सियासी गलियारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सड़क लखनऊ से होकर ही जाती है. यानी केंद्र की सत्ता (दिल्ली) तक पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति (लखनऊ) में तगड़ी पकड़ होना जरूरी है. अब 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यही फॉर्मूला लागू होगा. यूपी में सपा-बसपा का गठबंधन पहले ही भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी करने को तैयार है. वहीं दूसरी ओर यूपी की राजनीति में कांग्रेस ने प्रियंका गांधी की एंट्री करवा दी है. ऐसे में भाजपा भी हर कदम फूंक-फूंक कर रही है.
सपा-बसपा ने 38 और 37 सीटों से अपने प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी है. अमेठी और रायबरेली से कोई उम्मीदवार नहीं उतार रहे और इस तरह ये सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ दी गई हैं. जो 3 सीटें बचीं, उस पर उनका सबसे छोटा साथी आरएलडी अपने उम्मीदार को उतारेगा. इसी बीच सर्वे एजेंसी सी-वोटर ने कहा है कि यूपी की 80 में से 47 सीटें इस बात का फैसला करेंगी कि यूपी में भाजपा का क्या भविष्य होगा. आपको बता दें कि इस 47 सीटों पर मुस्लिम-यादव-दलित की आबादी 50 फीसदी से भी अधिक है, इसलिए इन्हें ही निर्णायक माना जा रहा है.
मुस्लिम-यादव-दलित समीकरण
हर पार्टी की जीत का मंत्र जाति के समीकरण में छुपा होता है. कम से कम यूपी-बिहार जैसे राज्यों में तो जाति के हिसाब से ही अधिकतर वोटिंग होती है. सपा-बसपा के गठबंधन के पीछे भी जातिगत समीकरण ही है. 2011 जनगणना के आंकड़ों को देखा जाए तो यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम हैं और 21 फीसदी दलित हैं. कुछ विशेषज्ञों के आंकड़ों के हिसाब से यूपी में यादव समुदाय के लोगों की आबादी करीब 9-10 फीसदी है. अगर मुस्लिम-यादव-दलित की कुल आबादी की बात करें तो ये पूरी यूपी की आबादी की करीब आधी है. पिछले करीब दो दशकों से...
सियासी गलियारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सड़क लखनऊ से होकर ही जाती है. यानी केंद्र की सत्ता (दिल्ली) तक पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति (लखनऊ) में तगड़ी पकड़ होना जरूरी है. अब 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यही फॉर्मूला लागू होगा. यूपी में सपा-बसपा का गठबंधन पहले ही भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी करने को तैयार है. वहीं दूसरी ओर यूपी की राजनीति में कांग्रेस ने प्रियंका गांधी की एंट्री करवा दी है. ऐसे में भाजपा भी हर कदम फूंक-फूंक कर रही है.
सपा-बसपा ने 38 और 37 सीटों से अपने प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी है. अमेठी और रायबरेली से कोई उम्मीदवार नहीं उतार रहे और इस तरह ये सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ दी गई हैं. जो 3 सीटें बचीं, उस पर उनका सबसे छोटा साथी आरएलडी अपने उम्मीदार को उतारेगा. इसी बीच सर्वे एजेंसी सी-वोटर ने कहा है कि यूपी की 80 में से 47 सीटें इस बात का फैसला करेंगी कि यूपी में भाजपा का क्या भविष्य होगा. आपको बता दें कि इस 47 सीटों पर मुस्लिम-यादव-दलित की आबादी 50 फीसदी से भी अधिक है, इसलिए इन्हें ही निर्णायक माना जा रहा है.
मुस्लिम-यादव-दलित समीकरण
हर पार्टी की जीत का मंत्र जाति के समीकरण में छुपा होता है. कम से कम यूपी-बिहार जैसे राज्यों में तो जाति के हिसाब से ही अधिकतर वोटिंग होती है. सपा-बसपा के गठबंधन के पीछे भी जातिगत समीकरण ही है. 2011 जनगणना के आंकड़ों को देखा जाए तो यूपी में 19 फीसदी मुस्लिम हैं और 21 फीसदी दलित हैं. कुछ विशेषज्ञों के आंकड़ों के हिसाब से यूपी में यादव समुदाय के लोगों की आबादी करीब 9-10 फीसदी है. अगर मुस्लिम-यादव-दलित की कुल आबादी की बात करें तो ये पूरी यूपी की आबादी की करीब आधी है. पिछले करीब दो दशकों से बसपा दावा करती है कि उसे दलितों का समर्थन है, जबकि समाजवादी पार्टी यादव और मुस्लिम आबादी को अपना वोटबैंक मानती है. 2019 के चुनाव में भी सपा-बसपा ने इसी भरोसे पर गठबंधन कर लिया है और मोदी को हराना ही दोनों का एकमात्र लक्ष्य है.
