प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की लोकप्रियता के जो आंकड़े सर्वे के जरिये आते रहे हैं या दुनिया भर में मोदी के डंका बजने के जो दावे बीजेपी की तरफ से किये जाते हैं, होना तो ये चाहिये कि बनारस में उनके झांके बगैर भी लोग सारे वोट बीजेपी की झोली में डाल देते - और बाकियों की जमानत जब्त करा डालते.
और बनारस (Varanasi) ही क्यों गुजरात में भी मोदी के नाम पर ही लोगों को बीजेपी की सरकार बनवा देनी चाहिये, ताकि गांधीनगर पहुंच कर गुजराती में ये बोलने की कभी नौबत ही न आये - 'मैं ही गुजरात हूं. मैं ही विकास हूं'. अक्टूबर, 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'गुजरात गौरव यात्रा' के समापन पर ये बयान इसलिए देना पड़ा था क्योंकि कांग्रेस के कैंपेन 'विकास पागल है' ने बीजेपी के छक्के छुड़ा दिये थे. हालत ये हो गयी कि जैसे तैसे मोदी के बूते बीजेपी सत्ता वापसी कर सकी.
गुजरात में तो तब भी ऐसा करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिये थी क्योंकि मोदी अपना पूरा उत्तराधिकार अपने हिसाब से सर्वोत्तम हाथों में सौंप कर आये थे - और अब तो यूपी में भी ऐसी ही अपेक्षा होनी चाहिये - बनारस के बारे में तो ऐसी बातें सोचना भी बेमानी लगती हैं.
लेकिन सच यही है. शायद सच होता ही ऐसा है. बिलकुल ऐसा ही होता है - और मान कर चलना चाहिये कि मोदी को भी सच मालूम पड़ चुका है. तभी तो, जिसे मां गंगा ने काशी में चुनाव लड़ने के लिए बुलाया हो. जो दो दो बार अपना चुनाव अच्छे मार्जिन से अपनी लोक सभा सीट जीत चुका हो, वो अपने ही कुछ निकम्मों के चलते गली गली घूम कर खाक छानने को मजबूर नजर आये.
एक दफे तो ऐसा लगा जैसे प्रधानमंत्री मोदी को बीजेपी के लिए बंगाल से भी ज्यादा मेहनत बनारस में करनी पड़ी हो, वो भी तब जबकि अखिलेश यादव के बुलावे पर वाराणसी पहुंची ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की वजह से कोई असर नहीं महसूस किया गया.
बहरहाल, मोदी तो मोदी ठहरे. जैसे अमित शाह ने हैदराबाद की सड़कों पर अपने साथ बीजेपी के सारे बड़े बड़ों क उतार दिया था, बनारस के एक छोर से दूसरी,...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की लोकप्रियता के जो आंकड़े सर्वे के जरिये आते रहे हैं या दुनिया भर में मोदी के डंका बजने के जो दावे बीजेपी की तरफ से किये जाते हैं, होना तो ये चाहिये कि बनारस में उनके झांके बगैर भी लोग सारे वोट बीजेपी की झोली में डाल देते - और बाकियों की जमानत जब्त करा डालते.
और बनारस (Varanasi) ही क्यों गुजरात में भी मोदी के नाम पर ही लोगों को बीजेपी की सरकार बनवा देनी चाहिये, ताकि गांधीनगर पहुंच कर गुजराती में ये बोलने की कभी नौबत ही न आये - 'मैं ही गुजरात हूं. मैं ही विकास हूं'. अक्टूबर, 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'गुजरात गौरव यात्रा' के समापन पर ये बयान इसलिए देना पड़ा था क्योंकि कांग्रेस के कैंपेन 'विकास पागल है' ने बीजेपी के छक्के छुड़ा दिये थे. हालत ये हो गयी कि जैसे तैसे मोदी के बूते बीजेपी सत्ता वापसी कर सकी.
गुजरात में तो तब भी ऐसा करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिये थी क्योंकि मोदी अपना पूरा उत्तराधिकार अपने हिसाब से सर्वोत्तम हाथों में सौंप कर आये थे - और अब तो यूपी में भी ऐसी ही अपेक्षा होनी चाहिये - बनारस के बारे में तो ऐसी बातें सोचना भी बेमानी लगती हैं.
लेकिन सच यही है. शायद सच होता ही ऐसा है. बिलकुल ऐसा ही होता है - और मान कर चलना चाहिये कि मोदी को भी सच मालूम पड़ चुका है. तभी तो, जिसे मां गंगा ने काशी में चुनाव लड़ने के लिए बुलाया हो. जो दो दो बार अपना चुनाव अच्छे मार्जिन से अपनी लोक सभा सीट जीत चुका हो, वो अपने ही कुछ निकम्मों के चलते गली गली घूम कर खाक छानने को मजबूर नजर आये.
