प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के आत्मनिर्भर भारत अभियान (Atmanirbhar Bharat Mission) का मकसद तो यही है कि हर बात के लिए सारे लोग सरकार का मुंह न देखते रहें - जितना भी संभव हो सके खुद भी कुछ न कुछ करें और अपने आस पास के लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रेरित करें.
जब देश का प्रत्येक नागरिक आत्मनिर्भनर बनने की कोशिश करेगा तो सरकार पर काम का बोझ कम होगा - और सरकार लोगों की बुनियादी जरूरतों को छोड़ आगे के बारे में सोचेगी. ये समझाइश भी इसीलिए रही है कि कोई ये न सोचे कि सरकार ने आपके लिए क्या किया - हमेशा लोग ये सोचें कि देश के लिए हमने क्या किया? अगर लोगों में ऐसा सोचने की आदत पड़ गयी तो कुछ गड़बड़ होने की स्थिति में भी लोग सरकार को दोष देने की जगह अपने में ही खामी खोजेंगे - सत्ता की राजनीति में ये बड़ा ही सुविधा जनक फॉर्मूला है.
सोशल मीडिया पर तो ये अवधारणा स्थापित सी हो चुकी थी कि अगर कोई सरकार को लेकर सवाल उठाये तो कुछ लोगों का जत्था टूट पड़ता था और सवाल उठाने वालों को कोसने लगता था, लेकिन अब वो बात नहीं रही. शायद इसलिए क्योंकि ये सब वे ही कर पाते थे जिनको कोई दिक्कत नहीं आती थी. कोविड के डबल म्यूटेंट वाले दौर में बड़ी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कदम कदम पर जूझ रही है, बड़ी मुश्किल से काफी मशक्कत के बाद कहीं कोई थोड़ी बहुत मिल पा रही है.
2020 में कोविड के पहले दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता सामने आत्मनिर्भर बनाने का प्रस्ताव रखा था - लगता है लोगों ने इसे अपने अपने तरीके से समझा और काम पर लग गये. मौजूदा दौर में स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में लोगों को मोदी का वही मंत्र काम आ रहा है - क्योंकि अस्पताल में बेड हासिल करने से लेकर ऑक्सीजन और जरूरी दवाओं तक के इंतजाम खुद ही करने पड़ रहे हैं.
लेकिन ये सब ज्यादा नहीं चलने वाला क्योंकि बीजेपी नेताओं (BJP Politics) को आत्मनिर्भर भारत का ये रूप बेहद डरावना लग रहा है - इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में ऐसे कई बीजेपी नेता मिले हैं जो गुमनाम होकर...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के आत्मनिर्भर भारत अभियान (Atmanirbhar Bharat Mission) का मकसद तो यही है कि हर बात के लिए सारे लोग सरकार का मुंह न देखते रहें - जितना भी संभव हो सके खुद भी कुछ न कुछ करें और अपने आस पास के लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रेरित करें.
जब देश का प्रत्येक नागरिक आत्मनिर्भनर बनने की कोशिश करेगा तो सरकार पर काम का बोझ कम होगा - और सरकार लोगों की बुनियादी जरूरतों को छोड़ आगे के बारे में सोचेगी. ये समझाइश भी इसीलिए रही है कि कोई ये न सोचे कि सरकार ने आपके लिए क्या किया - हमेशा लोग ये सोचें कि देश के लिए हमने क्या किया? अगर लोगों में ऐसा सोचने की आदत पड़ गयी तो कुछ गड़बड़ होने की स्थिति में भी लोग सरकार को दोष देने की जगह अपने में ही खामी खोजेंगे - सत्ता की राजनीति में ये बड़ा ही सुविधा जनक फॉर्मूला है.