सी-वोटर ने लोकसभा सीटों के हिसाब से मुस्लिम-यादव-दलित आबादी का गणित सामने रखा है और इससे जो तस्वीर सामने आई है, वह बेशक भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है. सी-वोटर के अनुसार यूपी में हर लोकसभा सीट पर 40 फीसदी से अधिक आबादी मुस्लिम-यादव-दलित की है. यूपी की कुल 80 सीटों में से 10 सीटों पर मुस्लिम-यादव-दलित की आबादी 60 फीसदी से भी अधिक है. ये सीटें आजमगढ़, घोसी, डुमरियागंज, फिरोजाबाद, जौनपुर, अंबेडकर नगर, भदोही, बिजनौर, मोहनलालगंज और सीतापुर हैं. इसके अलावा 37 सीटों पर मुस्लिम-यादव-दलित की आबादी 50-60 फीसदी के बीच है, जिसमें मुलायम सिंह का चुनाव क्षेत्र मैनपुरी और कांग्रेस की अमेठी-रायबरेली जैसी सीटें आती हैं. बाकी की 33 सीटों पर मुस्लिम-यादव-दलित आबादी लगभग 40-50 फीसदी है, जिसमें पीएम मोदी की वाराणसी सीट भी आती है.
2014 के नतीजे देखकर लगता है 2019 का अंदाजा
2014 के लोकसभा चुनावों में यूपी ने ऐतिहासिक परिणाम दिखाए थे. एनडीए को कुल 73 सीटें मिली थीं, जिनमें से दो सीटें उनके सहयोगी अपना दल ने जीती थीं. ऐसा करीब 3 दशकों में पहली बार हुआ था, जब किसी पार्टी को इतनी अधिक सीटें मिली हों. इस चुनाव में सपा ने सिर्फ 5 सीटें जीती थीं, जबकि बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया था.
भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने के बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव में सबसे हैरान करने वाली बात ये थी कि सपा को 20 फीसदी और बसपा को 22.5 फीसदी वोट मिले थे. सपा-बसपा के कुल वोटों को मिला दिया जाए तो उनके वोट एनडीए को मिले वोटों के लगभग बराबर थे. 2019 के चुनावों में इन दोनों के साथ आने की ये भी एक बड़ी वजह है. वहीं दूसरी ओर, भाजपा को टेंशन होने का कारण भी यही हो सकता है.
अगर अलग-अलग सीटों पर वोट के हिसाब से देखा जाए तो 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत से जीतने के बावजूद सपा और बसपा को कुल मिलाकर 41 सीटों पर भाजपा से अधिक वोट मिले थे. दिलचस्प है कि जिन 10 सीटों पर मुस्लिम-यादव-दलित की आबादी 60 फीसदी से अधिक है, उन सभी पर सपा-बसपा को एक साथ मिलाकर देखें तो उन्हें भाजपा से अधिक वोट मिले थे. यहां तक कि जिन सीटों पर मुस्लिम-यादव-दलित आबादी 50-60 फीसदी है, वहां भी सपा-बसपा को 21 सीटों पर भाजपा से अधिक वोट मिले थे, सिर्फ 14 सीटों पर भाजपा आगे थी. हालांकि, 40-50 फीसदी मुस्लिम-यादव-दलित वाली 33 सीटों पर परिणाम उल्टे दिखे. इनमें से 23 में भाजपा को अधिक वोट मिले, जबकि 10 पर सपा-बसपा आगे रही.
यूपी की राजनीति में जाति का कितना बड़ा रोल होता है, ये तो आप आंकड़े देखकर समझ ही गए होंगे. पिछले चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत की सबसे बड़ी वजह थी विरोधियों का अलग-अलग होना. हालांकि, इस बार भी सिर्फ सपा-बसपा ही साथ आई हैं, जबकि उन्हें कांग्रेस को भी साथ लेना चाहिए था. मौजूदा स्थिति में जो भाजपा के साथ-साथ सपा-बसपा का भी विरोध करेगा, उसके सामने वोट देने का विकल्प सिर्फ कांग्रेस है और ऐसी स्थिति में कुछ वोट कटेंगे. अगर कांग्रेस भी सपा-बसपा गठबंधन में होती तो सारे वोट उनके खाते में जाते. ऐसे में यूपी में जीत लगभग पक्की थी, लेकिन अभी की स्थिति में मामला 50-50 ही समझिए. वहीं दूसरी ओर, भाजपा के लिए भी यूपी बहुत अहम रहेगा, क्योंकि 2014 में बिखरी हुई पार्टियों की वजह से भाजपा जीत गई थी, लेकिन इस बार सारे एकजुट हो गए हैं.
(इंडिया टुडे के लिए कुमार आशीष और पौलोमी साहा.)
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