लोकसभा चुनाव 2019 करीब आ गए हैं और लगभग हर पार्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा चुकी है. अपने चुनावी अभियान को पीएम नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी लगे हुए हैं, लेकिन इस बार 2014 जैसा असर देखने को नहीं मिल रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाव-भाव भी बदल चुके हैं. 2019 की रैली देखें तो उनमें 2014 जैसा जोश नहीं है, 2014 जैसा भाव भी नहीं है और जीत के प्रति आशंका भी दिख रही है.
ये सिर्फ मोदी की बढ़ती उम्र का असर नहीं है बल्कि ये असर तो चुनावी उठापटक और राजनीतिक अध्याय के बदलने का है. पर ऐसा क्यों? क्या मोदी ने भविष्य देख लिया है? भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भले ही 300 सीट लोकसभा चुनाव में जीतने की बात करते हों, लेकिन मोदी को देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें पता है ये सही नहीं है.
मोदी अभी भी लोकप्रिय हैं. उनके अपने सपोर्टर हैं जो सालों से उनके प्रति लॉयल हैं. लेकिन 68 साल के मोदी को इस बार नए वोटरों को रिझाना है जो उनके लिए सबसे बड़ी समस्या हो सकती है. जब मोदी ने 2014 में इलेक्शन कैंपेन किया था तब कई लोग 13 से 17 साल के बीच थे जो अब आधिकारिक तौर पर वोटर बन चुके हैं. वो उस 100 मिलियन वोट बैंक का हिस्सा हैं जो अब पहली बार वोट देंगे.
ये नए और अप्रत्याशित वोटर हैं जो किसी भी ओर मुड़ सकते हैं. मोदी ने भले ही अपना चार्म खो दिया हो, लेकिन उन्होंने अपनी चालाकी नहीं खोई है. वो अभी भी बहुत पक्के खिलाड़ी हैं. हाल ही में बॉलीवुड की यंग ब्रिगेड और सुपर स्टार्स के साथ की गई तीन मीटिंग इसका सबूत है. मोदी बॉलीवुड की सुपर ब्रिगेड के साथ सेल्फी खिंचवाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं ताकि उन नए वोटरों के साथ जुड़ा जा सके.
यहां मोदी के लिए एक फायदेमंद...
लोकसभा चुनाव 2019 करीब आ गए हैं और लगभग हर पार्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा चुकी है. अपने चुनावी अभियान को पीएम नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी लगे हुए हैं, लेकिन इस बार 2014 जैसा असर देखने को नहीं मिल रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाव-भाव भी बदल चुके हैं. 2019 की रैली देखें तो उनमें 2014 जैसा जोश नहीं है, 2014 जैसा भाव भी नहीं है और जीत के प्रति आशंका भी दिख रही है.
ये सिर्फ मोदी की बढ़ती उम्र का असर नहीं है बल्कि ये असर तो चुनावी उठापटक और राजनीतिक अध्याय के बदलने का है. पर ऐसा क्यों? क्या मोदी ने भविष्य देख लिया है? भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भले ही 300 सीट लोकसभा चुनाव में जीतने की बात करते हों, लेकिन मोदी को देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें पता है ये सही नहीं है.
मोदी अभी भी लोकप्रिय हैं. उनके अपने सपोर्टर हैं जो सालों से उनके प्रति लॉयल हैं. लेकिन 68 साल के मोदी को इस बार नए वोटरों को रिझाना है जो उनके लिए सबसे बड़ी समस्या हो सकती है. जब मोदी ने 2014 में इलेक्शन कैंपेन किया था तब कई लोग 13 से 17 साल के बीच थे जो अब आधिकारिक तौर पर वोटर बन चुके हैं. वो उस 100 मिलियन वोट बैंक का हिस्सा हैं जो अब पहली बार वोट देंगे.
