प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने केंद्र में जो अपनी नयी टीम चुनी है, सबसे युवा मंत्रिमंडल (Modi Cabinet) के तौर पर देखा जा रहा है. युवा होने का मतलब ऊर्जावान होना और लंबी पारी के लिए तैयार रहना भी होता है - और ये टीम बेहद सधी रणनीति और दूरगामी सोच के साथ तैयार की गयी है.
भविष्य की राजनीति की राह कैसी होगी और कैसे समीकरण बनेंगे, ये सब बाद की बात है, लेकिन अभी तो नयी टीम के सामने कम से कम तीन साल है ही काम करने के लिए - और ये परफॉर्म करने के लिए ये कोई कम वक्त भी नहीं होता. ये टीम इस दौरान जो भी काम करेगी, वही उनके आगे के भविष्य की दशा और दिशा भी तय करने वाला है.
सर्बानंद सोनवाल और हिमंत बिस्वा सरमा मौजूदा दौर की बीजेपी में ऐसे दो मिसाल हैं, जिन्हें नये नेता अपने रोल मॉडल समझ कर अपना फ्यूचर प्लान कर सकते हैं.
सर्बानंद सोनवाल पांच साल बाद फिर से मंत्री बन गये हैं. 2016 में हुए असम विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने सर्बानंद सोनवाल को मुख्यमंत्री (BJP Chief Ministers) पद का उम्मीदवार बनाया था - और हिमंत बिस्वा सरमा को कांग्रेस से झपट लेने के बाद सर्बानंद सोनवाल के नेतृत्व में असम में बीजेपी की सरकार बनी भी और पूरे कार्यकाल चली भी. हाल के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी सर्बानंद सोनवाल के चेहरे के साथ ही चुनाव मैदान में उतरी, लेकिन चुनाव जीतने के बाद एक ऐसा फैसला लिया जो बीजेपी को लेकर मिथक तोड़ने वाला रहा.
हिमंत बिस्वा सरमा को असम का मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने उस धारणा को हमेशा के लिए खत्म कर दिया कि ऐसे पद बीजेपी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वालों को ही मिल सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के इस फैसले ने दूसरे दलों से बीजेपी में आने वाले नेताओं को बड़ी उम्मीदों से भर दिया...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने केंद्र में जो अपनी नयी टीम चुनी है, सबसे युवा मंत्रिमंडल (Modi Cabinet) के तौर पर देखा जा रहा है. युवा होने का मतलब ऊर्जावान होना और लंबी पारी के लिए तैयार रहना भी होता है - और ये टीम बेहद सधी रणनीति और दूरगामी सोच के साथ तैयार की गयी है.
भविष्य की राजनीति की राह कैसी होगी और कैसे समीकरण बनेंगे, ये सब बाद की बात है, लेकिन अभी तो नयी टीम के सामने कम से कम तीन साल है ही काम करने के लिए - और ये परफॉर्म करने के लिए ये कोई कम वक्त भी नहीं होता. ये टीम इस दौरान जो भी काम करेगी, वही उनके आगे के भविष्य की दशा और दिशा भी तय करने वाला है.
सर्बानंद सोनवाल और हिमंत बिस्वा सरमा मौजूदा दौर की बीजेपी में ऐसे दो मिसाल हैं, जिन्हें नये नेता अपने रोल मॉडल समझ कर अपना फ्यूचर प्लान कर सकते हैं.
सर्बानंद सोनवाल पांच साल बाद फिर से मंत्री बन गये हैं. 2016 में हुए असम विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने सर्बानंद सोनवाल को मुख्यमंत्री (BJP Chief Ministers) पद का उम्मीदवार बनाया था - और हिमंत बिस्वा सरमा को कांग्रेस से झपट लेने के बाद सर्बानंद सोनवाल के नेतृत्व में असम में बीजेपी की सरकार बनी भी और पूरे कार्यकाल चली भी. हाल के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी सर्बानंद सोनवाल के चेहरे के साथ ही चुनाव मैदान में उतरी, लेकिन चुनाव जीतने के बाद एक ऐसा फैसला लिया जो बीजेपी को लेकर मिथक तोड़ने वाला रहा.
