अभी नहीं तो कभी नहीं. ये लाइन सिर्फ शिवपाल ही नहीं, अखिलेश यादव की भी है. हालांकि, दोनों की सोच अलग अलग है. अखिलेश यादव सोच रहे हैं कि अगर पार्टी को हल्ला बोल छवि से अभी नहीं उबार पाये तो फिर कभी नहीं उबार पाएंगे - और किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के लिए 2019 तक तो बहुत देर हो चुकी होगी.
शिवपाल ये सोच रहे हैं कि अभी तो कुर्सी पर दावा इतना मुश्किल है, बाद में नामुमकिन हो जाएगा - इसलिए वो नये मिशन पर निकल पड़े हैं.
सुल्तान कौन?
राजनीति में जब भी उठापटक होती है तो मामूली इवेंट भी किसी नेता के लिए शक्ति प्रदर्शन का बड़ा मौका होता है. 5 नवंबर को समाजवादी पार्टी की 25वीं सालगिरह का जलसा तो मेगा इवेंट है - जो शिवपाल के लिए बेहद माकूल मौका लेकर आया है. ऐन पहले यूपी में पार्टी की कमान के साथ मिले अधिकारों का तो वो पूरा इस्तेमाल कर ही रहे हैं - अब ये दिखाने का मौका है कि राजनीतिक रूप से कितने ताकतवर हैं. लगे हाथ एक मैसेज देने की कोशिश है कि टीपू खुद को सुल्तान समझना छोड़ दे.
जलसे के दो दिन पहले अखिलेश रथयात्रा पर निकलने वाले हैं और उसके ठीक पहले एक रैली भी प्रस्तावित है. जलसा और रथयात्रा दोनों जोर आजमाइश के थियेटर बने हुए हैं. चाचा-भतीजे दोनों एक दूसरे के कार्यक्रम में जाने को तैयार हैं - लेकिन दोनों की अपनी अपनी शर्तें भी हैं.
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अखिलेश का कहना है कि वो रजत जयंती में तभी शामिल होंगे जब अमर सिंह पार्टी से बाहर हो चुके होंगे या फिर वहां नहीं होंगे. शिवपाल ने भी कहा है कि वो रथयात्रा में शामिल होंगे बशर्ते उन्हें बुलावा मिले. बात तो बिलकुल वाजिब है.
शिवपाल तो अपने कार्यक्रम का बुलावा दिल खोल कर भेज रहे हैं - देने के लिए दिल्ली भी पहुंचे और उन सभी को...
अभी नहीं तो कभी नहीं. ये लाइन सिर्फ शिवपाल ही नहीं, अखिलेश यादव की भी है. हालांकि, दोनों की सोच अलग अलग है. अखिलेश यादव सोच रहे हैं कि अगर पार्टी को हल्ला बोल छवि से अभी नहीं उबार पाये तो फिर कभी नहीं उबार पाएंगे - और किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक के लिए 2019 तक तो बहुत देर हो चुकी होगी.
शिवपाल ये सोच रहे हैं कि अभी तो कुर्सी पर दावा इतना मुश्किल है, बाद में नामुमकिन हो जाएगा - इसलिए वो नये मिशन पर निकल पड़े हैं.
सुल्तान कौन?
राजनीति में जब भी उठापटक होती है तो मामूली इवेंट भी किसी नेता के लिए शक्ति प्रदर्शन का बड़ा मौका होता है. 5 नवंबर को समाजवादी पार्टी की 25वीं सालगिरह का जलसा तो मेगा इवेंट है - जो शिवपाल के लिए बेहद माकूल मौका लेकर आया है. ऐन पहले यूपी में पार्टी की कमान के साथ मिले अधिकारों का तो वो पूरा इस्तेमाल कर ही रहे हैं - अब ये दिखाने का मौका है कि राजनीतिक रूप से कितने ताकतवर हैं. लगे हाथ एक मैसेज देने की कोशिश है कि टीपू खुद को सुल्तान समझना छोड़ दे.
जलसे के दो दिन पहले अखिलेश रथयात्रा पर निकलने वाले हैं और उसके ठीक पहले एक रैली भी प्रस्तावित है. जलसा और रथयात्रा दोनों जोर आजमाइश के थियेटर बने हुए हैं. चाचा-भतीजे दोनों एक दूसरे के कार्यक्रम में जाने को तैयार हैं - लेकिन दोनों की अपनी अपनी शर्तें भी हैं.
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अखिलेश का कहना है कि वो रजत जयंती में तभी शामिल होंगे जब अमर सिंह पार्टी से बाहर हो चुके होंगे या फिर वहां नहीं होंगे. शिवपाल ने भी कहा है कि वो रथयात्रा में शामिल होंगे बशर्ते उन्हें बुलावा मिले. बात तो बिलकुल वाजिब है.
शिवपाल तो अपने कार्यक्रम का बुलावा दिल खोल कर भेज रहे हैं - देने के लिए दिल्ली भी पहुंचे और उन सभी को आमंत्रित किया जिनके होने से उनकी ताकत ज्यादा नजर आये.
इसके लिए शिवपाल अजीत सिंह और केसी त्यागी से लेकर कांग्रेस के भी वरिष्ठ नेताओं को इनवाइट कर चुके हैं. शिवपाल फिलहाल लोहियावादी, चौधरी चरण सिंह वादी और गांधीवादियों को एकजुट करने में जुटे हैं. शिवपाल का कहना है कि ये टास्क खुद मुलायम सिंह ने उन्हें असाइन किया है. शिवपाल अब बिहार में महागठबंधन खड़ा करने का भी क्रेडिट ले रहे हैं.
शिवपाल गठबंधन?
