नेपाल चुनाव (Nepal Election) में कुछ अंदरूनी, कुछ बाहरी ताकतें अपने मनमाफिक परिणाम चाहती थीं, पर वैसा हुआ नहीं? इस चुनाव में कईयों की हार हुई है. चीन प्रचंड-ओली गठबंधन की हुकूमत का पक्षधर था, लेकिन समय रहते नेपालियों ने उनके मंसूबों को भांपकर सत्ता फिर से शेर बहादुर देउबा के हाथों सौंप रहे हैं. जनता जर्नादन का ये निर्णय निश्चित रूप से देश हित और भारत से अच्छे संबंधों की नींव रखना होगा.
भारत-नेपाल के दरमियान सदियों से सामाजिक, सांस्कृतिक ज्यादातर पारंपरिक रीति-रिवाज आपस में साक्षा रहे हैं, सिलसिला बदस्तूर जारी भी है. राजनीतिक हवा भी कमोबेश मिलती झुलती रही हैं. मौजूदा समय में हिंदुस्तान में राष्टृवाद की जड़े जिस अंदाज से मजबूत हुई हैं. उसे देखकर नेपाल भी हिंदुस्तान के नक्शेकदम पर चल पड़ा है. पर, वहां कुछ नेता ऐसे हैं जो ना राष्टृ को मजबूत करने देना चाहते हैं और ना ही पड़ोसी भारत से रिश्ते सुधरने देना चाहते हैं. इसके पीछे की वजह भी साफ है. वहां के कुछ राजनेता अपनी गंदी सियासत को चमकाने के लिए मधुर संबंधों की भी बलि चढ़ाने से नहीं चूक रहे. फिलहाल ऐसे नेताओं को नेपाली जनता ने मौजूदा आम चुनाव में औकात दिखा दी है. नेपाल के लोग कतई नहीं चाहते कि उनके संबंध भारत से खराब हों.
बहरहाल, नेपाल के आम चुनाव के परिणाम आ चुके हैं. हुकूमत किसकी होगी, इसकी भी स्वीर तकरीबन साफ हो गई है. मौजूदा प्रधानमंत्री ही फिर से गठबंधन के साथ मुल्क की कमान संभालेंगे. देखा जाए तो, पड़ोसी पहाड़ी मुल्क नेपाल की अंदरूनी सियासत में कुछ भी होता है तो उसकी धमक हिंदुस्तान में साफ तौर पर सुनाई देती है.
चुनावों में वहां इस बार भारत...
नेपाल चुनाव (Nepal Election) में कुछ अंदरूनी, कुछ बाहरी ताकतें अपने मनमाफिक परिणाम चाहती थीं, पर वैसा हुआ नहीं? इस चुनाव में कईयों की हार हुई है. चीन प्रचंड-ओली गठबंधन की हुकूमत का पक्षधर था, लेकिन समय रहते नेपालियों ने उनके मंसूबों को भांपकर सत्ता फिर से शेर बहादुर देउबा के हाथों सौंप रहे हैं. जनता जर्नादन का ये निर्णय निश्चित रूप से देश हित और भारत से अच्छे संबंधों की नींव रखना होगा.
भारत-नेपाल के दरमियान सदियों से सामाजिक, सांस्कृतिक ज्यादातर पारंपरिक रीति-रिवाज आपस में साक्षा रहे हैं, सिलसिला बदस्तूर जारी भी है. राजनीतिक हवा भी कमोबेश मिलती झुलती रही हैं. मौजूदा समय में हिंदुस्तान में राष्टृवाद की जड़े जिस अंदाज से मजबूत हुई हैं. उसे देखकर नेपाल भी हिंदुस्तान के नक्शेकदम पर चल पड़ा है. पर, वहां कुछ नेता ऐसे हैं जो ना राष्टृ को मजबूत करने देना चाहते हैं और ना ही पड़ोसी भारत से रिश्ते सुधरने देना चाहते हैं. इसके पीछे की वजह भी साफ है. वहां के कुछ राजनेता अपनी गंदी सियासत को चमकाने के लिए मधुर संबंधों की भी बलि चढ़ाने से नहीं चूक रहे. फिलहाल ऐसे नेताओं को नेपाली जनता ने मौजूदा आम चुनाव में औकात दिखा दी है. नेपाल के लोग कतई नहीं चाहते कि उनके संबंध भारत से खराब हों.
बहरहाल, नेपाल के आम चुनाव के परिणाम आ चुके हैं. हुकूमत किसकी होगी, इसकी भी स्वीर तकरीबन साफ हो गई है. मौजूदा प्रधानमंत्री ही फिर से गठबंधन के साथ मुल्क की कमान संभालेंगे. देखा जाए तो, पड़ोसी पहाड़ी मुल्क नेपाल की अंदरूनी सियासत में कुछ भी होता है तो उसकी धमक हिंदुस्तान में साफ तौर पर सुनाई देती है.
चुनावों में वहां इस बार भारत विरोधी प्रचार खूब हुआ. उनके पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भारत से पुरानी जमीन वापस लेने का मुद्दा उठाया. उनका आरोप है कि भारत ने नेपाल की करोड़ों एकड़ जमीन पर जबरन कब्जा किया हुआ है, जिसे प्रधानमंत्री बनने के बाद वो छुड़वा लेंगे. उनके बयान का विरोध भारत के अलावा नेपाल में भी हुआ. हालांकि उनके इस दावे को नेपाली जनता ने सिरे से नकारा, चुनाव में झांसे में नहीं आए, शायद यही राष्टृविरोधी हथकंड़ा उनकी हार की वजह भी बना? जबकि, चुनाव पूर्व उनकी पार्टी की स्थित बहुत अच्छी थी, सरकार बनाने की प्रबल संभावनाएं लोग जता रहे थे. पर, एक बयान ने उनको कहीं का नहीं छोड़ा, पीछे धकले दिया.
