सिरसा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या 2002 में हुई. उनकी हत्या के 17 साल बाद भी उनका परिवार इंसाफ की आस में है. आरोपी कोई और नहीं बल्कि खुद बलात्कारी राम रहीम है. अगर रामचन्द्र छत्रपति आज ज़िंदा होते तो अपने क्रांतिकारी कलम से क्या लिखते? आज के दौर को किस तरह परखते? शायद कुछ यूं लिखते...
'सत्य की सुगन्ध बिखेरने' का वचन दिया था 'सत्यवादी' ने...
तारीख 2 फरवरी सन् 2000 को उसने अपनी कलम से 'पूरा सच' लिखना शुरू किया. मैं, रामचन्द्र छ्त्रपति भी सत्यवादी के साथ था. पत्रकारिता को खबर की विश्वसनीयता और वैचारिक निष्पक्षता के चश्मे से परख के जनता को परोसना चाहता थे हम. हरियाणा के छोटे से शहर सिरसा से इवनिंग डेली 'पूरा सच' की शुरुआत इन्हीं आदर्शों के साथ की थी हमने.
जब उस रात फोन की घंटी बजी तो मौत का पैगाम लेकर आई... 'डेरा के बारे में उल्टा सीधा लिखना बन्द कर दो वरना....' ज़ाहिर है फोन के उस तरफ धमकाने वाला मेरी खबर से तिलमिलाया हुआ था पर मैं शांत रहा. 30 मई, 2002 को अखबार के पहले पन्ने पर एक साध्वी की पीएम को चिठ्ठी 'धर्म के नाम पर किये जा रहे हैं साध्वियों के जीवन बर्बाद' के शीर्षक से हमने छापी था. इससे पहले सिरसा के बाजार में ये चिठ्ठी बांटी गई थी. इसमें साध्वी ने उसके साथ डेरा सच्चा सौदा में हुए यौन शोषण की खौफनाक दास्तान लिखी थी. हमने पूरी खबर छापी.
ये वो वक्त था जब राम रहीम किसी भगवान से कम नहीं था... संत्री-मंत्री, नेता-नौकरशाह,...
सिरसा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या 2002 में हुई. उनकी हत्या के 17 साल बाद भी उनका परिवार इंसाफ की आस में है. आरोपी कोई और नहीं बल्कि खुद बलात्कारी राम रहीम है. अगर रामचन्द्र छत्रपति आज ज़िंदा होते तो अपने क्रांतिकारी कलम से क्या लिखते? आज के दौर को किस तरह परखते? शायद कुछ यूं लिखते...
'सत्य की सुगन्ध बिखेरने' का वचन दिया था 'सत्यवादी' ने...
तारीख 2 फरवरी सन् 2000 को उसने अपनी कलम से 'पूरा सच' लिखना शुरू किया. मैं, रामचन्द्र छ्त्रपति भी सत्यवादी के साथ था. पत्रकारिता को खबर की विश्वसनीयता और वैचारिक निष्पक्षता के चश्मे से परख के जनता को परोसना चाहता थे हम. हरियाणा के छोटे से शहर सिरसा से इवनिंग डेली 'पूरा सच' की शुरुआत इन्हीं आदर्शों के साथ की थी हमने.
जब उस रात फोन की घंटी बजी तो मौत का पैगाम लेकर आई... 'डेरा के बारे में उल्टा सीधा लिखना बन्द कर दो वरना....' ज़ाहिर है फोन के उस तरफ धमकाने वाला मेरी खबर से तिलमिलाया हुआ था पर मैं शांत रहा. 30 मई, 2002 को अखबार के पहले पन्ने पर एक साध्वी की पीएम को चिठ्ठी 'धर्म के नाम पर किये जा रहे हैं साध्वियों के जीवन बर्बाद' के शीर्षक से हमने छापी था. इससे पहले सिरसा के बाजार में ये चिठ्ठी बांटी गई थी. इसमें साध्वी ने उसके साथ डेरा सच्चा सौदा में हुए यौन शोषण की खौफनाक दास्तान लिखी थी. हमने पूरी खबर छापी.
ये वो वक्त था जब राम रहीम किसी भगवान से कम नहीं था... संत्री-मंत्री, नेता-नौकरशाह, वज़ीर हो या बादशाह. सब डेरा प्रमुख के दरबार मे ढोक देने आते थे. पार्टी कोई भी हो, सरकार किसी की भी... मगर राम रहीम का जलवा सातवें आसमान पर था...