शिवपाल का दावा है कि बिहार में महागठबंधन खड़ा करने में उनकी बड़ी अहम भूमिका रही. शिवपाल को तो यहां तक लगता है कि अगर समाजवादी पार्टी महागठबंधन का हिस्सा रहती तो मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद के दावेदार होते. लेकिन ऐन वक्त पर रामगोपाल यादव ने रास्ता रोक दिया - और इसीलिए उन्होंने चचेरे भाई को निकाल बाहर किया है. वैसे नीतीश कुमार के शपथग्रहण में भी शिवपाल ने ही पार्टी का प्रतिनिधित्व किया था.
मुलायम भी इस बात को कई बार कह चुके हैं कि शिवपाल ने पार्टी को खड़ा करने में बड़ी मेहनत की है - खुद जमीन पर बैठ कर मुलायम को कुर्सी पर बैठाया है.
बावजूद इसके अखिलेश के कारण खुद सीएम न बन पाने का उन्हें बहुत मलाल है - और वो अपने इस दर्द का इजहार भी कर चुके हैं. 2012 में भी शिवपाल ने पूरे जोर से अखिलेश का विरोध किया था. सीधे विरोध नहीं कर सकते थे इसलिए कहते रहे कि मुलायम खुद मुख्यमंत्री बनें. तब शिवपाल अखिलेश के अंडर में मंत्री बनने को भी तैयार न थे.
अब तो महागठबंंधन से ही उम्मीद है... |
अब अखिलेश का बर्खास्त करना उन्हें बहुत बुरा लगा है. शिवपाल ने सरकारी बंगला फौरन खाली कर दिया. कह भी चुके हैं कि 2017 में भी अखिलेश का नाम भले प्रस्तावित कर देंगे लेकिन उनकी कैबिनेट में तो शामिल होने से रहे.
2012 में एक और बात थी. सत्ता से बाहर हो चुकी समाजवादी पार्टी की जीत का पूरा क्रेडिट अखिलेश को ही जाता था - मुलायम को भी अखिलेश को विरासन सौंपने का बढ़िया मौका लगा. अपने बुद्धि विवेक और असर के चलते उन्होंने भाइयों और साथियों को मना भी लिया.
खबर है कि यूपी में अलाएंस को लेकर शरद यादव भी सोनिया गांधी को समझाने की कोशिश कर रहे हैं. जेडीयू समझाने की कोशिश कर रहा है कि बीजेपी को यूपी में अभी और फिर 2019 में रोकने के लिए बेहद जरूरी है.
बड़ा सवाल ये है कि कांग्रेस की किस गठबंधन में दिलचस्पी होगी? मुलायम के नाम पर हो रहे शिवपाल वाले गठबंधन में या फिर अखिलेश के साथ किसी तरह के संभावित अलाएंस में.
अखिलेश अलाएंस?
शिवपाल वाले गठबंधन में कांग्रेस की रुचि अखिलेश वाले से अभी तो कम ही लग रही है. सबसे बड़ी बाधा दोनों की छवियों को लेकर है - डीपी यादव से लेकर मुख्तार अंसारी तक सभी मामलों में अखिलेश का स्टैंड साफ सुथरी राजनीति के मामले में ज्यादा अपील करने वाला है. बातों बातों में राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों ही एक दूसरे को 'अच्छा लड़का' बता चुके हैं.
लेकिन ये सब इतना आसान भी नहीं है. इसमें भी कर्ई सारे पेंच हैं. शीला दीक्षित को बतौर सीएम कैंडीडेट पेश कर चुके राहुल गांधी क्या जेडीयू का प्रस्ताव स्वीकार करेंगे? फिर सीटों पर कैसे बात बनेगी? बिहार में कांग्रेस की मजबूरी थी, लेकिन यूपी में तो बड़ा प्लान है. बिहार में नीतीश को कुर्सी दिला देने वाले प्रशांत किशोर यूपी में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे है.
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वैसे एक चर्चा है कि समाजवादी पार्टी की उठापटक के बाद राहुल गांधी ने भी अखिलेश में इंटरेस्ट दिखाया है. अगर कांग्रेस को ये लगे कि तमाम कोशिशों के बावजूद सत्ता हासिल करना मुश्किल हो तो कम से कम उसकी प्रभावी किंगमेकर की भूमिका हो. इस लिहाज से अखिलेश ज्यादा सूट करते हैं. यूपी में मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका में दिख रहे हैं - अगर कांग्रेस अपने पुराने वोटरों को ये यकीन दिला पाये कि अखिलेश के साथ वो बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सकते हैं - और मुसलमानों को भी अखिलेश पर मुलायम जैसा भरोसा हो जाए जो मुश्किल है. खुद मुलायम सिंह के हवाले से खबर आई है. जिस दिन मुलायम ने झगड़ा सुलझाने के लिए दोनों को बुलाया था उसी दिन अखिलेश से पूछा - सुना है तुम मुसलमानों के विरोधी हो. इसी के बाद आशु मलिक प्रकरण हुआ. जिन्हें थप्पड़ मारने की बाद सुनने के बाद अखिलेश के मंत्री पवन पांडे को शिवपाल ने निकाल बाहर किया. दूसरा पक्ष ये है कि इसके जरिये आशु मलिक को आजम खां की तरह पार्टी के मुस्लिम फेस के रूप में स्थापित करने की भी कोशिश है.
शिवपाल समझते हैं कि अगर आने वाले चुनाव में वो कोई गठबंधन खड़ा कर पार्टी की सत्ता में वापसी कराने में भूमिका निभा सकते हैं तो उनकी दावेदारी मजबूत हो सकती है. मुलायम के मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित न करने की एक वजह ये भी हो सकती है. ये भी हो सकता है कि मुलायम को लगता हो कि ऐसा करके वो शिवपाल की नाराजगी फिलहाल तो टाल ही सकेंगे.
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