गौरतलब है, केपी शर्मा ओली जब नेपाल के प्रधानमंत्री हुआ करते थे. तब से ही चीन की वकालत करते आए हैं और लगातार भारत की मुखालफत करते हैं. हालांकि भारत ने आज तक ना उनका प्रतिकार किया और ना ही खुलेआम विरोध? इसलिए कि एक ना एक दिन ओली खुद समझ जाएंगी चीन की चालाकी.
दरअसल, हिंदुस्तान की तरह नेपाल में भी हिंदू आबादी रिकॉर्ड तौर पर बहुमत में है. सातों राज्यों में अस्सी से नब्बे फीसदी हिंदू ही हैं. जो किसी को भी हराने-जिताने का मादा रखते हैं. अपने पर आ जाए तो किसी को भी बहुमत देकर देश की सत्ता सौंप दें. नेपालियों ने फिलहाल शर्मा ओली को चुनाव परिणामों में खारिज कर दिया है. ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल के हिस्से 78 सीटें आई हैं. जबकि, मौजूदा प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की पार्टी नेपाली कांग्रेस 89 सीटें जीतकर टॉप पर है. पिछले आम चुनाव में ओली की यूएमएल पार्टी सबसे बड़ी पार्टी उभरी थी. इस बार क्यों पिछड़ी, उसका कारण भी पानी की तरह साफ है.
दरअसल, ओली का चाइना प्रेम उन्हें ले डूबा, अब भी वक्त है, सुधर जाएं, वरना स्थिति आने वाले समय में विपक्ष में बैठने की भी नहीं रहेगी. गनीमत ये समझे, भारत के खिलाफ उन्होंने बयान, तब दिया जब पांच राज्यों में चुनाव निपट चुके थे, सिर्फ दो राज्य शेष बचे थे, वरना सीटें और कम होती. पड़ोसी देश से अच्छे संबंध और ठीक ठाक कार्यकाल के लिए शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस ने उम्मीद से बढ़कर प्रदर्शन किया है. देउबा के संबंध भारत के साथ हमेशा से मधुर रहे हैं.
उनकी सरकार आने के बाद भारत के साथ संबंधों में फिर से गर्मजोशी देखने को मिलेगी. जबकि, पूर्ववर्ती केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में निचले स्तर पर पहुंच गई थी ये गर्मजोशी. हालांकि देउबा सरकार ने तीन बार राजनयिक नोटिस भारत को भेजे हैं, जिसको लेकर थोड़ी नाराजगी जरूर हुई, फिर भी तीनों नोटिस का जबाव भारत सरकार ने सहजता से देकर मुद्दे को भड़कने नहीं दिया.
नेपाल में सात राज्य हैं, सभी में पिछले महीने नबंवर में वोटिंग हुई थी, परिणाम आने में देर इसलिए लगी, क्योंकि वहां ईवीएम से वोट नहीं डाले जाते, बैलेट पेपर से मतदान हुआ है, इसलिए वोट गिनने में एकाध महीना लगा. फिलहाल वहां गड़बडी की संभावनाएं नहीं होती. अगर होती तो चाइना अपनी पसंद की पार्टियों के साथ मिलकर कुछ ना कुछ खुराफात जरूर करता. दरअसल, चाइना नेपाल पर अपनी पकड़ मजबूत रखना चाहता है. प्रचंड या ओली की अगर सत्ता रहती तो उनकी टयूनिंग मनमाफिक रहती. फिलहाल प्रचंड-ओली की जोड़ी विपक्ष में रहेंगी. पर, संभावनाएं ऐसी हैं कि दोनों सरकार को गिराने की कोशिशें करते रहेंगे.
बहरहाल, ओली स्पष्ट बहुमत से आएंगे. अपनी अंदरूनी लड़ाई मजबूती से लड़ेंगे. इसके लिए दोनों सदनों में उनके सदस्यों की संख्या अच्छे होनी चाहिए. नेपाली संसद में भारत की ही तरह दो सदनें होती हैं. ऊपरी सदन को ‘नेशनल असेंबली’ जबकि निचले सदन को ‘हाउस ऑफ़ रेप्रजेंटेटिव्स’ कहते हैं. ऊपरी सदन में 59 सदस्य होते हैं, जिनमें 56 सदस्य सभी सातों प्रांतों से चुने जाते हैं. वहीं, तीन सदस्यों को राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं. ऊपरी सदन के सदस्यों का कार्यकाल छह वर्ष का होता है. एक नियम ये भी वहां प्रत्येक दो वर्ष में एक-तिहाई सदस्य रिटायर कर दिए जाते हैं.
सबसे असरदार निचली सदन होती है जिसमें कुल 275 सदस्य होते हैं. उनका कार्यकाल पांच साल या संसद भंग होने तक रहता है. निचले सदन में बहुमत दल का नेता खुद प्रधानमंत्री होता है. बहुमत के लिए 138 सीटों की आवश्यकता होती है. नेपाल में एक अच्छी बात है, जब किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलता, उस दिशा में राष्ट्रपति सबसे बड़ी पार्टी के नेता को अपने विषेशाधिकार का प्रयोग करके प्रधानमंत्री बना देते हैं. बहरहाल, इस बार देउबा अपने गठबंधन के साथ सरकार बनाने की ओर हैं. उन्हें शायद ही किसी दिक्कत का सामना करना पड़े. उनका प्रधानमंत्री बनना निश्चित रूप से भारत-नेपाल के हितों में होगा.
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