एक दफे तो ऐसा लगा जैसे प्रधानमंत्री मोदी को बीजेपी के लिए बंगाल से भी ज्यादा मेहनत बनारस में करनी पड़ी हो, वो भी तब जबकि अखिलेश यादव के बुलावे पर वाराणसी पहुंची ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की वजह से कोई असर नहीं महसूस किया गया.
बहरहाल, मोदी तो मोदी ठहरे. जैसे अमित शाह ने हैदराबाद की सड़कों पर अपने साथ बीजेपी के सारे बड़े बड़ों क उतार दिया था, बनारस के एक छोर से दूसरी, तीसरी और हर छोर तक खुद ही पहुंच गये - आखिरी दौर में तो ऐसा लगा जैसे हर जगह मोदी ही मोदी नजर आ रहे हों.
मोदी के नाम पर ही वोट पड़ेंगे
काफी दिनों से शहर में ये चर्चा सरेआम होने लगी थी कि बीजेपी के हिस्से की शहर दक्षिणी सीट तो फंस चुकी है - और योगी सरकार के मंत्री और बीजेपी उम्मीदवार नीलकंठ तिवारी के माफीनामे ने तो कंफर्म ही कर दिया.
पांच साल तक यूपी में डबल इंजिन की सरकार चलाने के बाद भी बीजेपी नेतृत्व को संघ से बिलकुल वही संदेश मिला जो 2017 में मिला था - सीट बचानी है तो मोदी को मोर्चे पर लगाओ, वरना बाजी हाथ से निकल जाएगी - फिर तो मोदी को मैदान में उतरना ही था.
सवाल ये है कि जिस डबल इंजिन की सरकार के नाम पर बीजेपी नेतृत्व पूरे देश में वोट मांगता है, आखिर चुनावों में ये हाल क्यों हो जाता है. 2017 में ये हाल गुजरात में देखने को मिला था और 2020 में बिहार में भी ऐसी ही स्थिति बन गयी थी. महाराष्ट्र चुनाव तो बीजेपी शिवसेना गठबंधन के साथ लड़ी थी, लेकिन उतनी सीटें भी नहीं आ पायीं कि राजनीतिक विरोधियों के लिए नजरअंदाज करना मुश्किल हो. हरियाणा में तो डबल इंजिन की सरकार दोबारा बनाने के लिए न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े और साम, दाम, दंड और भेद अप्लाई करने के बाद दुष्यंत चौटाला को गठबंधन के लिए तैयार करना पड़ा था.
बनारस के काशी विश्वनाथ कॉरिडोर को अयोध्या के राम मंदिर निर्माण के बराबर का काम बता कर बीजेपी पूरे यूपी में वोट मांग रही थी, लेकिन बनारस में अपनी जीती हुई सीटें निकालना ही क्यों मुश्किल होने लगा?
पूर्वांचल के कई जिलों से इलाज के लिए लोग बनारस का ही रुख करते हैं. आस पास के जिलों के मरीजों को भी वहां के अस्पताल बनारस ही रेफर करते हैं. बनारस में बीएचयू की सुविधायों में ट्रॉमा सेंटर के तौर पर इजाफा हुआ है, जहां इलाज की अत्याधुनिक सुविधा उपलब्ध है.
कैंसर जैसी बीमारी के इलाज के लिए जो मरीज दिल्ली और मुंबई जाने को मजबूर होते थे, बनारस में ही सारी सुविधाएं मिलने लगी हैं - फिर भी लोगों में स्थानीय प्रतिनिधियों को लेकर नाराजगी इस हद तक कैसे पहुंच गयी?
वाराणसी के सीनियर पत्रकार विनय सिंह भी इसी बात पर हैरानी जताते हैं. कहते भी हैं, आखिर केंद्रीय योजनाओं के फंड यूपी को भी आते ही हैं और बनारस के लिए कुछ न होता हो ऐसा कैसे हो सकता है?
विनय सिंह खुद भी समझने की कोशिश करते हैं, 'प्रधानमंत्री के बनारस का सांसद होने की वजह से भी नरेंद्र मोदी की तो खास दिलचस्पी रहती होगी. ये भी देखने को मिला है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का अक्सर ही बनारस दौरा होता ही रहता है... ये भी समझा जाता है कि वो उन विकास कार्यों की निगरानी के लिए ही आधी रात को भी धावा बोल देते हैं, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी की खास दिलचस्पी रहती है... जब मोदी के भरोसे ही जीत की उम्मीद रही तो, चुनावी राजनीति के हिसाब से बाकी चीजों का मतलब ही क्या रह जाता है?'