ये नए और अप्रत्याशित वोटर हैं जो किसी भी ओर मुड़ सकते हैं. मोदी ने भले ही अपना चार्म खो दिया हो, लेकिन उन्होंने अपनी चालाकी नहीं खोई है. वो अभी भी बहुत पक्के खिलाड़ी हैं. हाल ही में बॉलीवुड की यंग ब्रिगेड और सुपर स्टार्स के साथ की गई तीन मीटिंग इसका सबूत है. मोदी बॉलीवुड की सुपर ब्रिगेड के साथ सेल्फी खिंचवाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं ताकि उन नए वोटरों के साथ जुड़ा जा सके.
यहां मोदी के लिए एक फायदेमंद बात भी है. जवान वोटरों को तार्किक तौर पर राहुल गांधी का सपोर्टर होना चाहिए क्योंकि वो खुद देश के यंग लीडर की छवि बनाए हुए हैं, लेकिन फिर भी हाल ही में हुई यूथ कॉन्क्लेव में जब यंग ऑडियंस से पूछा गया कि क्या वो राहुल गांधी को अपना पीएम चुन सकते हैं तो हॉल में खामोशी थी.
पर अगर सिर्फ मोदी की बात की जाए तो ऐसा क्या कारण हो सकता है कि मोदी नाम की सूनामी दब गई. 2014 में ऐसा लग रहा था कि अभी 15 साल वो कहीं नहीं जाएंगे, लेकिन अब 2019 में उल्टे हालात दिख रहे हैं. इसके पीछे कुछ राजनीतिक कारण हैं.
1. NDA के सहयोगी दलों की उपेक्षा करना
NDA ने पहले ही TDP को खो दिया है. ये किसी चेतावनी की तरह ही है. मोदी-शाह की जोड़ी भले ही ये सोचे कि चंद्रबाबू नायडू के चले जाने से कुछ नहीं होता और जगमोहन रेड्डी की पार्टी YSRCP के जरिए आंध्र प्रदेश को साधने की कोशिश करें पर जो सिग्नल चंद्रबाबू नायडू के वॉक-आउट से गया है वो सही नहीं है.
बिहार और तमिलनाडु के छोटे-छोटे सहयोगी दलों का नुकसान भाजपा को आने वाले समय में बड़ा झटका दे सकता है. साथ ही, शिवसेना के साथ चलती उठा-पटक और बाकी राज्यों में भी सहयोगी दलों की नाराजगी के कारण NDA का आकार छोटा हो सकता है. इस समय ये ज्यादा मुश्किल है क्योंकि विपक्षी महागठबंधन से निपटने के लिए मोदी को सभी सहयोगी दलों से बनाकर चलना होगा.
मोदी ने पिछले हफ्ते ही कहा है कि वो सभी सहयोगी दलों का स्वागत करते हैं, लेकिन उसके बाद ही तमिलनाडु की DMK और AIADMK ने मोदी को खास रिस्पॉन्स नहीं दिया. पिछले साढ़े चार साल से मोदी ने NDA सहयोगी दलों की कोई मीटिंग नहीं ली है ऐसे में अगले तीन महीने में कुछ कमाल हो जाए ये मुमकिन नहीं लग रहा.
2. नॉर्थ ईस्ट का चक्रवात 2019 राजनीति के लिए खतरनाक
उत्तर पूर्वी राज्यों में चुनावों से पहले बहुत उथल-पुथल चल रही है. पहले ही Citizenship (Amendment) Bill (नागरिकता संशोधन विधेयक) ने असम में NDA के सहयोगी दल AGP को नाराज कर दिया है. नॉर्थ ईस्ट के बाकी राज्यों के सहयोगी दल भी नाराज ही चल रहे हैं. अभी तक भाजपा ने नॉर्थ ईस्ट पर विजय प्राप्त नहीं की है. उस इलाके से 24 लोकसभा सीटें हैं और अगर यही हाल चलता रहा तो उन सीटों का नुकसान भाजपा को उठाना पड़ सकता है.
