प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर हुए हाल के सभी सर्वे एक जैसे ही नतीजे पेश कर रहे हैं. एग्जिट पोल की तरह ऐसा नहीं हो रहा है कि एक-दो सर्वे के रिजल्ट बाकियों से मेल नहीं खा रहे हों या उनके उलट हैं - मतलब ये कि मोदी सरकार या राज्यों की बीजेपी सरकारों को मिल सकने वाले बेनिफिट ऑफ डाउट के चांस बहुत ही कम हो गये हैं.
अभी जनवरी की ही तो बात है - इंडिया टुडे और कार्वी इनसाइट्स के सर्वे मूड ऑफ द नेशन में 73 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज को बेहतर माना था. सर्वे में 23 फीसदी लोगों ने शानदार और 50 फीसदी लोगों ने अच्छा माना था.
और ये तभी की बात जिसके कुछ ही दिन बाद मोदी सरकार ने कोरोना वायरस से मुकाबले में जीत का जश्न मनाया था, लेकिन तभी कोविड 19 की दूसरी लहर आयी और सारी वाहवाही मिट्टी में मिल गयी.
वाजपेयी के दौर के एनडीए शासन की तरह ही मोदी काल में भी फील गुड का माहौल बन गया और इंडिया शाइनिंग की तरह एक बार फिर से सरकार और मोदी का प्रदर्शन शानदार बताया जाने लगा - और तभी कोरोना ने ऐसा जोरदार झटका दिया कि सारा फील गुड हवा हवाई हो गया.
पहले मॉर्निंग कंसल्ट और Ormax Media के सर्वे के बाद अब एबीपी न्यूज-सी वोटर सर्वे के नतीजे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जा रहे हैं. सर्वे के मुताबिक मोदी सरकार की अब तक की सबसे बड़ी नाकामी कोविड 19 से पैदा हुए हालात से निबटने का घटिया तरीका माना गया है.
शहर और गांव के लोगों से अलग अलग ली गयी राय में पता चला है कि 40 फीसदी गांवों में रहने वाली आबादी मानती है कि मोदी सरकार कोरोना वायरस से मुकाबले में नाकाम साबित हुई है - और ऐसे ही 44 फीसदी शहरी आबादी भी केंद्र की बीजेपी सरकार को कोरोना से जनता को उबारने में निकम्मा मान रही है.
ऐसे में जबकि कोरोना संकट के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी मॉडल को खुद प्रमोट कर रहे हैं - और एलोपैथी को लेकर IMA-स्वामी रामदेव बवाल चल रहा है, मोदी सरकार माहौल को फिर से अपने पक्ष में करने के लिए भी एक्टिव हो गयी...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर हुए हाल के सभी सर्वे एक जैसे ही नतीजे पेश कर रहे हैं. एग्जिट पोल की तरह ऐसा नहीं हो रहा है कि एक-दो सर्वे के रिजल्ट बाकियों से मेल नहीं खा रहे हों या उनके उलट हैं - मतलब ये कि मोदी सरकार या राज्यों की बीजेपी सरकारों को मिल सकने वाले बेनिफिट ऑफ डाउट के चांस बहुत ही कम हो गये हैं.
अभी जनवरी की ही तो बात है - इंडिया टुडे और कार्वी इनसाइट्स के सर्वे मूड ऑफ द नेशन में 73 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज को बेहतर माना था. सर्वे में 23 फीसदी लोगों ने शानदार और 50 फीसदी लोगों ने अच्छा माना था.
और ये तभी की बात जिसके कुछ ही दिन बाद मोदी सरकार ने कोरोना वायरस से मुकाबले में जीत का जश्न मनाया था, लेकिन तभी कोविड 19 की दूसरी लहर आयी और सारी वाहवाही मिट्टी में मिल गयी.