हिमंत बिस्वा सरमा को असम का मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने उस धारणा को हमेशा के लिए खत्म कर दिया कि ऐसे पद बीजेपी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वालों को ही मिल सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के इस फैसले ने दूसरे दलों से बीजेपी में आने वाले नेताओं को बड़ी उम्मीदों से भर दिया है - और यही वजह है कि कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में आने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया भी मध्य प्रदेश में वो सपना पूरे होते देख रहे होंगे जो कांग्रेस में रहने मुमकिन नहीं होने वाला था - और जितिन प्रसाद जैसे नेताओं को भी निराश होने की जरूरत नहीं होनी चाहिये - या फिर सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा जैसे नेताओं को भी बीजेपी में अपना उज्ज्वल भविष्य देखने को सिर्फ हवाई किला समझने की जरूरत नहीं है.
अगर आज ज्योतिरादित्य सिंधिया भी सर्बानंद सोनवाल की तरह केंद्रीय कैबिनेट में जगह बना चुके हैं तो भविष्य में वो भी हिमंत बिस्वा सरमा की तरह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं - और अगर ऐसा वो सोचते हैं तो कोई उनको गलत भी नहीं समझेगा.
सिंधिया की ही तरह अनुराग ठाकुर से लेकर प्रधानमंत्री मोदी के नये मंत्रिमंडल में मीनाक्षी लेखी और अन्नपूर्णा देवी जैसी नेताओं के लिए भी आने वाले दिनों में ऐसी संभावना बन सकती है - कोई दो राय नहीं होनी चाहिये.
अनुराग ठाकुर
प्रकाश जावड़ेकर जैसे सीनियर बीजेपी नेता को कैबिनेट से हटाने के बाद अनुराग ठाकुर को प्रमोशन देकर सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया है. जावड़ेकर को हटाये जाने की जो वजहें समझी जा रही हैं, उस हिसाब से देखें तो अनुराग ठाकुर को मोदी कैबिनेट में अति महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली हुई है - और ये चीज एक बात समझने के लिए काफी है कि अनुराग ठाकुर का बीजेपी में कैसा रुतबा है.
हिमाचल प्रदेश से आने वाले नयी जिम्मेदारी मिलने से पहले तक अनुराग ठाकुर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के विभाग में राज्य मंत्री हुआ करते थे. बीसीसीआई के अध्यक्ष रह चुके अनुराग ठाकुर के पास ही खेल और युवा मामलों की भी जिम्मेदारी है.
अनुराग ठाकुर का एक और परिचय ये है कि वो हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके प्रेम कुमार धूमल के बेटे हैं. प्रेम कुमार धूमल को 2017 के हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था. तब खबर ये भी आयी थी कि ऐसा अमित शाह नहीं करना चाहते थे, लेकिन धूमल ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ पुराने रिश्तों के बल पर अपनी मांग पूरी करा ली, लेकिन वो भी कोई मुख्यमंत्री बनने की गारंटी तो थी नहीं. धूमल अपनी सीट से चुनाव हार गये - और वो कोई ममता बनर्जी तो थे नहीं जो तृणमूल कांग्रेस की तरह बीजेपी भी उनको ही मुख्यमंत्री बनाती.
पिछले साल जम्मू-कश्मीर में हुए डीडीसी चुनाव में बीजेपी में जिन तीन नेताओं को जिम्मेदारी मिली थी, अनुराग ठाकुर भी उनमें से एक थे. डीडीसी चुनाव की जिम्मेदारी अच्छी तरह संभालने के बाद जिस तरह नेपथ्य में चल रहे सैयद शाहनवाज हुसैन को बिहार भेजा गया है - अनुराग ठाकुर भी उसी पथ के राही लगते हैं.
दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान अनुराग ठाकुर की गिनती बीजेपी के फायरब्रांड नेताओं में होने लगी थी - जैसे जोशीले भाषण मोदी-शाह को पसंद आते हैं, अनुराग ठाकुर ने अपनी तरफ से कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी. बंगाल चुनाव में भी अनुराग ठाकुर खासे एक्टिव रहे और मोदी-शाह-नड्डा की तरह ही ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी लगातार उनके निशाने पर बने रहे.
हिमाचल प्रदेश में अगला विधानसभा चुनाव 2022 में ही होने वाला है - और अगर अभी बीजेपी का मन जयराम ठाकुर से नहीं भरा, तो आगे चल कर कभी भी अनुराग ठाकुर आसानी से रिप्लेस कर सकते हैं.
ज्योतिरादित्य सिंधिया
ज्योतिरादित्य सिंधिया को जिस तरीके से बीजेपी में आने के दिन से ही हाथोंहाथ लिया जा रहा है - लगता नहीं कि बीजेपी नेतृत्व ने उनके लिए कोई हद बना रखी है. ज्योतिरादित्य सिंधिया भी बीजेपी नेतृत्व की अपेक्षाओं पर अब तक खरे ही उतरते आये हैं.
