पूरे देश में हुए 15 उप-चुनावों के नतीजे भाजपा के लिए कड़वा संदेश देते हैं: हवा का रुख मुड़ रहा है. साथ ही विपक्ष के लिए संदेश साफ है: जीतने के लिए एकजुट हो जाएं. खासकर दंगा प्रभावित क्षेत्र कैराना में विपक्ष समर्थित राष्ट्रीय लोक दल के प्रत्याशी द्वारा अपने उम्मीदवार की हार बीजेपी के लिए ज्यादा कष्टप्रद होगी. 2014 के लोकसभा चुनाव में इस निर्वाचन क्षेत्र को इन्होंने बड़े आराम से जीता था.
तब से दो चीजें बदल गई हैं. पहला, 2014 में मोदी लहर थी: बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 संसदीय सीटों पर कब्जा कर लिया था. और सहयोगियों के साथ 73 में जीत हासिल की थी. चार साल बाद ये लहर खत्म हो गई. कुछ थकान के कारण और कुछ लोगों की विरक्ति के कारण.
दूसरा, 2014 में, विपक्ष बिखरा हुआ था तो वोटों के बंटवारे के कारण भाजपा को कैराना और यूपी में बड़ी जीत मिली थी. कैराना उप-चुनाव में, विपक्ष एक ब्लॉक के रूप में लड़ा. विपक्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में इसी जीत को दोहरा सकता है? उन राज्यों में जहां दो से पार्टियां मैदान में हों वहां तो ये दोहरा सकते हैं. लेकिन जहां काफी हद तक मुकाबला दो ही पार्टियों के बीच हो वहां ये काम नहीं करेगा.
एनडीए का बिखरता कुनबा-
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने सहयोगियों के साथ संबंध को बनाए रखने में बहुत बड़ी गलती की है. एनडीए की सभी पार्टियों के साथ नियमित बैठकों के बजाय, बीजेपी ने उन्हें नजरअंदाज किया. यहां तक की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के चंद्रबाबू नायडू ने जब आंध्रप्रदेश के लिए विशेष राज्य की मांग की तो उनका अपमान किया गया. चंद्रबाबू नायडू द्वारा प्रधान मंत्री से मिलने के कई प्रयास विफल रहे. उनके फोन...
पूरे देश में हुए 15 उप-चुनावों के नतीजे भाजपा के लिए कड़वा संदेश देते हैं: हवा का रुख मुड़ रहा है. साथ ही विपक्ष के लिए संदेश साफ है: जीतने के लिए एकजुट हो जाएं. खासकर दंगा प्रभावित क्षेत्र कैराना में विपक्ष समर्थित राष्ट्रीय लोक दल के प्रत्याशी द्वारा अपने उम्मीदवार की हार बीजेपी के लिए ज्यादा कष्टप्रद होगी. 2014 के लोकसभा चुनाव में इस निर्वाचन क्षेत्र को इन्होंने बड़े आराम से जीता था.
तब से दो चीजें बदल गई हैं. पहला, 2014 में मोदी लहर थी: बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 संसदीय सीटों पर कब्जा कर लिया था. और सहयोगियों के साथ 73 में जीत हासिल की थी. चार साल बाद ये लहर खत्म हो गई. कुछ थकान के कारण और कुछ लोगों की विरक्ति के कारण.
दूसरा, 2014 में, विपक्ष बिखरा हुआ था तो वोटों के बंटवारे के कारण भाजपा को कैराना और यूपी में बड़ी जीत मिली थी. कैराना उप-चुनाव में, विपक्ष एक ब्लॉक के रूप में लड़ा. विपक्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में इसी जीत को दोहरा सकता है? उन राज्यों में जहां दो से पार्टियां मैदान में हों वहां तो ये दोहरा सकते हैं. लेकिन जहां काफी हद तक मुकाबला दो ही पार्टियों के बीच हो वहां ये काम नहीं करेगा.
एनडीए का बिखरता कुनबा-
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने सहयोगियों के साथ संबंध को बनाए रखने में बहुत बड़ी गलती की है. एनडीए की सभी पार्टियों के साथ नियमित बैठकों के बजाय, बीजेपी ने उन्हें नजरअंदाज किया. यहां तक की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के चंद्रबाबू नायडू ने जब आंध्रप्रदेश के लिए विशेष राज्य की मांग की तो उनका अपमान किया गया. चंद्रबाबू नायडू द्वारा प्रधान मंत्री से मिलने के कई प्रयास विफल रहे. उनके फोन कॉल का जवाब नहीं दिया गया. आखिरकार जब मोदी नायडू से मिले, तो साथ का खत्म होना तय था.
टीडीपी के बाहर होने से न सिर्फ लोकसभा और राज्यसभा दोनों में एनडीए की संख्या में कमी आई, बल्कि एनडीए के अन्य सहयोगियों को अपनी शिकायतों को जाहिर करने का हौंसला भी दिया. रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) और शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) जैसे छोटे सहयोगी दबी जुबान में ही सही भाजपा द्वारा उपेक्षा की शिकायत करते रहे हैं. रणनीति बनाने पर बातचीत, अर्थव्यवस्था के बारे में चर्चाएं और भविष्य के चुनावों के लिए रणनीति बनाने पर शायद ही कभी चर्चा हुई है.