वाजपेयी के दौर के एनडीए शासन की तरह ही मोदी काल में भी फील गुड का माहौल बन गया और इंडिया शाइनिंग की तरह एक बार फिर से सरकार और मोदी का प्रदर्शन शानदार बताया जाने लगा - और तभी कोरोना ने ऐसा जोरदार झटका दिया कि सारा फील गुड हवा हवाई हो गया.
पहले मॉर्निंग कंसल्ट और Ormax Media के सर्वे के बाद अब एबीपी न्यूज-सी वोटर सर्वे के नतीजे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जा रहे हैं. सर्वे के मुताबिक मोदी सरकार की अब तक की सबसे बड़ी नाकामी कोविड 19 से पैदा हुए हालात से निबटने का घटिया तरीका माना गया है.
शहर और गांव के लोगों से अलग अलग ली गयी राय में पता चला है कि 40 फीसदी गांवों में रहने वाली आबादी मानती है कि मोदी सरकार कोरोना वायरस से मुकाबले में नाकाम साबित हुई है - और ऐसे ही 44 फीसदी शहरी आबादी भी केंद्र की बीजेपी सरकार को कोरोना से जनता को उबारने में निकम्मा मान रही है.
ऐसे में जबकि कोरोना संकट के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी मॉडल को खुद प्रमोट कर रहे हैं - और एलोपैथी को लेकर IMA-स्वामी रामदेव बवाल चल रहा है, मोदी सरकार माहौल को फिर से अपने पक्ष में करने के लिए भी एक्टिव हो गयी है.
मोदी सरकार ने CAA से इतर बाहर से आये गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने के लिए एक अधिसूचना जारी की है - और प्रधानमंत्री मोदी ने खुद ट्वीट कर एक खास जानकारी दी दी है जो बुरी खबरों के बीच काफी राहत देने वाली है - खास कर उन बच्चों के लिए जो कोविड 19 के चलते अपने मां-बाप या संरक्षक खो चुके हैं. हाल ही में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बीजेपी के मुख्यमंत्रियों से कहा था कि वे कोरोना काल में अनाथ हुए बच्चों के कल्याण के लिए कोई योजना तैयार करें और एक साथ उसकी घोषणा करें.
प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की है कि कोविड 19 की वजह से अपने माता-पिता या संरक्षक गवां चुके बच्चों की मदद के लिए पीएम केयर्स योजना लायी जा रही है. योजना के तहत बच्चों की शिक्षा और दूसरी मदद देने के साथ ही, 18 साल के होने पर मासिक पारितोषिक और 23 साल के हो जाने पर 10 लाख की मदद मिलेगी.
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नागरिकता अधिनियम, 1955 के 2009 के नियमों के तहत जारी अधिसूचना के मुताबिक, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के उन गैर-मुसलमानों को भारतीय नागरिकता के लिए अप्लाई करने को कहा गया है जो गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा और पंजाब के 13 जिलों में फिलहाल रह रहे हैं. अधिसूचना का सीएए से कोई वास्ता नहीं है क्योंकि उसके तहत नियम अभी तैयार नहीं किये जा सके हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निश्चित तौर पर चीजों को दुरूस्त करने को लेकर प्रयासरत होंगे, जिसका असर भी नजर आने लगा है - लेकिन ये भी तय है कि मोदी की लोकप्रियता में गिरावट का चौतरफा असर होने वाला है.
1. योगी आदित्यनाथ को सबसे ज्यादा नुकसान हो सकता है
पश्चिम बंगाल की हार का सदमा अभी जैसे तैसे बीजेपी नेतृत्व भुलाने की कोशिश में होगा कि नौ महीने बाद होने जा रहे यूपी विधानसभा चुनावों की चिंता सताने लगी है - और जिस तरीके से संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले एक्टिव हो गये हैं संघ और बीजेपी के अंदर की बेचैनी आसानी से समझी जा सकती है.