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने न सिर्फ मध्य प्रदेश में कमलनाथ की कांग्रेस सरकार की विदायी की, बल्कि साथ आये ज्यादातर विधायकों को उपचुनाव भी जिता दिया. अपने समर्थक विधायकों को मंत्री तो वो पहले ही बनवा चुके थे. आज भी शिवराज सिंह चौहान सरकार में ज्यादा दबदबा ज्योतिरादित्य सिंधिया का ही नजर आता है.
शिवराज सिंह चौहान को भी बीजेपी में वाजपेयी-आडवाणी युग का ही नेता माना जाता है. जिस तरह से मोदी सरकार से पुराने नेताओं की विदायी होती जा रही है, शिवराज सिंह चौहान भी कुर्सी पर तभी तक कायम हैं जब तक बीजेपी को उनका विकल्प नहीं मिल जाता.
हिमंत बिस्वा सरमा को असम का मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद जिन लोगों को सबसे ज्यादा खुशी हुई होगी उनमें से एक सिंधिया भी निश्चित रूप से होंगे - मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने का सपना तो उनके पिता माधवराव सिंधिया का भी अधूरा रह गया, लेकिन लगता है पिता के साथ साथ उनको अपना सपना पूरा करने में थोड़ी देर भले हो लेकिन अंधेर नहीं ही है.
मनसुख मंडाविया
मनसुख मंडाविया को कोरोना संकट काल में स्वास्थ्य मंत्रालय की जिम्मेदारी दिया जाना सिर्फ महत्वपूर्ण या चुनौतीपूर्ण ही नहीं है, बल्कि अपेक्षाएं भी अपार हैं. कोविड 19 के कहर के दौरान बदइंतजामी और तमाम नाकामियों के लिए ही डॉक्टर हर्षवर्धन की स्वास्थ्य मंत्रालय से छुट्टी कर दी गयी, ऐसा समझा गया है.
मंडाविया को भी प्रमोशन देकर कैबिनेट दर्जा दिया गया है - और माना जाता है कि ये कोरोना काल में रसायन और उर्वरक राज्य मंत्री के तौर पर किये गये काम का इनाम भी है. मंडाविया ने जब देखा कि जरूरी दवाओं की किल्लत हो रही है, तो आगे बढ़ कर दवा निर्माता कंपनियों से खुद संपर्क किया और सुनिश्चित किया कि तेजी से दवाएं बनायी जा सकें.
कैबिनेट मंत्री के तौर स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ साथ मंडाविया के पास ही केमिकल एंड फर्टिलाइजर की भी जिम्मेदारी आ चुकी है. दरअसल, दवाएं बनाने का काम केमिकल और फर्टिलाइजर मंत्रालय के पास होता और उसके बाद स्वास्थ्य मंत्रालय का काम शुरू होता है - आगे से कोऑर्डिनेशन में कोई दिक्कत न आये ये सोचकर दोनों मंत्रालयों की जिम्मेदारी मंडाविया को दी गयी है - और ये बात ही मोदी-शाह की नजर में उनकी अहमियत का सबूत भी है.
मंडाविया गुजरात के पाटीदार तबके से आते हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने पाटीदार नेता आनंदीबेन पटेल को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले हार्दिक पटेल के पाटीदार आंदोलन को कंट्रोल करने में फेल होने की वजह से आनंदी बेन पटेल ने इस्तीफा दे दिया था. फिलहाल उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन तब चाहती थीं कि पटेल समुदाय से ही किसी को मुख्यमंत्री बनाया जाये, लेकिन अमित शाह ने अपने पसंदीदा विजय रुपाणी को चुनाव जिताने की गारंटी देकर कुर्सी पर बिठा दिया - और पाटीदार नेता के रूप में नितिन पटेल को डिप्टी सीएम बनाया गया.
जिस तरह से गुजरात में अमित शाह के डेरा डाल देने और आखिरी दौर में प्रधानमंत्री मोदी के मोर्चा संभालने के बाद भी विजय रुपाणी विधानसभा सीटों की संख्या 100 तक नहीं पहुंचा सके, आने वाले 2022 के चुनाव तक उनके बने रहने में भी संशय है.
गुजरात को जिस तरह के तेज तर्रार और एक युवा पाटीदार नेता की जरूरत है, मनसुख मंडाविया खांचे में पूरी तरह फिट बैठते हैं - और भविष्य में बीजेपी की तरफ से उनके गुजरात की कमान संभालने की प्रबल संभावना भी बनती है.
