प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने कुंभ को प्रतीकात्मक रखने के की अपील के बावजूद पश्चिम बंगाल में रैली की और भीड़ को देख कर खुशी का इजहार किया - और ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था कि चुनावों के दौरान कोविड के खतरे को लेकर बीजेपी की चुनावी मुहिम पर प्रधानमंत्री की कुंभ वाली अपील का कोई असर हुआ हो है.
लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अपनी रैलियों पर खुद ही लगाम कस लेने के बाद बीजेपी तत्काल प्रभाव से काफी दबाव में आ गयी - और फिर फौरन ही पार्टी ने प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां छोटी कर दिये जाने का फैसला लिया और सबके साथ साझा भी किया.
एक सहज सा सवाल है कि क्या ये सब पहले नहीं हो सकता था?
भला बीजेपी के लिए इससे बड़ी बेइज्जती की बात क्या होगी कि उसे अपने से काफी कमजोर किसी राजनीतिक विरोधी दल के दबाव में अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ रहा हो?
और जब प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां छोटी कर दी गयीं तो चुनाव आयोग (Election Commission) अपनी जिद पर क्यों अड़ा हु्आ है?
चुनाव आयोग ने सर्वदलीय बैठक भी बुलायी थी - और वहां भी ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने अपनी मांग दोहरायी कि आखिरी दौर की वोटिंग एक साथ करा ली जाये, लेकिन आयोग ने खारिज कर दिया. हां, भारतीय जनता पार्टी बाकी बचे चुनाव एक साथ कराये जाने के पक्ष में तब नहीं थी. ये बातें तब की हैं जब सिर्फ चार चरणों के मतदान हुए थे. अब बीजेपी की तरफ से अमित मालवीय का बयान है कि अगर चुनाव आयोग ऐसा कोई विचार रखता है तो बीजेपी उस विचार जरूर करेगी.
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल के चुनाव पर्यवेक्षकों ने आयोग को पत्र लिख कर आखिरी दौर के बचे चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश भी की है, लेकिन...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने कुंभ को प्रतीकात्मक रखने के की अपील के बावजूद पश्चिम बंगाल में रैली की और भीड़ को देख कर खुशी का इजहार किया - और ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था कि चुनावों के दौरान कोविड के खतरे को लेकर बीजेपी की चुनावी मुहिम पर प्रधानमंत्री की कुंभ वाली अपील का कोई असर हुआ हो है.
लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अपनी रैलियों पर खुद ही लगाम कस लेने के बाद बीजेपी तत्काल प्रभाव से काफी दबाव में आ गयी - और फिर फौरन ही पार्टी ने प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां छोटी कर दिये जाने का फैसला लिया और सबके साथ साझा भी किया.
एक सहज सा सवाल है कि क्या ये सब पहले नहीं हो सकता था?
भला बीजेपी के लिए इससे बड़ी बेइज्जती की बात क्या होगी कि उसे अपने से काफी कमजोर किसी राजनीतिक विरोधी दल के दबाव में अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ रहा हो?
और जब प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां छोटी कर दी गयीं तो चुनाव आयोग (Election Commission) अपनी जिद पर क्यों अड़ा हु्आ है?
चुनाव आयोग ने सर्वदलीय बैठक भी बुलायी थी - और वहां भी ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने अपनी मांग दोहरायी कि आखिरी दौर की वोटिंग एक साथ करा ली जाये, लेकिन आयोग ने खारिज कर दिया. हां, भारतीय जनता पार्टी बाकी बचे चुनाव एक साथ कराये जाने के पक्ष में तब नहीं थी. ये बातें तब की हैं जब सिर्फ चार चरणों के मतदान हुए थे. अब बीजेपी की तरफ से अमित मालवीय का बयान है कि अगर चुनाव आयोग ऐसा कोई विचार रखता है तो बीजेपी उस विचार जरूर करेगी.
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल के चुनाव पर्यवेक्षकों ने आयोग को पत्र लिख कर आखिरी दौर के बचे चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश भी की है, लेकिन अभी तक सूत्रों के हवाले से आई खबर के अलावा कुछ भी आधिकारिक तौर पर बताया गया सामने नहीं आया है.
कोविड की वजह से पश्चिम बंगाल में आम आदमी का जो हाल है वो तो है ही, अलग अलग इलाकों में दो उम्मीदवारों की भी मौत हो चुकी है - और चार कोविड पॉजिटिव पाये गये हैं, जब सत्ताधारी बीजेपी भी कोविड के चलते कदम पीछे खींचने को तैयार हो गयी - तो चुनाव आयोग आखिर किस बात का इंतजार कर रहा है?