योगी सीन से गायब क्यों?
सबसे ज्यादा ताज्जुब तो ये देखकर होता है कि महीने में कई कई बार बनारस का दौरा कर जाने वाले योगी आदित्यनाथ सीन से गायब क्यों हैं?
योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर सदर सीट पर 3 मार्च को वोट डाले गये थे - और तब से आखिरी चरण के चुनाव प्रचार के आखिर तक प्रधानमंत्री मोदी बनारस में डटे रहे, लेकिन योगी आदित्यनाथ नजर नहीं आये. आखिर क्यों?
ये सही है कि मोदी की पर्सनालिटी के साये में योगी आदित्यनाथ यूं भी ढक जाते हैं. जब मोदी रात दिन लोगों के बीच रह कर चुनाव कैंपेन कर रहे हों तो मीडिया की सुर्खियों में वैसे भी योगी का नंबर तो बाद में ही आएगा. जब तक कि योगी की तरफ से कोई विवादित बयान देकर बखेड़ा न खड़ा कर दिया जाये.
कोई दो राय नहीं कि आखिरी फेज की लड़ाई निर्णायक साबित होने वाली है - और पूर्वांचल का मुख्य केंद्र होने की वजह से बनारस से मोदी अपना चौतरफा प्रभाव दिखा सकते हैं, लेकिन क्या योगी आदित्यनाथ को लोगों की नजर से हटाने की जानबूझ कर कोशिश हो सकती है?
वैसे चंदौली में योगी आदित्यनाथ को मुख्तार अंसारी के बहाने अखिलेश यादव को टारगेट करते देखा गया, 'भारतीय जनता पार्टी की सरकार दोबारा आने की आहट से... चुनावों में जो पेशेवर अपराधी बिलों के बाहर निकल कर आये थे वो भागने की तैयारी में लग गये हैं... एहसास हो गया है कि अब उनकी दाल गलने वाली नहीं है.'
लेकिन ये आवाज स्थानीय स्तर पर आसपास ही सुनायी देती है, उससे आगे नहीं - क्या योगी आदित्यनाथ को थोड़ा दूर रख कर अमित शाह सत्ता विरोधी लहर को काउंटर करने की किसी खास रणनीति पर काम कर रहे थे?
आखिरी दौर की वोटिंग के लिए चुनाव प्रचार थमने पर लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी के दफ्तर में योगी आदित्यनाथ ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की है. योगी ने दावा किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और मार्गदर्शन में बीजेपी 10 मार्च को एक बार फिर से उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी. योगी आदित्यनाथ के मुताबिक, '80 फीसदी में भाजपा अपनी सरकार बनाएगी और 20 फीसदी सीटों का बंटवारा विपक्षी पार्टियां आपस में करेंगी - उत्तर प्रदेश की जनता अब परिवारवाद वालों को राजनीति को मौका नहीं देगी.'
प्रधानमंत्री मोदी ने तो चुनावी अभियान की शुरुआत ही बनारस में रैली करके थी. फिर अमित शाह ने लखनऊ से मोदी के नाम पर योगी के लिए वोट मांगना शुरू किया, लेकिन योगी आदित्यनाथ ने भी अपनी तरफ से कोई कम मेहनत नहीं की है - डेढ़ महीने में योगी आदित्यनाथ ने 200 से ज्यादा रैलियां और रोड शो किया है. प्रधानमंत्री मोदी ने दो दर्ज से ज्यादा रैलियां और रोड शो किया है. अमित शाह ने 60 से ज्यादा चुनावी रैलियां और रोड शो के अलावा कई इलाकों में डोर-टू-डोर कैंपेन भी किया.
बनारस में तो मोदी ने अस्सी पहुंच कर पप्पू की अड़ी पर तीन बार चाय भी पी और पान भी खाये - मंदिर में दर्शन करने के साथ ही डमरू भी जम कर बजाया है.
जो रैली और रोड शो पहले से तय थे वे तो रहे ही, संपूर्णानंद संस्कृति विश्वविद्यालय में आयोजित बूथ विजय सम्मेलन को भी मोदी ने चुनावी रैली जैसा ही बना दिया - और जब काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए निकले तो भी नजारा रोड शो जैसा ही बन पड़ा था.
अमूमन प्रधानमंत्री मोदी बनारस में शहर और आसपास के लोगों से ही मिलते हैं, लेकिन यूक्रेन से छात्रों की वापसी का मुद्दा तो अंतर्राष्ट्रीय है. अगर बनारस में चुनाव नहीं होते छात्रों से मुलाकात भी दिल्ली में ही तो होती, भले ही लौटने वाले छात्रों में बनारस और आस पास के ही क्यों न हों.
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