शिवसेना के साथ की समस्या पूरी तरह से अलग है. अपने स्वर्गीय पिता बालासाहेब ठाकरे के तरह ही उद्धव ठाकरे ने अपने जीवन में कभी भी चुनाव नहीं लड़ा है. वो एक कठिन इंसान हैं. अमित शाह ने उन्हें पिछले कुछ सालों में छोटे छोटे झटके दिए हैं. जब बालासाहेब ठाकरे जीवित थे, तब स्वर्गीय प्रमोद महाजन जब भी मुंबई में होते तो बाला साहब के निवास स्थल मातोश्री में सम्मान दर्शाने जरुर जाते. ये उन्होंने नियम बना लिया था. वहीं शाह और मोदी ने बड़े पैमाने पर उद्धव को नजरअंदाज कर दिया है. इसके अलावा, शिवसेना का मानना है कि भाजपा महाराष्ट्र में उनके हिंदुत्व की अपील को कम कर रही है. इसलिए ही शिव सेना, भाजपा पर हमला तो लगातार करती है लेकिन केंद्र में या देवेंद्र फडणवीस की अगुवाई वाली महाराष्ट्र सरकार से बाहर निकलने में हिचकिचा रही है.
केंद्रीय परिवहन और नौवहन मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में कहा था कि बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन एक दुखी विवाह की तरह है. दोनों पार्टनर न तो एक साथ रह सकते हैं और न ही एक दूसरे के बगैर. लेकिन ऐसे मामले में बीजेपी को पता होना चाहिए कि अंततः तलाक ही होता है.
डगमगाते नीतीश-
नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) भी यही महसूस करती है कि उनके साथ खराब व्यवहार किया जा रहा है. हालांकि जोकीहाट उपचुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) द्वारा मिली हार के बाद नीतीश कुमार के पास बहुत ही कम विकल्प बचे हैं. आरजेडी उनके साथ वापस हाथ मिलाएगी नहीं और उनके साथ बीजेपी सिर्फ एक क्षेत्रीय नेता की तरह व्यवहार करती है.
वित्त की विसंगतियां-
मोदी और शाह के द्वारा अपने सहयोगियों के साथ बीजेपी के रिश्ते को नजरअंदाज करने के अलावा पार्टी की कमजोर होती लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण वित्त मंत्रालय का कुप्रबंधन है. वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेटली का चुनाव करना हमेशा से ही गलत था. जेटली ने अपने पांच केंद्रीय बजट (जुलाई 2014 में अंतरिम बजट सहित) के बाद मध्यम वर्ग को निराश किया है. मध्यम वर्ग भाजपा के लिए मजबूत वोट बैंक है. उन्होंने अनावश्यक तरीके से जीएसटी लगाकर व्यापारियों को दूर कर लिया. भाजपा के लिए व्यापारी वर्ग भी एक बड़ा वोट बैंक है. यही नहीं उन्होंने टैक्स छापे और घुसपैठ करने वाले कानूनों को लाकर उद्योगपतियों को भी गुस्से से लाल कर दिया. ये उद्योगपति बीजेपी को भारी दान देते हैं.
पेट्रोल की बढ़ती कीमत-
ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी भी इस बात की गवाही देती है कि जेटली के अंदर काम करने वाले वित्त मंत्रालय की नौकरशाही जमीनी हकीकत से कितने कटे हुए हैं. नौकरशाही पर भरोसे ने गुजरात में मोदी के लिए काम किया क्योंकि वहां के बाबू शायद ही कोई आदेशों का कभी उल्लंघन करता है. लेकिन दिल्ली में नौकरशाह अपनी पुरानी वफादारी के साथ टिके रहते हैं और अक्सर भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा होते हैं. उन्होंने कई सरकारी प्रस्तावों में या तो देरी की या फिर उसे हटा दिया.
रक्षा मंत्रालय की गांधीगिरी-
हाल ही में रक्षा मंत्रालय द्वारा नागरिकों के छावनी तक पहुंचने के आदेश में भी नौकरशाही के घातक प्रभाव को देखा जा सकता है. इससे सैनिकों के परिवारों, महिलाओं और बच्चों पर आतंकवादी हमलों का खतरा मंडराने लगेगा. दरअसल, पाकिस्तान के साथ Most Favoured Nation के स्टेटस को लेकर मोदी की नीति बड़ी ही असंगत रही है. साथ ही पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादी हमलों के बावजूद वाघा सीमा पर व्यापार अनवरत जारी है.
इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी ने भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का नेतृत्व किया है. वित्तीय समावेश, बैंकिंग सुधार और ग्रामीण विद्युतीकरण पर नई योजनाएं लागू की हैं. लेकिन बहुत ही कम रक्षा बजट और शिक्षा-स्वास्थ्य पर खराब खर्च उनकी बड़ी नाकामी है. निर्भया फंड में से कुछ भी खर्च नहीं हुआ. चार साल बाद भी अभी तक लोकपाल लागू नहीं हुआ है. और सीआईसी में रिक्तियों ने आरटीआई को प्रभावित किया है.
इनमें से कोई भी Maximum Governance and Minimum Government के उनके वादे को पूरा नहीं करता. कैराना में उप-चुनावों के परिणाम इस बात की तस्दीक करते हैं कि एकजुट विपक्ष, सहयोगी विहीन बीजेपी को 2019 में कड़ी टक्कर दे सकता है.
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