नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे 7 साल (Modi Sarkar 7 years) हो चुके हैं - और अभी वो अपने ताजा दौर की सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रहे हैं. ऐसा पहली बार हो रहा है जब काफी संख्या में मोदी और बीजेपी समर्थक आंख मूंद कर सपोर्ट करने से पीछे हटते नजर आ रहे हैं.
2019 के आम चुनाव में 2014 से भी बड़ी जीत के साथ प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में लौटे तो खुदा के दिये हुस्न जैसी नजाकत देखने मिली - सीटें इतनी मिल चुकी थीं कि एनडीए में बीजेपी को सहयोगियों की जरूरत न के बराबर महूसस होने लगी. तभी तो शिवसेना के बाद अकाली दल के भी अलग हो जाने से बीजेपी को कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. न ही किसी की कोई परवाह दिखी.
आम चुनाव से पहले सिर्फ टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू ही एनडीए से अलग हुए थे और शिवसेना के कड़े तेवर के साथ साथ अकाली दल की तरफ से भी नसीहतें दी जाने लगी थीं. हालात की गंभीरता को समझते हुए अमित शाह ने संपर्क फॉर समर्थन कैंपेन शुरू किया और नामी गिरामी हस्तियां तो बहाना दिखीं, असल में तो वो कभी बादल परिवार के साथ, तो कभी ठाकरे परिवार के साथ, तो कभी नीतीश कुमार से पहुंच कर मिलते देखे गये - बेशक ओमप्रकाश राजभर जैसे सहयोगियों को घास नहीं डाले, लेकिन अपना दल वाली अनुप्रिया पटेल के घर तक पहुंचे थे, लेकिन चुनाव जीतने के बाद तो समर्थन की जरूरत महसूस होने पर संपर्क टूटने की भी परवाह नहीं की.
धारा 370 को खत्म करके और बीजेपी के कट्टर राजीतिक विरोधी कांग्रेस को तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभल कर खड़े होने का मौका नहीं दिया, लेकिन कोरोना वायरस (Corona Crisis) की दस्तक के बाद हड़बड़ी में लॉकडाउन लगाने से लेकर कोरोना पर विजय का जश्न में जल्दबाजी के चक्कर में दूसरी लहर को रोकने का इंतजाम नहीं किया और वो मोदी सरकार की फजीहत की सबसे बड़ी वजह बन गया - और किसान आंदोलन तो जैसे गले की हड्डी ही बन चुका है.
बीते सात साल ने आईना बन कर मोदी सरकार के सामने बार बार सच्चाई पेश करने की कोशिश की है, लेकिन लगता नहीं कि...
नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे 7 साल (Modi Sarkar 7 years) हो चुके हैं - और अभी वो अपने ताजा दौर की सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रहे हैं. ऐसा पहली बार हो रहा है जब काफी संख्या में मोदी और बीजेपी समर्थक आंख मूंद कर सपोर्ट करने से पीछे हटते नजर आ रहे हैं.
2019 के आम चुनाव में 2014 से भी बड़ी जीत के साथ प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में लौटे तो खुदा के दिये हुस्न जैसी नजाकत देखने मिली - सीटें इतनी मिल चुकी थीं कि एनडीए में बीजेपी को सहयोगियों की जरूरत न के बराबर महूसस होने लगी. तभी तो शिवसेना के बाद अकाली दल के भी अलग हो जाने से बीजेपी को कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. न ही किसी की कोई परवाह दिखी.
आम चुनाव से पहले सिर्फ टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू ही एनडीए से अलग हुए थे और शिवसेना के कड़े तेवर के साथ साथ अकाली दल की तरफ से भी नसीहतें दी जाने लगी थीं. हालात की गंभीरता को समझते हुए अमित शाह ने संपर्क फॉर समर्थन कैंपेन शुरू किया और नामी गिरामी हस्तियां तो बहाना दिखीं, असल में तो वो कभी बादल परिवार के साथ, तो कभी ठाकरे परिवार के साथ, तो कभी नीतीश कुमार से पहुंच कर मिलते देखे गये - बेशक ओमप्रकाश राजभर जैसे सहयोगियों को घास नहीं डाले, लेकिन अपना दल वाली अनुप्रिया पटेल के घर तक पहुंचे थे, लेकिन चुनाव जीतने के बाद तो समर्थन की जरूरत महसूस होने पर संपर्क टूटने की भी परवाह नहीं की.
धारा 370 को खत्म करके और बीजेपी के कट्टर राजीतिक विरोधी कांग्रेस को तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभल कर खड़े होने का मौका नहीं दिया, लेकिन कोरोना वायरस (Corona Crisis) की दस्तक के बाद हड़बड़ी में लॉकडाउन लगाने से लेकर कोरोना पर विजय का जश्न में जल्दबाजी के चक्कर में दूसरी लहर को रोकने का इंतजाम नहीं किया और वो मोदी सरकार की फजीहत की सबसे बड़ी वजह बन गया - और किसान आंदोलन तो जैसे गले की हड्डी ही बन चुका है.
