चुनावी माहौल के बीच देश में हिंदुत्व पर खूब बहस हो रही है. तात्कालिक प्रासंगिकता तो 2022 के विधानसभा चुनावों को लेकर है, खास कर उत्तर प्रदेश के लिए, लेकिन जो राजनीतिक दल अभी 2024 के आम चुनाव की तैयारी कर रहे हैं - ऐसी पार्टियों के नेताओं की ज्यादा दिलचस्पी देखने को मिल रही है.
भारतीय जनता पार्टी के लिए पहले तो यूपी चुनाव 2022 ही ज्यादा महत्वपूर्ण है, लेकिन राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा जैसे नेताओं की निगाह अभी से अगले आम चुनाव पर जा टिकी है. सलमान खुर्शीद और राहुल गांधी के बाद पूर्व लोक सभा स्पीकर भी हिंदुत्व पर अपनी राय जाहिर कर चुकी हैं.
संघ और बीजेपी की तरफ से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को अपने तरीके से जवाब देने की कोशिश तो हो ही रही है, RSS प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) के भी हिंदुत्व को लेकर लगातार बयान आ रहे हैं - कभी किसी कार्यक्रम के जरिये, कभी किसी किताब के विमोचन के बहाने तो कभी संघ के आयोजनों के बीच से.
मोहन भागवत हिंदुत्व को भी संघ और बीजेपी के राष्ट्रवाद के एजेंडे में ही पिरो कर प्रोजेक्ट करते हैं और लगे हाथ उसे देश के विभाजन से भी जोड़ देते हैं. बात विभाजन की हो तो पाकिस्तान का नाम आना ही है, जो चुनावों में हमेशा ही बीजेपी के कैंपेन को कुछ ज्यादा ही धारदार बना देता है.
भारत-पाक विभाजन की चर्चा तो इसी साल स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भी काफी रही - क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका (Partition Horrors) दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी. प्रधानमंत्री मोदी ने तब विभाजन के दर्द को नफरत और हिंसा के साथ जोड़ कर शेयर किया था.
संघ प्रमुख हाल फिलहाल विभाजन की विभीषिका की बार बार याद दिला रहे हैं और समाधान तलाशने की बात भी करते हैं, 'समाधान, विभाजन को निरस्त करने में ही है.'
मोहन भागवत को जो भी लगता हो. ये भी सही है कि सत्ता और चुनावी राजनीति के लिए भी ये असरदार हथियार है, लेकिन दूर दूर तक ऐसी कोई संभावना तो नहीं ही...
चुनावी माहौल के बीच देश में हिंदुत्व पर खूब बहस हो रही है. तात्कालिक प्रासंगिकता तो 2022 के विधानसभा चुनावों को लेकर है, खास कर उत्तर प्रदेश के लिए, लेकिन जो राजनीतिक दल अभी 2024 के आम चुनाव की तैयारी कर रहे हैं - ऐसी पार्टियों के नेताओं की ज्यादा दिलचस्पी देखने को मिल रही है.
भारतीय जनता पार्टी के लिए पहले तो यूपी चुनाव 2022 ही ज्यादा महत्वपूर्ण है, लेकिन राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा जैसे नेताओं की निगाह अभी से अगले आम चुनाव पर जा टिकी है. सलमान खुर्शीद और राहुल गांधी के बाद पूर्व लोक सभा स्पीकर भी हिंदुत्व पर अपनी राय जाहिर कर चुकी हैं.
संघ और बीजेपी की तरफ से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को अपने तरीके से जवाब देने की कोशिश तो हो ही रही है, RSS प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) के भी हिंदुत्व को लेकर लगातार बयान आ रहे हैं - कभी किसी कार्यक्रम के जरिये, कभी किसी किताब के विमोचन के बहाने तो कभी संघ के आयोजनों के बीच से.
मोहन भागवत हिंदुत्व को भी संघ और बीजेपी के राष्ट्रवाद के एजेंडे में ही पिरो कर प्रोजेक्ट करते हैं और लगे हाथ उसे देश के विभाजन से भी जोड़ देते हैं. बात विभाजन की हो तो पाकिस्तान का नाम आना ही है, जो चुनावों में हमेशा ही बीजेपी के कैंपेन को कुछ ज्यादा ही धारदार बना देता है.