ऐसा लग रहा है कि भाजपा इस कीमत को चुकाने को तैयार है. पार्टी धर्म को भाषा से ऊपर रख रही है. तभी तो बंगाली बोलने वाले हिंदू (मुस्लिम नहीं) जो बंगलादेश, पाकिस्तान, अफ्गानिस्तान से आए हैं उन्हें नागरिकता पाने का मौका दिया जा रहा है.
3. समझ का फेर जो हो सकता है भाजपा के लिए नुकसानदेह
अगर हम भाजपा के काम की बात करें तो पिछले 4.5 साल में मोदी सरकार ने स्वच्छता को लेकर, गांवों में बिजली लाने को लेकर, स्वास्थ्य के क्षेत्र में, इंफ्रास्ट्रक्चर में, हाउसिंग सेक्टर में, डिजिटलाइज सब्सिडी देने के लिए, फाइनेंशियल सेविंग और अन्य कई सेक्टर में बहुत अच्छा काम किया है. ये वाकई काबिले तारीफ है. ये असल उपलब्धि है, लेकिन इन्हें सरकार अपनी कैंपेनिंग का हिस्सा बनाने में पीछे हट रही है.
भाजपा का सूचना तंत्र अभी भी रक्षात्मक, प्रतिक्रियाशील और लोगों के दुख और गुस्से के नीचे दबा हुआ है.
4. मोदी की चौथी गलती खुद को सीमित कर लेना
पांच साल पहले मोदी मैडिसन स्क्वेयर गार्डन जैसे पब्लिक इवेंट्स में हिस्सा लिया करते थे. लोगों से मनुहार करते दिखते थे. ऐसे भव्य पब्लिक इवेंट अब नहीं होते. पहला ऐसा इवेंट था लंदन के Wembley स्टेडियम में जहां ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरून उनके साथ थे. इसके बाद तो जैसे इवेंट्स की झड़ी लग गई थी. जापान में ड्रम बजाने वाले मोदी, अहमदाबाद में चीन के राष्ट्रपति के साथ झूला झूलते मोदी और ऐसे कई इवेंट अब भूली बिसरी याद ही हैं.
अब जो बचा है वो है मोदी की मुस्कान और ऐसा लगता है कि वो अपने रहस्यमय वफादारों के साथ किसी दीवार के पीछे हों. PA के दौर का सोनिया गांधी दरबार भले ही अब न बचा हो, लेकिन एकतरफा फैसले लेने का हक अभी भी वहीं है.
5. मोदी सरकार की पांचवी गलती थी टैलेंट की कद्र न करना
मोदी सरकार ने मेरिट के हिसाब से एजुकेशन, इंस्टिट्यूशन यहां तक कि कैबिनेट में भी कोई प्रमोशन नहीं किया. टैलेंट की कमी ये संदेश देती है कि सरकार सही आर्थिक विकास के काबिल नहीं है. मोदी सरकार इतनी नौकरियां दे पाने में असमर्थ रही जिससे भारत की बेरोजगारी की समस्या को थोड़ी राहत मिल सके.
साथ ही, मोदी सरकार यूपीए दौर में हुए घोटालों की जांच-पूछ-परख ठीक से नहीं कर पाई. इसके कारण भाजपा में अंदरूनी उठापठक चलती रही. ये गलती चुनावी जमीन पर नुकसानदेह साबित हो सकती है.
शायद यही कारण है कि हम लोकसभा चुनाव के मिले-जुले नतीजे की ओर बढ़ रहे हैं.
भाजपा इन गलतियों के कारण विरोधी लहर का सामना कर सकती है. साथ ही, विपक्ष एक जुट हो गया है. इसका असर उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिल सकता है जहां भाजपा का सामना SP-BSP-RLD गठबंधंन से होगा और ऐसे में पार्टी 2014 में जीती 71 सीटों में से आधी सीटें खो सकती है.