बीते सात साल ने आईना बन कर मोदी सरकार के सामने बार बार सच्चाई पेश करने की कोशिश की है, लेकिन लगता नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके कैबिनेट सहयोगी अमित शाह के साथ साथ दोनों के कॉमन और तीसरे साथी बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा हालात की हकीकत ठीक से समझ पा रहे हैं.
1. कांग्रेस मुक्त भारत अभियान तो खूब फला फूला है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी का पॉलिटिकल कैंपने खूब फला फूला है - कांग्रेस मुक्त भारत अभियान. नतीजा ये हुआ है कि 2014 के बाद सात साल में कांग्रेस के सामने एक भी मौका नहीं आया है जब वो पहले की तरह अपने पैरों पर खड़ी होने के लिए खुद को काबिल समझे.
दो आम चुनावों की हार के बाद महाराष्ट्र, झारखंड और तमिलनाडु में सत्ता पक्ष के साथ खड़े होने का मौका जरूर मिला है, लेकिन इसी दौरान राहुल गांधी की यूपी के अमेठी से विदायी भी हो गयी - और हाल के विधानसभा चुनावों में वो केरल में भी कोई कमाल नहीं दिखा पाये जहां वायनाड से वो खुद लोक सभा के सांसद हैं.
2. चुनावी मशीन बनी बीजेपी की चुनौतियां कम नहीं हुईं
पश्चिम बंगाल से तो राहुल गांधी ने दूरी ही बनाये रखी, लेकिन बिहार चुनाव में भी कम फजीहत नहीं हुई - और राहुल गांधी के बहाने सोनिया गांधी भी G-23 कांग्रेस नेताओं के निशाने पर आ गयीं.
राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने कांग्रेस को जरूर डैमेज किया, लेकिन महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की AAP और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने ब्रांड मोदी को भी नहीं चलने दिया - और ज्यादातर मामलों में उसके पीछे चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का ही दिमाग देखने को मिलता है.
अब बीजेपी के सामने अगले साल होने जा रहा यूपी विधानसभा चुनाव है - और जेपी नड्डा को लेकर आयी खबरों को मानें तो बीजेपी नेतृत्व की सबसे बड़ी चिंता फिलहाल यही लगती है कि अगर यूपी नहीं जीते तो 2024 में दिल्ली जीतने में काफी मुश्किल हो सकती है.
3. कश्मीर पर चुनावी वादा सबसे पहले निभाया
मोदी सरकार की दूसरी पारी में सबसे ज्यादा चुनावी वादे पूरे करने पर जोर रहा - और जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को खत्म करना एक बड़ी उपलब्धि रही. जम्मू कश्मीर के नेताओं को तो सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के रास्ते ही धारा 35A को खत्म कर देने का डर था, लेकिन भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटी मोदी सरकार ने संसद के जरिये ये कदम उठाया.
जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म किये जाने से केंद्र सरकार के लिए कई चीजें आसान हो गयीं क्योंकि पहले कोई भी कदम उठाने से पहले स्थानीय कानून आड़े आते रहे - और क्षेत्रीय नेताओं से लेकर अलगाववादियों के स्वर ऊंचे हो जाते रहे. अलगाववादियों को क्षेत्रीय नेताओं का नैतिक समर्थन हासिल था और उसका पूरा फायदा पाकिस्तान को भी मिल जाता रहा.
दो साल होने जा रहे हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय नेताओं के पर कतरने के अलावा केंद्र की बीजेपी सरकार ने कश्मीर के लोगों के जीवन में सुधार लाने में कुछ खास सफलता नहीं हासिल कर पायी है - मनोज सिन्हा के उप राज्यपाल बनने और स्थानीय चुनावों के बाद माहौल थोड़ा बदला जरूर है, लेकिन घाटी के लोगों का विश्वास हासिल करने में कोई खास कामयाबी नहीं मिल पायी है.
4. आस-पड़ोस से रिश्ता क्या कहलाता है
धारा 370 खत्म करने का एक फायदा तो ये हुआ ही कि कश्मीर मुद्दे पर भारत के मजबूत राजनीतिक नेतृत्व को लेकर दुनिया भर में मैसेज गया - और पाकिस्तान को कहीं भी समर्थन नहीं मिल सका. चीन ने जरूर पाकिस्तान के कुछ आतंकवादियों के मामले में पहले साथ दिया, लेकिन बाद में पीछे ही हटना पड़ा.