भारत-पाक विभाजन की चर्चा तो इसी साल स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भी काफी रही - क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका (Partition Horrors) दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी. प्रधानमंत्री मोदी ने तब विभाजन के दर्द को नफरत और हिंसा के साथ जोड़ कर शेयर किया था.
संघ प्रमुख हाल फिलहाल विभाजन की विभीषिका की बार बार याद दिला रहे हैं और समाधान तलाशने की बात भी करते हैं, 'समाधान, विभाजन को निरस्त करने में ही है.'
मोहन भागवत को जो भी लगता हो. ये भी सही है कि सत्ता और चुनावी राजनीति के लिए भी ये असरदार हथियार है, लेकिन दूर दूर तक ऐसी कोई संभावना तो नहीं ही लगती जिसमें विभाजन को निरस्त करने का कोई तरीका बना हो.
विभाजन का दर्द यूं नहीं जाने वाला
राष्ट्रीय स्वयंसेवक प्रमुख मोहन भागवत 'विभाजन को निरस्त करना' देश के बंटवारे के दर्द का समाधान बता रहे हैं. राजनीतिक मतलब और भाव पक्ष को अलग रख कर देखें तो ये भारत और पाकिस्तान को एक में मिलाकर पुराना हिंदुस्तान बनाने जैसी कल्पना ही लगती है. पहले भी कई नेता ऐसा प्रस्ताव रख चुके हैं जिसमें भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर पहले की तरह भौगोलिक तौर पर भारत बनाने की बात होती है.
विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना रहा, देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता... नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा - और अपनी जान तक गंवानी पड़ी.
एक नयी किताब आयी है - विभाजनकालीन भारत के साक्षी. कृष्णानंद सागर की इस किताब में कई अनकही बातें और अनसुने किस्से शामिल किये गये हैं. इसमें देश के उन लोगों के अनुभव दर्ज किये गये हैं जो विभाजन के दर्द के गवाह हैं. मोहन भागवत ने किताब के विमोचन के मौके पर ही विभाजन के दर्द को साझा किया है.
मोहन भागवत के मुताबिक, विभाजन कोई राजनैतिक प्रश्न नहीं है, बल्कि ये अस्तित्व का प्रश्न है. कहते हैं, खून की नदियां ना बहें इसलिए ये प्रस्ताव स्वीकार किया गया - और नहीं करते तो उससे कई गुना खून उस समय बहा और आज तक बह रहा है... एक बात तो साफ है विभाजन का उपाय कोई उपाय नहीं था - न उससे भारत सुखी है और न इस्लाम के नाम पर विभाजन की मांग करने वाले लोग सुखी हैं.'
ये तो बिलकुल नहीं लगता कि किसी को ऐसी बातों से ऐतराज होगा, लेकिन उसके आगे संघ प्रमुख का जो नजरिया है वो हकीकत से कहीं से भी मेल खाता नहीं लगता. मोहन भागवत की सलाह है, 'देश का विभाजन कभी ना मिटने वाली वेदना है... इसका निराकण तभी होगा जब ये विभाजन निरस्त होगा.'
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि ये विभाजन निरस्त भला कैसे होगा? भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत के लायक सामान्य माहौल तो बन नहीं पा रहा है. जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक तरीके से संसद के जरिये धारा 370 खत्म की जा चुकी है. पाकिस्तान को छोड़ कर पूरी दुनिया ने इसे भारत का आंतरिक मामला ही माना है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में खून-खराबा तो रुक नहीं पा रहा है.
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के न थम पाने की वजह सरहद पार से मिल रहा सपोर्ट बताया जाता है. उसी की वजह से स्थानीय नौजवान भी आतंकवाद के रास्ते चलने लग रहे हैं - भले ही सेना कहे कि अब आतंकियों की शेल्फ लाइफ छोटी हो गयी है, लेकिन सब रुक कहां रहा है?
ऐसे में कैसे और किस भरोसे उम्मीद करें कि विभाजन की वेदना का कोई समाधान कभी मिल भी पाएगा - क्योंकि ये वो दर्द नहीं है जिसके लिए कोई पेनकिलर बना हो. ये सहन करने वाला ही दर्द है. दर्द की कोई दवा नहीं है - दरअसल, ये दर्द लाइलाज है और अगर ये केवल राजनीतिक विमर्श नहीं है तो वक्त जाया करने का कोई फायदा भी नहीं है.