पर ये हालत उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहे ऐसा जरूरी नहीं है. अन्य राज्य जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ने भी भाजपा को 65 में से 62 लोकसभा सीटें दी थीं. इन तीनों राज्यों में भाजपा हाल ही में विधानसभा चुनाव हारी है.
अगर भाजपा के पास 2019 लोकसभा चुनावों में 180 से कम सीटें आती हैं तो नरेंद्र मोदी विपक्षी दल के नेता बन सकते हैं क्योंकि ऐसे में भाजपा के पास इतने सहयोगी दल नहीं रहेंगे कि वो बहुमत की सरकार बना ले.
सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण क्या राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद भाजपा को पहले सरकार बनाने का मौका देंगे? अगर महागठबंधन के पास पहले से ही उससे ज्यादा सीटें होंगी तो ऐसा नहीं होगा. क्या आरएसएस के चहीते नेता नितिन गडकरी को भाजपा मोदी के विकल्प के तौर पर आगे करेगी, ताकि नए सहयोगी दलों को साधा जा सके? इसकी उम्मीद लगभग न के बराबर है.
2019 का लोकसभा इलेक्शन न ही 2004 के इलेक्शन की तरह होगा जहां कांग्रेस 145 सीटों के बावजूद लेफ्ट के सपोर्ट से सरकार बनाने में कामियाब हुई थी और न ही 1991 के जैसा होगा जहां नरसिम्हा राव ने अल्पसंख्यक कांग्रेस सरकार चलाई थी क्योंकि 250 से ज्यादा सीटें पास थीं. पर हां, ये 1996 के इलेक्शन जैसा हो सकता है जहां कांग्रेस को बाहर से सपोर्ट मिल गया था और एक एक्सपेरिमेंट के तौर पर महागठबंधन में 11 महीने के लिए देवे गौड़ा प्रधानमंत्री बने थे और अगले 10 महीने के लिए आईके गुजराल.
महागठबंधन का 2019 वाला रूप भी देवे गौड़ा और गुजराल सरकार की तरह एक अस्थिर सरकार चलाएगा. एक ऑक्टोपस की तरह इस सरकार के भी कई हाथ होंगे.
यहां भी सिक्के के दो पहलू दिखते हैं. पहला, राहुल गांधी का पूरा समय नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाने में जा रहा है. शायद उन्होंने अभी तक ये नहीं सोचा कि आर्थिक और सामाजिक सुधारों के लिए कैसे पॉलिसी बनाई जाएगी और कांग्रेस शायद 100 सीटों को जीतने में भी कामियाब न हो पाए ऐसे में 2004 जैसे रिजल्ट की संभावना ही नहीं बनती.
ऐसे में मायावती, अखिलेश और ममता बनर्जी की त्रिमूर्ति को भी इतनी ही सीटें मिल सकती हैं और ऐसे में राहुल गांधी की लीडरशिप कोई स्वीकार नहीं करेगा. ऐसे में राहुल गांधी 1996 के असफल महागठबंधन फॉर्मुले को अपना सकते हैं और मायावति या ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बना सकते हैं. जैसे देवे गौड़ा को 1996 में बनाया गया था.
ये राहुल गांधी को सही लग सकता है क्योंकि इस समय जैसा दिख रहा है राहुल गांधी का अहम उद्देश्य है मोदी को नुकसान पहुंचाना और ये कोशिश करना कि उन्हें अगली बार प्रधानमंत्री नहीं बनाया जाए. AgustaWestland और National Herald केस कांग्रेस के लिए गले की फांस बने हुए हैं और अगर मोदी को अगला टर्म मिल जाता है तो इन दोनों केस में कांग्रेस की हालत खराब हो सकती है.
हालांकि, मोदी के पास विपक्षी दल के लीडर के हिसाब से काफी समय रहेगा अपनी गलतियों को सुधारने का और उनपर मंथन करने का और ये सोचने का कि दिल्ली, नॉर्थ ईस्ट और अन्य राज्य आखिर क्यों हाथ से निकल गए.
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