बीजेपी की रैलियों में अब भीड़ 500 से ज्यादा नहीं होगी
पश्चिम बंगाल में अभी तीन चरणों के चुनाव बचे हुए हैं - और अब 22 अप्रैल, 26 अप्रैल और 29 अप्रैल को वोट डाले जाने हैं - और नतीजे तो एक ही साथ 2 मई को ही आएंगे.
बीजेपी ने राजनीतिक दबाव में आकर ही सही, कोविड के खतरों से मुकाबले की तरकीबें तो निकाली ही हैं, सबसे बड़ी बात है प्रधानमंत्री मोदी सहित सभी बीजेपी नेताओं की रैलियों में भीड़ की लिमिट तय कर दिया जाना.
बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तत्काल प्रभाव से बीजेपी की बड़ी रैलियों पर रोक लगाते हुए रैलियों में लोगो की तादाद की लिमिट 500 तय कर दी है. बीजेपी अब रैलियों में कोरोना प्रोटोकॉल का पूरी तरह पालन करते हुए छोटी छोटी पब्लिक मीटिंग या रैलियां ही करेगी. कोशिश ये भी होगी कि खुली जगहों पर ही ये रैलियां हों.
जेपी नड्डा ने 'मेरा बूथ कोरोना मुक्त' अभियान को तो हरी झंडी पहले ही दिखा दिया था, बताया जा रहा है कि बीजेपी की तरफ से 6 करोड़ मास्क बांटे जाने हैं - और सैनिटाइजर भी लोगों को दिये जाएंगे.
बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपनी रैलियों का जो नया फॉर्मैट तैयार किया है उसका नमूना 23 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में देखने को मिलेगा - और जैसा बताया जा रहा है उससे तो ऐसा लगता है जैसे केंद्रीय गृह मंत्री ने बिहार चुनाव से पहले जो डिजिटल रैली की थी उसकी ही झलक देखने को मिलने वाली है.
बीजेपी के आईटी सेल के हेड अमित मालवीय के मुताबिक, प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रम में लोगों की मौजूदगी तो पहले जैसी ही होगी, लेकिन वो फीजिकल की जगह वर्चुअल होगी - और इसके लिए एक हाइब्रिड मॉडल तैयार किया गया है.
23 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चार कार्यक्रमों को संबोधित करेंगे - और ये कार्यक्रम होंगे - मालदा, मुर्शिदाबाद, बीरभूम और दक्षिण कोलकाता में. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो एक ही जगह होंगे, लेकिन वो सभी जगह मौजूद लोगों से कनेक्ट होंगे. ये कार्यक्रम वहां आस पास के विधानसभा क्षेत्र, मंडल और बूथ स्तर तक लोगों तक पहुंचेगा.
23 अप्रैल का ये कार्यक्रम एक साथ 56 जगहों पर दिखाने की कोशिश होगी - जो बीजेपी के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एक ही साथ लाइव स्ट्रीम के जरिये देखा और दिखाया जा सकेगा.
जैसे शादी-ब्याह और अंतिम संस्कार के लिए कोविड प्रोटोकॉल में हिस्सा लेने वाले संभावित लोगों की लिमिट पहले से तय की हुई है, वैसे ही अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित किसी भी बीजेपी नेता की रैलियों में आने वाली भीड़ भी 500 से ज्यादा नहीं होने जा रही है - और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तत्काल प्रभाव से लागू कर दिया है.
जहां तक बड़ी रैलियों से बचने का सवाल है, सबसे पहले ये पहल सीपीएम की तरफ से आयी. सीपीएम ने बड़ी चुनावी रैलियों की जगह लोगों से घर घर जाकर और सोशल मीडिया के जरिये संपर्क करने का फैसला किया - और उसके बाद राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल में अपनी सारी रैलियां कोविड के बुरी तरह फैलने की वजह बताते हुए रद्द कर दी. फिर ममता बनर्जी ने ऐलान किया कि वो कोलकाता में कोई बड़ी रैली नहीं करेंगी - और लोगों से अलग तरीके से संपर्क कर चुनाव प्रचार जारी रखने की कोशिश करेंगी.
पहले तो राहुल गांधी के राजनीतिक विरोधी यही कहते रहे कि चूंकि कांग्रेस वैसी भी हार रही है, इसलिए रैलियां रद्द करके ये राहुल गांधी के महान बनने की कवायद भर है. तभी राहुल गांधी ने ट्विटर पर खुद के कोरोना पॉजिटिव होने की जानकारी दे दी - ये जानते ही बीजेपी समर्थक सोशल मीडिया पर एक्टिव हो गये - और समझाने लगे कि राहुल गांधी की रैलियां रद्द करने की वजह पश्चिम बंगाल के लोगों की फिक्र नहीं बल्कि उनकी अपनी सेहत रही.