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जहां भारत और चीन के बारे में ये चर्चा हुआ करती रही कि 40 साल में दोनों तरफ से एक गोली भी नहीं चली, वहीं दूसरी पारी इस लिहाज से अच्छी नहीं रही - लद्दाख की गलवान घाटी में देश के 20 सैनिकों को शहादत देनी पड़ी.
भारत-चीन संबंधों को लेकर मोदी सरकार दावे जो भी करे लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को छोड़ भी दें तो विशेषज्ञों के सवालों के भी जवाब नहीं मिल सके - सीमा पर की सही स्थिति हमेशा ही राजनीतिक बयानों की शब्दावली में उलझी हुई नजर आयी.
पाकिस्तान के खिलाफ जरूर मोदी सरकार ने दो बार सर्जिकल स्ट्राइक किये, लेकिन नेपाल और श्रीलंका के साथ रिश्ते बेहतर नहीं हो सके - हां, बांग्लादेश के साथ संबंध संतोषजनक जरूर समझे जा सकते हैं.
5. कोरोना महामारी में बदइंतजामी और अफरातफरी का माहौल
कोरोना वायरस ने तो पूरी दुनिया में कहर मचाया और हर तरफ तबाही का आलम रहा, लेकिन भारत में सरकारी फैसलों के और समुचित तैयारियों के अभाव में आम लोगों को बुरी तरह झेलना पड़ा.
लॉकडाउन के चलते जहां पहले दौर में प्रवासी और दिहाड़ी मजदूरों के सामने रोजी-रोटी के संकट से लेकर उनकी जान तक पर बन आयी, वहीं दूसरे लहर की चपेट में तो हर कोई परेशान रहा - ऐसा कभी नहीं देखा गया कि लोगों को जीने के ऑक्सीजन नहीं मिल पा रहा हो, अस्पताल में बेड नहीं मिल पाये हों और उसके बाद भी जरूरी दवायें मिलना मुश्किल हो जाये.
अब इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि अस्पताल में भर्ती और वेंटिलेटर पर रखे गये मरीज ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ दें. और ऐसे एक-दो जगह नहीं बल्कि कई जगह और कई बार हुआ. जीवन को कायम रखने की जद्दोजगह से जूझते हुए लोग अस्पताल में भर्ती हो गये तो वहां आग लग गयी और मौत से बचने का कोई रास्ता भी नहीं बचा रहा.
मोदी सरकार की लॉकडाउन की पॉलिसी भी समझ से परे रही. पहली बार ऐसे लागू कर दिया गया कि पूरा देश मुश्किल में पड़ गया - और दूसरी बार जब पूरा देश मुश्किल से जूझ रहा था तो केंद्र सरकार ने राज्यों पर जिम्मेदारी डाल कर खुद हाथ खींच लिये.
6. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण तो शुरू हो ही गया
बीजेपी का चिरकालीन वादा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का तो पूरा हो गया, लेकिन लगता नहीं अब उसे मंदिर मुद्दे का कोई राजनीतिक फायदा मिलने वाला है - हाल के पंचायत चुनावों के नतीजे तो सबसे बड़ा सबूत हैं.
यूं तो बीजेपी ने 2019 के आम चुनाव से पहले ही राम मंदिर मुद्दे को चुनावी राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद झारखंड और दिल्ली चुनावों में भुनाने की भरपूर कोशिशें की - लेकिन हासिल सिफर ही रहा.
अब तो बीजेपी को ये भरोसा नहीं रह गया लगता है कि 2022 के चुनाव में राम मंदिर मुद्दे का उसे कोई फायदा भी मिल सकता है - लिहाजा एक नयी चर्चा को ही हवा दी जाने लगी है कि योगी आदित्यनाथ के साथ भी उत्तराखंड एक्सपेरिमेंट दोहराया जा सकता है.
7. किसान आंदोलन तो गले की हड्डी ही बन गया है
काले धन के 15-15 लाख तो अमित शाह ने जुमला बता ही दिये थे, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के फैसले भी लॉकडाउन से ही मिलते जुलते लगे - और सीएए लागू करने के बाद बीजेपी ने बिलकुल वैसा ही प्रयोग कृषि कानून लाकर कर लिया.
जब बीजेपी कोरोना महामारी के मातम में लोगों के साथ खड़े होने के लिए केंद्र में मोदी सरकार के सात साल के जश्न से बच रही है तो छह महीने से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसान काला दिवस मना रहे हैं - सुना है कि नये सिरे से किसानों की पहल पर सरकार के साथ बातचीत की कवायद शुरू हुई है, लेकिन सच तो ये भी है कि महज एक कॉल दूर बातचीत को लेकर चार महीने बाद भी फोन की घंटी तो नहीं ही बज सकी है.
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