सोशल मीडिया पर तो ये अवधारणा स्थापित सी हो चुकी थी कि अगर कोई सरकार को लेकर सवाल उठाये तो कुछ लोगों का जत्था टूट पड़ता था और सवाल उठाने वालों को कोसने लगता था, लेकिन अब वो बात नहीं रही. शायद इसलिए क्योंकि ये सब वे ही कर पाते थे जिनको कोई दिक्कत नहीं आती थी. कोविड के डबल म्यूटेंट वाले दौर में बड़ी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कदम कदम पर जूझ रही है, बड़ी मुश्किल से काफी मशक्कत के बाद कहीं कोई थोड़ी बहुत मिल पा रही है.
2020 में कोविड के पहले दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता सामने आत्मनिर्भर बनाने का प्रस्ताव रखा था - लगता है लोगों ने इसे अपने अपने तरीके से समझा और काम पर लग गये. मौजूदा दौर में स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में लोगों को मोदी का वही मंत्र काम आ रहा है - क्योंकि अस्पताल में बेड हासिल करने से लेकर ऑक्सीजन और जरूरी दवाओं तक के इंतजाम खुद ही करने पड़ रहे हैं.
लेकिन ये सब ज्यादा नहीं चलने वाला क्योंकि बीजेपी नेताओं (BJP Politics) को आत्मनिर्भर भारत का ये रूप बेहद डरावना लग रहा है - इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में ऐसे कई बीजेपी नेता मिले हैं जो गुमनाम होकर ये भयावह स्थिति से चिंतित है!
मोदी के मिशन में राजनीतिक लोचा कैसे आ गया?
सोवियत गणराज्य के जमाने के लोकप्रिय नेता मिखाइल गोर्बाचोव के पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त जैसे कार्यक्रमों की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत अभियान मिशन से सीधे सीधे तो नहीं लेकिन परोक्ष रूप से तुलना तो हो ही सकती है - कम से कम एक बात तो कॉमन है ही दोनों कार्यक्रमों का मकसद देश और समाज में खुशहाली लाने का है.
तीन दशक पहले जब सोवियत संघ एक मुल्क हुआ करता था, तभी मिखाइल गोर्बाचोव पेरेस्त्रोइका-ग्लासनोस्त को मिशन के रूप में आगे बढ़ाया था. पेरेस्त्रोइका से आशय पुनर्गठन और ग्लासनोस्त का मतलब पारदर्शिता से था. एक दौर आया जब मिखाइल गोर्बाचोव को अपने ही सुधारवादी कार्यक्रमों के खतरनाक नतीजे सामने आने लगे. वो तो बोरिस येल्तसिन जैसा सहयोगी रहा जो मिखाइल गोर्बाचोव के खिलाफ तख्तापलट की कोशिश नाकाम कर दिया था - तब बोरिस येल्त्सिन, मिखाइल गोर्बाचोव के वैसे ही सहयोगी हुआ करते थे जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी उनके कैबिनेट साथी अमित शाह हैं.
ये तो हमारे लोकतंत्र की मजबूत जड़ें हैं कि भारत में न तो तख्तापलट जैसा कोई खतरा आने वाला है - और न ही अमित शाह को कभी बोरिस येल्त्सिन वाले रोल में आने की जरूरत पड़ने वाली है, लेकिन कोविड संकट के इस दौर में जिस तरह से लोग अपनों की जिंदगी बचाने के लिए सड़कों पर जूझ रहे हैं - ऐसा लगने लगा है कि जीने का संघर्ष अब अकेला संघर्ष बन चुका है.
हो सकता है मदद के लिए घर परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों के अलावा समाज के बीच से ही कोई मदद करने वाला मसीहा बन कर सामने आ जाये - लेकिन सरकार से तो उम्मीद ही बेकार हो चली है.
अस्पताल ऑक्सीजन का इंतजाम नहीं कर पा रहे तो मदद के लिए सरकारी अमले से निराश होकर कोर्ट पहुंच रहे हैं. कोर्ट में सुनवाई तो हो रही है. सरकार को नोटिस भी भेजी जा रही है. सवाल जवाब भी हो रहे हैं. दोनों तरफ के वकीलो में गर्मागर्म बहस भी हो रही है - लेकिन फिर सुनवाई की अलगी तारीख हफ्ते भर बाद मुकर्रर हो जा रही है. फर्ज कीजिये हफ्ते भर में मुसीबत में पड़े लोगों की दुनिया कहां से कहां पहुंच जाएगी.
