यूपी पुलिस में डिप्टी एसपी रहे शैलेन्द्र सिंह (Shailendra Singh) और माफिया डॉन मुख्तार अंसारी शुरू से ही उत्तर प्रदेश की राजनीति के दो छोर पर रहे हैं - ये स्वाभाविक भी है, एक पुलिसवाला रहा है और दूसरा अपराधी तो दोनों अलग अलग छोर पर ही रहेंगे - और अब ये राजनीति की बदली बयार ही है जिसमें एक कंफर्ट जोन में दाखिल होने में कामयाब नजर आ रहा है तो दूसरा तबाही के दौर में जूझ रहा है.
जिस राजनीतिक घराने की ताकत के बूते मुख्तार अंसारी अपनी हनक का प्रदर्शन करते रहे, उसी तरफ से राजनीतिक सपोर्ट न मिलने की वजह से ही शैलेन्द्र सिंह को कठिन संघर्ष करने पड़े. अब अगर शैलेन्द्र सिंह मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में फिट होते नजर आ रहे हैं तो उसकी वजह सत्ता की राजनीति में परिवर्तन ही है - जैसे मुख्तार अंसारी मौजूदा सियासी माहौल में मिसफिट साबित हो रहे हैं, ठीक उसी इकोसिस्टम में शैलेन्द्र सिंह की राजनीति पूरी तरह फिट हो रहे हैं.
ऐसा भी नहीं कि ये सब यूं ही होता चला गया - ये तो शैलेन्द्र सिंह की दूरदृष्टि और पॉलिटिकली करेक्ट कदम उठाने का नतीजा है. तमाम कोशिशों के बावजूद अगर सही समय पर शैलेन्द्र सिंह सही फैसला नहीं लिये होते तो वो भी कोई बेहतर स्थिति में हो पाते कयास लगाना भी मुश्किल ही होता.
बीती बातों को याद करें तो बीजेपी या मोदी-योगी (Modi and Yogi), शैलेन्द्र सिंह की दूसरी पसंद ही लगते हैं - क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में शैलेन्द्र सिंह की पहली पसंद तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ही रहे हैं.
काफी मुश्किल रही है शैलेन्द्र के राजनीति की डगर
शैलेन्द्र सिंह की जबान पर अब सिर्फ तीन नाम होते हैं - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव.
शैलेन्द्र सिंह अब मोदी और योगी का...
यूपी पुलिस में डिप्टी एसपी रहे शैलेन्द्र सिंह (Shailendra Singh) और माफिया डॉन मुख्तार अंसारी शुरू से ही उत्तर प्रदेश की राजनीति के दो छोर पर रहे हैं - ये स्वाभाविक भी है, एक पुलिसवाला रहा है और दूसरा अपराधी तो दोनों अलग अलग छोर पर ही रहेंगे - और अब ये राजनीति की बदली बयार ही है जिसमें एक कंफर्ट जोन में दाखिल होने में कामयाब नजर आ रहा है तो दूसरा तबाही के दौर में जूझ रहा है.
जिस राजनीतिक घराने की ताकत के बूते मुख्तार अंसारी अपनी हनक का प्रदर्शन करते रहे, उसी तरफ से राजनीतिक सपोर्ट न मिलने की वजह से ही शैलेन्द्र सिंह को कठिन संघर्ष करने पड़े. अब अगर शैलेन्द्र सिंह मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में फिट होते नजर आ रहे हैं तो उसकी वजह सत्ता की राजनीति में परिवर्तन ही है - जैसे मुख्तार अंसारी मौजूदा सियासी माहौल में मिसफिट साबित हो रहे हैं, ठीक उसी इकोसिस्टम में शैलेन्द्र सिंह की राजनीति पूरी तरह फिट हो रहे हैं.
ऐसा भी नहीं कि ये सब यूं ही होता चला गया - ये तो शैलेन्द्र सिंह की दूरदृष्टि और पॉलिटिकली करेक्ट कदम उठाने का नतीजा है. तमाम कोशिशों के बावजूद अगर सही समय पर शैलेन्द्र सिंह सही फैसला नहीं लिये होते तो वो भी कोई बेहतर स्थिति में हो पाते कयास लगाना भी मुश्किल ही होता.