मुश्किल तो सबसे बड़ी यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने आने वाली है. कोरोना वायरस के पहले दौर में जो योगी आदित्यनाथ ने प्रवासी मजदूरों और कोटा में फंसे छात्रों के साथ साथ सूबे के लोगों की मदद कर जो भी कमाई की थी, कोविड 19 की दूसरी लहर में वो तो गवांई ही, साख पर भी बट्टा लगवा लिया है.
योगी आदित्यनाथ भी हो सकता है मन ही मन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तरह उम्मीद लगाये बैठे हों कि अगर कोई दिक्कत आयी तो बिहार चुनाव की तरह ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूपी में भी स्थिति संभाल लेंगे - लेकिन जब मोदी को लेकर ही लोगों के मन में नाराजगी घर करने लगी हो तो योगी आदित्यनाथ को क्या मदद मिल सकती है भला?
चूंकि बीजेपी नेतृत्व के सामने सबसे पहली चुनौती यूपी चुनाव ही है, लिहाजा अगर किसी तरह का नुकसान होता है तो शिकार तो योगी आदित्यनाथ ही होंगे - किसी को मुगालते में नहीं रहना चाहिये.
2. यूपी के अलावा भी सत्ता में वापसी की चुनौतियां हैं
2022 मे उत्तर प्रदेश के साथ ही साथ गोवा, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में सत्ता में वापसी में मुश्किल हो सकती है - और कहीं कुछ गड़बड़ होता है तो मान कर चलना होगा 2024 के आम चुनाव में बीजेपी के खाते में आने वाली संसदीय सीटों की संख्या पर भी असर पड़ेगा ही. अब तक तो यही देखने को मिला था कि 2018 की हार के बावजूद 2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अच्छा प्रदर्शन किया था.
3. विपक्ष ज्यादा आक्रामक हो सकता है
ये तो अभी से देखने को मिल रहा है कि मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष का आत्मविश्वास बढ़ा हुआ है. पश्चिम बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी के तेवर तो देखते ही बनते हैं - और मोदी सरकार की वैक्सीनेशन पॉलिसी को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी अलग ही हमलावर हैं.
कहीं ऐसा न हो, एनडीए में बीजेपी के बचे खुचे साथी भी जोश में उछलने लगें. बंगाल चुनाव के नतीजे आने के बाद जिस तरह नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू में खुशहाली का माहौल देखने को मिला - भविष्य में तो उसमें इजाफा के ही संकेत मिल रहे हैं.
अब तक तो जो भी मुमकिन होता रहा वो मोदी के चलते ही हुआ करता था - आगे से संभव है नीतीश कुमार भी नये सिरे से आंख दिखाने लगें और मौका मिलते ही पलटी मार कर विपक्षी खेमे को मजबूत करने में जुट जायें.
4. ऑपरेशन लोटस बेअसर होने लगेगा
ब्रांड मोदी के कमजोर होने का बीजेपी को सबसे बड़ा नुकसान तो यही होगा कि ऑपरेशन लोटस जैसे उसकी सियासी मिसाइलें मिस फायर हो सकती हैं. अब तक बीजेपी इस ऑपरेशन के जरिये विरोधी राजनीतिक दलों के नेताओं को चुनाव जीत कर सरकार बना लेने के बाद भी भीतर ही भीतर कमजोर करने में लगी रहती है.
फिर बीजेपी मौका मिलते ही कोई भी राज्य की सरकार गिरा देती है. ये सिलसिला शुरू तो हुआ था कर्नाटक में लेकिन ताजा मिसाल मध्य प्रदेश में देखने को मिली जब कमलनाथ को सत्ता से हाथ धोने को मजबूर होना पड़ा. उससे पहले कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी सरकार और बिहार की पिछली महागठबंधन सरकार के साथ भी वैसा ही हुआ था.
मध्य प्रदेश के बाद बीजेपी के निशाने पर महाराष्ट्र और राजस्थान की सरकारें रही हैं और ताजा ताजा तो पश्चिम बंगाला का ही मामला है - लेकिन जब दूसरे दलों के नेताओं को बीजेपी में पहुंचने के बाद जीत की गारंटी नहीं समझ में आएगी तो वे कदम क्यों बढ़ाएंगे?
