा करते हैं. राहुल गांधी को ऐसा महसूस होने की वजह भी है. जब से पैदा हुए कभी सत्ता से दूर होने का अनुभव नहीं रहा - ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि उनको मिल रही कोई सरकार सुविधा छीन ली जाये. ये तो है ही कि मोदी सरकार ने पूरे गांधी परिवार से एसपीजी सुरक्षा छीन ली. ये भी है कि बीजेपी सरकार ने ही प्रियंका गांधी वाड्रा को उस बंगले से बेदखल कर दिया जिसमें वो शादी के बाद शिफ्ट हुई थीं. गांधी परिवार को जैसी चिढ़ देश की चंद्रशेखर से रही होगी, करीब करीब वैसी ही मोदी सरकार से भी हो गयी है.
अव्वल तो निजी और राजनीतिक दुश्मनी अलग अलग महत्व रखती है और व्यवहार में सामाजिक तौर पर दोनों का घालमेल कम ही देखने को मिलता है. पहले ऐसी राजनीति का नमूना तमिलनाडु जैसे राज्यों में ही देखी जाती रही, लेकिन अब ये पश्चिम बंगाल की तरफ शिफ्ट होने लगी है और दिलचस्प बात ये है कि तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एमके स्टालिन राजनीति में गला काट दुश्मनी वाली प्रैक्टिस के खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं.
राहुल गांधी और ममता बनर्जी दोनों की ही राजनीति का कॉमन एजेंडा मोदी विरोध ही है - लेकिन 'यूनाइटेड वी स्टैंड, डिवाइडेड वी फॉल' वाले फॉर्मूले की तरफ दोनों में से किसी का कभी भी ध्यान नहीं जाता और ये वो मेजर फैक्टर है जो विपक्ष को कभी भी एकजुट नहीं होने देता है.
पश्चिम बंगाल चुनाव से दूरी बनाकर भी तो राहुल गांधी ने ममता बनर्जी का ही साथ दिया था, लेकिन अब सवाल ये है कि क्या आने वाले यूपी चुनाव में ममता बनर्जी भी सोनभद्र के उम्भा नरसंहार और हाथरस गैंग रेप की तरह ही राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के पीछे तृणमूल को सपोर्ट सिस्टम के तौर पर खड़ा रख पाएंगी?
अगर मोदी फैक्टर से राजनीतिक तौर पर निबटना है तो सबसे पहले दोनों नेताओं को ठंडे दिमाग से ये सोचना और तय करना होगा - प्रधानमंत्री बनना है या मोदी से मुक्ति पानी है?
अब तो कोई दो राय नहीं है कि जब तक दोनों आपस में ही लड़ते रहेंगे, मुक्ति मुश्किल है. मुक्ति तभी मुमकिन है जब दोनों हाथ मिलाकर जंग के मैदान में उतरने का फैसला करें.
ये मुक्ति त्याग मांगती है - ममता बनर्जी से भी और राहुल गांधी से भी, लेकिन क्या दोनों कभी इस बात के लिए तैयार हो पाएंगे? और अगर ये ऐसा नहीं कर पाते तो मान लेना चाहिये कि मोदी है तो उनके लिए उनके ख्वाबों का हकीकत में बदलना हरगिज मुमकिन नहीं है.
ममता बनर्जी को भी और राहुल गांधी को भी राजनीति में बने रहने के लिए मोदी का ही आसरा है और दोनों के राजनीतिक भविष्य के लिए भी यही एक कामयाब फॉर्मूला है - तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि राजनीतिक का ये तरीका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी तमाम खामियों के बावजूद मजबूत बनाये हुए है.
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