बीती बातों को याद करें तो बीजेपी या मोदी-योगी (Modi and Yogi), शैलेन्द्र सिंह की दूसरी पसंद ही लगते हैं - क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में शैलेन्द्र सिंह की पहली पसंद तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ही रहे हैं.
काफी मुश्किल रही है शैलेन्द्र के राजनीति की डगर
शैलेन्द्र सिंह की जबान पर अब सिर्फ तीन नाम होते हैं - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव.
शैलेन्द्र सिंह अब मोदी और योगी का नाम लेते नहीं थकते, लेकिन जिन दिनों वो मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहने के दौरान कोपभाजन हुए और फिर सत्ता परिवर्तन के बाद मायावती की सरकार बनने पर भी कोई सहारा नजर नहीं आ रहा था तो ये राहुल गांधी ही रहे जो शैलेन्द्र सिंह को सबसे बड़ा संबल प्रदान किये.
2004 का लोक सभा चुनाव शैलेन्द्र सिंह ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लड़ा था, लेकिन पांच साल बाद 2009 में राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस ने चंदौली लोक सभा सीट से टिकट दिया था. 2004 में शैलेन्द्र सिंह वाराणसी लोक सभा सीट से चुनाव लड़े थे.
वाराणसी में निर्दलीय उम्मीदवार होकर भी शैलेन्द्र सिंह को 28,533 वोट मिले थे, लेकिन पांच साल बाद चंदौली से कांग्रेस का टिकट पाने के बाद 97,377 वोट हासिल करने में सफल रहे. हालांकि, इतने के बावजूद शैलेन्द्र सिंह तीसरे पोजीशन पर ही रहे क्योंकि मुलायम सिंह यादव के उम्मीदवार राम किशुन ने मायावती की पार्टी के प्रत्याशी कैलाश नाथ सिंह यादव को शिकस्त दे दी थी.
अप्रैल, 2009 में राहुल गांधी की रैली के लिए शैलेन्द्र सिंह ने बिछिया में अच्छी खासी भीड़ भी जुटायी थी, लेकिन कांग्रेस नेता का कार्यक्रम अचानक रद्द हो गया. शैलेन्द्र सिंह ने खुद मंच पर पहुंच कर माफी मांगते हुए इसकी जानकारी दी, लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक भीड़ मैदान छोड़ कर लौटने लगी. तब भी जब कि दिग्विजय सिंह ने लोगों को रोकने के लिए काफी तरकीबें लगायी. तब दिग्विजय सिंह बतौर कांग्रेस महासचिव यूपी के प्रभारी हुआ करते थे और राहुल गांधी के सबसे करीबी और बड़े सहयोगी भी.
रैली में आयी भीड़ राहुल गांधी का कार्यक्रम रद्द होने की वजह सुन कर भी नहीं रुकी. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, शैलेन्द्र सिंह ने बताया था कि राहुल गांधी को महाराजगंज और पड़रौना की रैली के बाद ही लौट जाना पड़ा क्योंकि उनको प्रियंका गांधी के ससुर के अंतिम संस्कार में हिस्सा लेना था. हफ्ते भर बाद राहुल गांधी ने शैलेन्द्र सिंह के लिए चंदौली रैली कर वोट जरूर मांगा था, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
ये 2009 का ही आम चुनाव रहा जो अब भी राहुल गांधी के राजनीतिक सफर में माइलस्टोन के रूप में याद किया जाएगा. उस चुनाव में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2004 में जीती 9 सीटों से बढ़ा कर 21 पर पहुंचा दिया था - और केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार की वापसी हुई थी. तब यूपी में बीजेपी को 10 सीटें मिली थी जबकि समाजवादी पार्टी और बीएसपी के क्रमशः 23 और 20 सांसद लोक सभा पहुंचे थे. अफसोस की बात ये रही कि राहुल गांधी कांग्रेस सांसदों की फेहरिस्त में शैलेन्द्र सिंह का नाम जुड़े ये सुनिश्चित नहीं कर पाये.