हाई कोर्ट सरकार को फटकारते हुए कह रहा है कि जीने का अधिकार मौलिक अधिकार है - लेकिन विडम्बना ये है कि इस अधिकार की रक्षा की जिम्मेदारी भी खुद के हाथों में ही आ पड़ी है - ऐसा लगता है जैसे सरकार को ऐसी चीजों से कोई मतलब नहीं रह गया हो.
अब हर कोई दशरथ मांझी जैसा तो पैदा नहीं होता कि पहाड़ काट कर अकेले सड़क ही बना डाले, फिर भी एक एक सांस के लिए सड़कों पर बेहाल परेशान लोगों का संघर्ष दशरथ मांझी से कम भी नहीं लग रहा है.
कहीं ऐसा तो नहीं लोगों को आत्मनिर्भरता का मूल मंत्र देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भूल गये कि मंत्र तो तभी फलेगा जब उसके मूल में खुद वो और उनका सरकारी अमला तैनात रहेगा?
ऐसा भी नहीं है कि कोरोना वायरस के खतरे से सिर्फ आम लोगों में जिंदा बचे रहने का खतरा महसूस हो रहा हो, बीजेपी में नीचे से ऊपर तक अपनी राजनीति के कायम रहने को लेकर भी डर समाने लगा है - और ये इसलिए नहीं कि बीजेपी के कई नेता कोरोना वायरस के शिकार हो रहे हैं, बल्कि इसलिए कि वे लोगों की मदद करने में खुद को बेबस महसूस करने लगे हैं.
डर गये हैं बीजेपी नेता
एक जमाना रहा जब विश्वविद्यालयों में हर छात्रनेता के इर्द गिर्द उसके होम टाउन से आने वाले नवयुवकों की भीड़ लगी रहती थी - सबको उम्मीद रहती थी कि वो जैसे भी हो एडमिशन दिला ही देगा. चाहे स्पोर्ट्स कोटे से चाहे किसी और जुगाड़ से.
विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति तभी तक चमकती रही जब तक छात्रनेताओं से उनके इलाके के लोगों को एडमिशन दिला देने की उम्मीद बनी रही. जैसे ही जगह जगह विश्वविद्यालय प्रशासन ने सख्ती बरती और डंडे के बल पर छात्र राजनीति को कुचल दिया - सारा खेल खत्म हो गया.
बीएचयू में तो कई छात्र नेताओं की राजनीति सिर्फ अस्पताल में इलाके के लोगों के इलाज कराने से चमक उठी. यूनिवर्सिटी छोड़ते ही ऐसे छात्रनेता उसी मदद की बदौलत विधायक और सांसद तक बने.
लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के अमल में आने के बावजूद छात्र राजनीति में अब वो पुरानी तासीर नहीं रही - हां, अब छात्र राजनीति मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ने या उसमें एंट्री पाने का रास्ता जरूर बनी हुई है. लेकिन विश्वविद्यालय या कॉलेजों में छात्रनेताओं से अब कोई वैसी उम्मीद के साथ नहीं देखता. और अब वही हाल मुख्यधारा की राजनीति के साथ होने जा रहा है - अगर अपने नेता से, जन प्रतिनिधि से, विधायक या सांसद से लोगों को मुसीबत के वक्त मदद नहीं मिलती, फिर कोई क्यों उनकी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखेगा.
जब सत्ताधारी दल के नेता को भी जिंदगी की मौजूदा जंग में भी हाथ खड़े करने को मजबूर होना पड़े तो भला क्यों कोई उनकी हनक का कायल रहेगा - और इस उम्मीद में पूरे वक्त सलामी ठोकते या हाजिरी लगाते रहेगा कि किसी दिन क्या पता काम आ ही जायें.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मीटिंग में अरविंद केजरीवाल भी कह रहे थे कि वो मुख्यमंत्री होकर भी किसी की मदद नहीं कर पा रहे हैं. हो सकता है अरविंद केजरीवाल के बयान में कोई राजनीतिक रणनीति भी हो, लेकिन कांग्रेस या दूसरे विपक्षी दलों के नेताओं की कौन कहे, बीजेपी के नेताओं को भी हाथ खड़े कर कोई न कोई बहाना बना कर बच निकलना पड़ रहा है.