बचे चुनाव एक साथ कराने मुमकिन हैं, बशर्ते...
खबर आयी है कि चुनाव पर्यवेक्षक आखिरी दौर के चुनाव एक साथ कराये जाने को तैयार हैं, लेकिन इसके लिए उनको और सुरक्षा बलों की जरूरत होगी. रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में फिलहाल सुरक्षाबलों की 1000 कंपनियां तैनात हैं. ध्यान रहे, ऐसी हर कंपनी में 80 जवान होते हैं. चुनाव पर्यवेक्षक आखिरी दौर के चुनाव एक साथ कराने के लिए मौजूदा जवानों के अतिरिक्त 500 कंपनियों की जरूरत समझ रहे हैं.
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि पश्चिम बंगाल में तैनात चुनाव पर्यवेक्षक अजय नायक और विवेक दूबे ने चुनाव आयोग को इस सिलसिले में पत्र भी लिख रखा है, लेकिन कहते हैं उनके सुझावों को लेकर उनको आयोग की तरफ जवाब नहीं मिला है.
रिपोर्ट में पर्यवेक्षकों का पत्र देखने वाले एक अधिकारी के हवाले से बताया गया है कि कोरोना पैंडेमिक की वजह से अंतिम दो चरणों के मतदान एक साथ कराने का सुझाव दे रखा है. रिपोर्ट के मुताबिक, पत्र में इस बात का भी जिक्र है कि पश्चिम बंगाल के चुनाव आयुक्त के दफ्तर के कम से कम दो दर्जन कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं - और उम्मीदवारों की मौत तक हो चुकी है.
पश्चिम बंगाल में पांच चरण के चुनाव पहले ही हो चुके हैं और छठवें चरण के लिए वोटिंग 22 अप्रैल को होनी है, लिहाजा वक्त बिलकुल नहीं बचा है. ऐसे में दोनों पर्यवेक्षकों की सलाह है कि सातवें और आठवें चरण के लिए वोटिंग साथ करा ली जाये.
लेकिन आयोग के एक अन्य अधिकारी के हवाले से रिपोर्ट में बताया गया है कि पोल पैनल पर्यवेक्षकों की सलाह स्वीकार नहीं कर सकता और उसके दो मुख्य कारण हैं. एक, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत ऐसा करना उम्मीदवारों के अधिकार का उल्लंघन होगा और दूसरा, अतिरिक्त सुरक्षा बलों को बुलाने के लिए उनको एडवांस में सूचना देनी होती है और फिलहाल इतना समय है नहीं.
पश्चिम बंगाल में कोरोना वायरस की सही स्थिति तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही मालूम हो पाएगी, लेकिन जो रिपोर्ट आ रही है उसके मुताबिक 24 घंटे में 10 हजार से ज्यादा केस दर्ज किये जा रहे हैं.
महाराष्ट्र का हाल तो सबसे बुरा है, लेकिन यूपी और बिहार की स्थिति भी वैसे ही बेकाबू नजर आ रही है, लेकिन पंचायत चुनावों के कार्यक्रम पर कोई असर नहीं देखने को मिला है. उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों के लिए वोटिंग का दौर चल रहा है और उसके बाद बिहार की बारी है - लेकिन कोविड से उपजे हालात को लेकर चुनाव आयोग को कोई फिक्र हो ऐसा नहीं लगता.
बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन क्या ये सब पहले ही नहीं हो सकता था. चुनाव आयोग ने कोविड प्रोटोकॉल तो शुरू से ही लागू किया हुआ है, फिर अब क्यों उसके अनुपालन की बात हो रही है.
सवाल ये भी है कि अगर सभी राजनीतिक दल कोविड प्रोटोकॉल के दायरे में रह कर चुनाव प्रचार की बात कर रहे हैं, तो क्या इससे पहले वास्तव में प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ायी जा रही थीं - और चुनाव आयोग हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा?
ऐसा क्यों लगता है कि चुनाव आयोग पर ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की तरफ से लगाये जा रहे इल्जाम बेबुनियाद और महज राजनीतिक नहीं हैं - देर सबेर चुनाव आयोग को देश के सामने आकर तस्वीर साफ करनी ही होगी कि आखिर किन मजबूरियों ने उसे खामोश किया हुआ था?
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