2009 के आम चुनाव के तीन साल बाद जब यूपी में विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस ने शैलेन्द्र सिंह को एक बार फिर टिकट दिया और वो सैयदराजा विधानसभा सीट से मैदान में उतरे, लेकिन ये उनकी चुनावी राजनीति का सबसे खराब प्रदर्शन भी साबित हुआ. सैयदराजा में शैलेन्द्र सिंह को महज 3317 वोट ही मिले थे.
राहुल गांधी को छोड़ शैलेन्द्र सिंह अब मोदी-योगी के मुरीद भले हो गये हों, लेकिन पार्टी का टिकट दिलाने के साथ ही कांग्रेस नेता ने रैली भी की ही. अब सफलता नहीं मिली तो क्या कहा जाये - ये तो बीजेपी नेता नितिन गडकरी ही कहते हैं कि सफलता के कई पिता होते हैं, जबकि असफलता का कोई माई-बाप नहीं होता.7
7 साल कांग्रेस में, 7 साल बीजेपी में
ये कोई ताज्जुब की बात भी नहीं है कि शैलेन्द्र सिंह के मुंह से हाल फिलहाल कभी राहुल गांधी का नाम नहीं सुनने को मिला है, लेकिन सच तो ये है कि शैलेन्द्र सिंह के राजनीतिक सफर में राहुल गांधी का भी कम योगदान नहीं है. ये जरूर है कि अब वो बीते दिनों की बातें हैं - वैसे भी इतिहास अगर यादगार न हो तो उसके जिक्र का कोई मतलब भी नहीं रह जाता. ऐसा भी नहीं है कि शैलेन्द्र सिंह को लेकर राहुल गांधी या प्रियंका गांधी वाड्रा कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया, रीता बहुगुणा जोशी, टॉम वडक्कन या एसएम कृष्णा की तरह तो नहीं ही सोच रहे होंगे. थोड़ा बहुत मलाल तो रहता ही है, खासकर जब कोई सिंधिया या हिमंता बि्व सरमा जैसा दर्द दे रहा हो.
यूपी में होने जा रहे पंचायत चुनावों से पहले शैलेन्द्र सिंह के आंसू सहानुभूति बटोरने में सफल रहे हैं. शैलेंद सिंह को योगी आदित्यनाथ का एहसानमंद होना भी चाहिये - मुश्किलों और कानूनी दुश्वारियों से निजात तो आखिर योगी सरकार ने ही दिलायी है. शैलेन्द्र सिंह अब ये भी बता रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ ने उनसे कहा था कि जब वो सत्ता में आएंगे तो सब ठीक कर देंगे - ऐसा कब कहा था ये नहीं बताया है. जाहिर है, योगी आदित्यनाथ ने ये बात 2014 में उनके बीजेपी ज्वाइन करते वक्त ही कही होगी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर भी शैलेन्द्र सिंह ने उनकी एक ही बड़ी बात विशेष रूप से ये दिलायी है - 'तुम परिवार कैसे पालते रहे?'
लेकिन ये सब तो 2014 के आम चुनाव के आस पास की बातें लगती हैं. शैलेन्द्र सिंह की मुसीबतें शुरू तो 2004 से ही हो गयी थीं - शुरू के 10 साल शैलेन्द्र सिंह ने कैसे बिताये और लड़ाई कैसे लड़ी? राजनीति की राह अख्तियार की तो शुरुआती कैसा अनुभव रहा - ये सब या तो शैलेन्द्र सिंह जानते हैं या उनके आस पास के घर-परिवार या फिर बेहद करीबी लोग.
करीब 7 साल कांग्रेस में रह कर मुलायम सिंह और मायावती के साथ दो-दो हाथ करने के बाद 15 अप्रैल, 2014 को शैलेन्द्र सिंह ने बीजेपी ज्वाइन कर लिया. संसदीय चुनाव में शैलेन्द्र सिंह ने वाराणसी में नरेंद्र मोदी के इलेक्शन वॉर रूम का जिम्मा भी संभाला था. तभी से जब भी प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी के दौरे पर होते हैं मुलाकात करने वाले बीजेपी नेताओं में से एक नाम शैलेन्द्र सिंह का भी होता ही है.
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