विभाजन के बहाने हिंदुत्व विमर्श कहां ले जाने वाला है?
ग्वालियर के केदारधाम में 25 नवंबर से शुरू हुए घोष शिविर में हिस्सा लेने पहुंचे मोहन भागवत कह रहे हैं, विभाजन के बाद पाकिस्तान चाहता तो अपने देश का नाम हिंदुस्तान रख सकता था, लेकिन उसे पता था कि जब भी हिंदुस्तान का नाम लिया जाएगा तो उस नाम से हिंदू और भारत को अलग नहीं कर पाएंगे.
और इसी चीज को आगे बढ़ाते हुए मोहन भागवत की ये समझाने की कोशिश है - 'हिंदू के बिना भारत नहीं और भारत के बिना हिंदू नहीं.'
दरअसल, ये वही पुरानी थ्योरी है जिसमें भारत के नागरिकों को पूर्वजों के बहाने हिंदू साबित करने की कोशिश होती है. हद है, हिंदुओं को एक बनाये रखने की सारी कोशिशें तो फेल होती जा रही हैं - और सबको हिंदू बनाने और भारत-पाक विभाजन को निरस्त करने के सपने दिखाये जा रहे हैं. अब तो 'एक कुआं, एक श्मशान और एक मंदिर' वाले मंत्र का नाम लेने वाला भी कोई नजर नहीं आ रहा - जिसकी 2015 में संघ मुख्यालय में संतों के समागम में स्थापना की गयी थी.
संघ प्रमुख भागवत कहते हैं, 'भारत टूटा, पाकिस्तान हुआ - क्योंकि हम इस भाव को भूल गये कि हम हिंदू हैं... वहां के मुसलमान भी भूल गये... खुद को हिंदू मानने वालों की पहले ताकत कम हुई... फिर संख्या कम हुई... इसलिए पाकिस्तान भारत नहीं रहा...'
अब तो काफी दिन हो गये, जनसंख्या नीति और कानून की बात हुए. इसी बीच ये भी सुनने को मिला था कि कृषि कानूनों को लेकर बैकफुट पर आने के बाद से ऐसे कई विवादित मुद्दों से परहेज पर विचार विमर्श चल रहा है.
लेकिन भागवत के ग्वालियर भाषण से तो ऐसा नहीं लगता - 'जब-जब हिंदुत्व की भावना कमजोर हुई, तब-तब हम संख्या में कम हुए हैं - और हमारा विखंडन भी हुआ है.'
और ये किस बात का डर दिखाया जा रहा है - 'अगर हिंदू को हिंदू रहना है तो भारत को अखंड रहना ही पड़ेगा... अगर भारत को भारत रहना है तो हिंदू को हिंदू रहना ही पड़ेगा.'
भागवत की बातों से तो ऐसा लगता है जैसे वो जातिवाद को भूल कर हिंदुत्व को मजबूत करने के लिए मोटिवेट करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ये नहीं भूलना चाहिये कि वास्तविकता से परे कोई भी मोटिवेशन व्यवहार में नहीं शामिल हो पाता.
संकेतों और बिंब के जरिये सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है, लेकिन वो प्रबुद्ध वर्ग की जमघटों से कभी आगे नहीं बढ़ पाता. मोहन भागवत इरादे नेक भले हों, लेकिन व्यावहारिक तो कतई नहीं लगते - देश की सामाजिक व्यवस्था से जातिवाद खत्म करने की कल्पना और विभाजन को निरस्त करने का बातें फिलहाल तो शेखचिल्ली के हवाई किले जैसी ही हैं.
मुमकिन है जर्मनी के लोगों जैसी भावनाएं कभी भारत के लोगों और पड़ोसी मुल्कों के नागरिकों के मन आये और पीढ़ियों बाद ऐसा समाज बने जब जातिगत भेदभाव की कोई जगह न बची हो, लेकिन ये सब न तो 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए चर्चा के विषय हैं - और न ही 2024 के आम चुनाव के लिए.
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