इस देश मे धर्म पर उंगली उठाने वाले को नफरत की नज़र से देखा जाता है. पर हकीकत तो ये है कि धर्म के ठेकेदार आस्था के नाम पर लोगों के विश्वास को बेआबरू कर रहे हैं. राम रहीम ऐसा ही एक दरिंदा था और मुझे उसकी हक़ीक़त पता चल गई थी.
ज़ाहिर है मैंने 'धार्मिक डेरे का कच्चा चिट्ठा' प्रकाशित कर लक्ष्मण-रेखा पार कर दी थी. पर पत्रकार के लिए तो सत्य की कोई रेखा नहीं होती. इंसाफ की आग का कोई दायरा नहीं होता है... मैंने निश्चय कर लिया कि मेरी कलम 'बाबा' के पाखण्ड के किले को नेस्तनाबूत करके ही रहेगी.
तारीख 2 जून 2002 को सिरसा के पास फतेहाबाद के अखबार 'लेखा जोखा' के दफ्तर पर हमला हुआ. डेरा प्रेमियों ने वहां तोड़-फोड़ की और उनके संपादक को डराया धमकाया. तब मैंने फ्रंट पेज पर 'कलम के खिलाफ जूनूनी गुस्सा' शीर्षक ख़बर लिखी. वो डराते रहे और हम लिखते रहे... रह-रह कर कभी नेता. कभी विधायक. कभी दोस्त. कभी दुश्मनों के ज़रिए चेतावनियां मिली...
आइये अब आपको बताता हूं मेरे साथी सत्यवादी के बारे में. पत्रकारिता का जुनून सर चढ़कर बोल रहा था... अखबार में एक ऑफ द रिकॉर्ड कॉलम होता था. इस कॉलम में क्रांतिकारी इरादों को बड़े जज़्बे के साथ 'सत्यवादी' लिखता था. दरअसल मैं ही ऑफ द रिकॉर्ड का 'सत्यवादी' था. अपने जाने से पहले मुझे ये अहसास था कि ख़तरे के बादल घनघोर और घने होते जा रहे हैं. मगर सत्यवादी की कलम नहीं रुकेगी...
एक दिन ऑफ द रिकॉर्ड में मैंने अपनी मन की बात रखी. पत्रकार का धर्म है सच लिखना. आखिर समाज का दर्पण है उसका अखबार. सच, जस का तस लिखने में कठिनाइयां आती हैं. लोग नाराज़ हो जाते हैं. राजनीतिज्ञ फिर भी फराख-दिल होते हैं और अपनी आलोचना सुन लेते हैं. मगर धार्मिक नेता और धार्मिक संगठन जिनको वैसे तो सहिष्णु होना चाहिए, वह अपनी कमियों को पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता सहन नहीं कर पाते. वो मामूली सी कड़वी सच्चाई सहन नहीं कर पाते और ठेस लगते ही चटक जाते हैं. इधर सत्यवादी अपने संकल्प पर अडिग है और उसके साथ ही उसका 'पूरा सच' भी. सत्यवादी तो इसी फिकरे को दोहराएगा- 'ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर...'
इधर सच की धार, छल-फरेब और हैवानियत की परतें खोलने लगी थी. उधर इसे खामोश करने की साज़िशें हो रही थी. मुझ पर हुए हमले के एक दिन पहले डेरा पर मेरा आखिरी लेख 23 अक्टूबर को छपा. मेरी निडरता, मेरी हत्या की वजह तो बनी, पर मेरे मरने में सच कई जिंदगी जी गया. मेरा सीना छलनी करनेवालों से मैं यही कहूंगा की सच और इंसाफ के लिए जान की कुर्बानी देने वाला मैं आखिरी नहीं और ना ही गौरी लंकेश है... जितनी तुम ताबड़तोड़ गोलियां चलाओगे, हम खामोश नहीं होंगे... मैं ना सही पर औरों में जिंदा हूं मैं. मेरे जैसे ही कई फिर उठेंगे और यूंही तुम्हें आईना दिखाते रहेगें...
यकीन ना हो तो मेरी डायरी में लिखी मेरी ये लाईनें याद कर लो...
आओ कत्ल हो जाएं आप अपने हाथों से,
शायद मेरे कातिल के हाथ थक गए होंगे...
-सत्यवादी
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