बीजेपी के एक बड़े पदाधिकारी इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहते हैं, 'आज कर जब भी फोन की घंटी बजती है मैं डर जाता हूं. ये भगवान ही जानता है कि कैसी मदद की गुजारिश हो. अस्पताल में बेड दिलाने से लेकर रेमडेसिविर इंजेक्शन और ऑक्सीजन के साथ साथ टेस्ट करा देने तक के लिए मदद मांगी जा रही है - दिन भर ऐसे फोन आते रहते और उनकी मदद करना बहुत मुश्किल हो रहा है.'
रिपोर्ट के मुताबिक ये एक ऐसे नेता का हाल है जिनका अपने राज्य के प्रशासन में अच्छा नेटवर्क है, लेकिन वो व्यवस्था की खामियों को अच्छी तरह समझ भी रहे हैं. कहते हैं, 'पैसे और राजनीतिक संपर्कों से भी किसी को मदद नहीं मिल रही है और यही वजह है कि लोग गुस्से में हैं और उनका धैर्य जवाब देने लगा है.'
ऐसे ही एक बीजेपी शासित राज्य के प्रदेश अध्यक्ष बताते हैं, 'पिछली बार ज्यादा से ज्यादा खाने और दिहाड़ी मजदूर या गरीबों के लिए ट्रांसपोर्ट की जरूरत हुआ करती थी - और बेड, ऑक्सीजन या रेमडेसिविर के इंतजाम के मुकाबले वो काफी आसान काम रहा.'
जरा सोचिये कितनी भयावह स्थिति है - बीजेपी नेता इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं, 'हर तरफ अफरातफरी और तनावपूर्ण स्थिति है. हम सब अपने कार्यकर्ताओं की रिक्वेस्ट भी नहीं पूरी कर पा रहे हैं. हमारे लोग और उनके करीबी भी जान गंवाने को मजबूर हैं क्योंकि हम उनकी मदद नहीं कर पा रहे हैं - बड़ी संकटपूर्ण स्थिति हो चली है.'
लगता तो ऐसा है जैसे सारी ऊर्जा चुनाव लड़ने में चली जा रही हो - और जो बची खुची होती है उसकी बदौलत ही देश का बाकी कामकाज चलता है. अब बची खुची ऊर्जा से ही विकास और बुनियादी सुविधाओं की गाड़ी आगे बढ़ाने की कोशिश होगी तो भला क्या होगा - वही होगा जो फिलहाल सामने है!
एक जमाना था जब लोग टेलीफोन कनेक्शन और रसोई गैस कनेक्शन के लिए अपने सांसदों विधायकों के पास फरियाद लेकर पहुंचते थे. बीमारी की हालत में अस्पतालों में दाखिले और बेड के लिए गुजारिश करते थे. बगैर लाइन में लगे एम्स में इलाज की सुविधा के लिए तो हाल तक ऐसा होता रहा. रेल यात्रा के लिए टिकट कंफर्म कराने के लिए भी - अगर पांच लोगों वाले पीएनआर नंबर पर एक या दो सीट भी कंफर्म हो जाये तो एहसानमंद रहते थे.
और नेताओं की राजनीति बस इतनी सी मदद से भी चमकी रहती थी - बगैर किसी पद पर होते हुए भी, लेकिन ये गुजरे दिनों की बात हो चली है.
कोरोना संकट के दौर में सारे नेता हाथ खड़े कर दे रहे हैं - इसलिए नहीं कि वे मदद करना नहीं चाहते, बल्कि इसलिए क्योंकि वे मदद करने की स्थिति में ही नहीं हैं - ये हाल दूसरे दलों के नेताओं की कौन कहे - केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के नेताओं की है.
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