अन्नपूर्णा देवी
झारखंड से आने वाली अन्नपूर्णा देवी पहली बार 2019 में संसद पहुंची. कभी लालू प्रसाद की बेहद करीबी नेता समझी जाने वाली अन्नपूर्णा देवी आम चुनाव से पहले ही बीजेपी में आयी थीं - और अब मोदी कैबिनेट में शामिल हो चुकी हैं.
अन्नपूर्णा देवी के भी झारखंड के मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता - क्योंकि सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी को अन्नपूर्णा देवी जैसी ही एक नेता की जरूरत है - और वो रघुबर दास की उत्तराधिकारी निश्चित तौर पर हो सकती हैं.
2019 में सत्ता गंवाने के बाद से ही बीजेपी नेतृत्व ने रघुबर दास को लेकर मुंह मोड़ लेने जैसा व्यवहार किया. रघुबर दास को न तो प्रदेश बीजेपी की कमान दी गयी और न ही विधानमंडल दल का नेता बनाया गया - और अब भी बीजेपी को झारखंड में एक ऐसे नेता की आवश्यकता है जो अगले चुनाव में हेमंत सोरेन को चैलेंज कर सके.
सुदेश महतो के साथ बीजेपी का गठबंधन तो चुनावों के दौरान ही टूट गया था - बाद में बाबूलाल मरांडी भी बीजेपी में लौट आये हैं, लेकिन लगता नहीं कि बीजेपी की अगली बार मरांडी या अर्जुन मुंडा को आगे करने की कोई योजना होगी - ऐसे में उम्मीद की किरण अन्नपूर्णा देवी पर जाकर ही ठहर रही है.
मीनाक्षी लेखी
2019 में झारखंड और उसके ठीक बाद 2020 के शुरू में दिल्ली विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में एक लेख दिल्ली बीजेपी को लेकर ही प्रकाशित हुआ था - लेख में दिल्ली बीजेपी को साफ शब्दों में समझाने की कोशिश थी कि वे नयी लीडरशिप तैयार करें क्योंकि हर चुनाव में जीत के लिए मोदी-शाह के भरोसे रहना ठीक नहीं है और ऐसा वे बार बार कर भी नहीं सकते.
दिल्ली में पूर्वांचल के लोगों की आबादी और वोट बैंक के मद्देनजर ही मनोज तिवारी को अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन विधानसभा चुनावों के दौरान ही महसूस होने लगा था कि बीजेपी नेतृत्व ने हटाया भले न हो लेकिन ढो ही रहा है. ऐसा तब साफ हो गया जब अमित शाह ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को दिल्ली से ही दूसरे सांसद प्रवेश वर्मा से बहस करने की चुनौती दे डाली.
बहरहाल, चुनाव बाद मनोज तिवारी को हटा भी दिया गया. दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष बनने की उम्मीद में प्रवेश वर्मा भी रहे क्योंकि अनुराग ठाकुर की तरह चुनावों के दौरान उनके बयान भी विवादित रहे और खूब सुर्खियां बटोरे थे.
2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही बीजेपी को दिल्ली में एक ऐसे चेहरे की जरूरत महसूस हो रही है जो अरविंद केजरीवाल को सीधे सीधे टक्कर दे सके. वैसे बीजेपी नेतृत्व ये भूल गया कि जब दुनिया भर में शोहरत हासिल करके अरविंद केजरीवाल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हराया था, तो भी डॉक्टर हर्षवर्धन ने बीजेपी को सबसे ज्यादा सीटें दिलायी थी.
2015 के दिल्ली चुनाव में बीजेपी ने किरण बेदी को आजमाया, लेकिन सारी कवायद बेकार गयी. 2020 में अमित शाह ने बीजेपी को प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ाया लेकिन नाकाम रहे - अब बीजेपी को दिल्ली में जैसे नेता की जरूरत है, मीनाक्षी लेखी एक दावेदार तो हैं ही.
मीनाक्षी लेखी के बारे में भी खबर रही कि 2019 में उनका टिकट कट सकता है, लेकिन तभी वो सुप्रीम कोर्ट चली गयीं और उनकी याचिका दायर करने के बाद ही राहुल गांधी को राफेल के मुद्दे पर अदालत से माफी मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा. मीनाक्षी लेखी का टिकट तो बरकरार रहा ही, अब मनोज तिवारी और प्रवेश वर्मा या दूसरे नेताओं को दरकिनार कर जिस तरीके से मोदी कैबिनेट में जगह दी गयी है - मीनाक्षी लेखी आने वाले दिनों में दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के लिए बीजेपी का चेहरा बनती हैं तो कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिये.
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