5. चुनावों में तोड़ फोड़ कम देखने को मिलेंगे
ऐन चुनावों के पहले भी बीजेपी राजनीतिक विरोधियों के बीच तोड़-फोड़ मचाये रहती है, लेकिन जब उनको किसी तरह की बेहतरी की उम्मीद ही नहीं रहेगी तो भला वे क्यों बीजेपी की तरफ आकर्षित होंगे?
6. नेतृत्व जिसे नापसंद करता है, राहत महसूस करेंगे
प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता कम होने का असर तो पार्टी पर भी होगा ही और संघ पर भी दबदबा कम होगा. हालांकि, दत्तात्रेय होसबले के प्रमोशन के बाद मोदी के लिए संघ में एक कंफर्ट जोन माना जाता है.
मोदी का प्रभाव कम हुआ तो अमित शाह की ताकत पर भी असर पडे़गी. ऐसा तो है नहीं कि अमित शाह का मोदी की तरह संगठन से बाहर भी प्रभाव है, बीजेपी में जैसा भी असर हो, अलग से कोई जनाधार वाले नेता तो हैं नहीं. उनके लिए जो भी भीड़ जुटती है वो बीजेपी कार्यकर्ताओं की मेहनत और जुगाड़ का नतीजा होती है.
मौजूदा नेतृत्व के कमजोर होने की सूरत में बीजेपी के ऐसे कई नेता हैं जो हाशिये पर रह कर या मुख्यधारा में रह कर भी येस-मैन बने हुए हैं, ऐसे नेता राहत तो महसूस करेंगे ही, हरकत में आये तो नेतृत्व के लिए नयी मुश्किलें पैदा हो सकती हैं.
शिवराज सिंह जैसे नेता तो मोदी-शाह की हां मे हां मिलाकर जैसे तैसे दिन काटे जा रहे हैं, लेकिन वसुंधरा राजे या मेनका और वरुण गांधी जैसे नेता भी हैं जो अपने लिए अच्छे दिनों का इंतजार कर रहे हैं. मान कर चलना होगा माकूल माहौल मिलते ही ये फलने फूलने के साथ पांव पसारने की भी कोशिश करेंगे ही.
7. मोदी सरकार को सख्त रवैये से पीछे हटना पड़ सकता है
2019 में ज्यादा नंबर लाने के बाद तो जैसे बीजेपी नेतृत्व के धरती पर पांव पड़ने ही कम हो चले थे, लेकिन राज्य विधानसभा चुनाव में बार बार झटके खाते रहने के बाद कोरोना संकट में हाथ पर हाथ रख बैठे रहना और खामोशी अख्तियार कर लेना नेतृत्व पर भारी पड़ने वाला है.
2019 के चुनावी वादे पूरे करने के क्रम में कैबिनेट का हिस्सा बनने के बाद अमित शाह अपने पर आये तो जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म करने के साथ ही सीएए संसद में पास भी करा लिया और नोटिफिकेशन भी जारी हो गया - ये बात अलग है कि उसे लागू करने के नियम अब तक तैयार नहीं किये जा सके हैं, लिहाजा बाहर से आकर देश में रह रहे गैर-मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता देने के लिए अधिसूचना लानी पड़ी है.
ये आम चुनाव में मिले बहुमत की ही ताकत रही है कि मोदी सरकार ने तीन कृषि कानून लाये और विरोध में अकाली दल के एनडीए छोड़ देने तक की परवाह नहीं की, छह महीने से किसानों का जत्था दिल्ली की सीमाओं पर जो बैठा है वो तो अलग ही है.
अब इसमें तो कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता में और ज्यादा गिरावट होती है तो ऐसे कानून लाना और लोगों की परवाह किये बगैर उस पर सख्ती से लागू कर पाना आगे से आसान नहीं होगा.
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