बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जब गांधीनगर में खुद को लालकृष्ण आडवाणी के उत्तराधिकारी के रूप में प्रोजेक्ट कर रहे थे, तो वो वाजपेयी-आडवाणी युग को आखिरी सलामी दे रहे थे. पांच साल पहले आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में पहुंचा कर बीजेपी ने अब उन्हें बेटिकट भी कर दिया है. आडवाणी ये सब चुपचाप देखते रहे और बीजेपी की स्थापना के दो दिन पहले एक ब्लॉग लिखा - 'नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट' यानी सबसे पहले देश और सबसे आखिर में वो खुद - बीजेपी बीच में. 6 अप्रैल 1980 को बीजेपी की स्थापना हुई थी जो अब 39 साल की हो चुकी है.
आडवाणी के 'मन की बात'
बीजेपी में राजनीतिक सक्रियता से लालकृष्ण आडवाणी की विदाई पर औपचारिक मुहर लगने पर उन्होंने लंबी खामोशी के बाद 'मन की बात' कही है - लेकिन वे बातें नयी बीजेपी के लिए बहुत मायने नहीं रखतीं. बीजेपी उन बातों से काफी आगे बढ़ चुकी है.
एक दौर रहा जब सिर्फ 13 दिन में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर जाने पर बीजेपी ने गर्व महसूस किया था कि उसने अपनी 'पार्टी विद डिफरेंस' की छवि बरकरार रखी. तब बीजेपी का संदेश रहा कि वो कांग्रेस की तरह सत्ता की भूखी नहीं है. अब वो बदल चुका है. सिर्फ अपना ही नहीं अब उसे दूसरे का खाना भी छीन कर खाने में उसे कोई संकोच नहीं है. गोवा और मणिपुर में बीजेपी की सरकारें सिद्धांत इसी बदलाव के चलते बन पायीं. लेकिन क्या बीजेपी का पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी सोच ऐसी ही है - क्या वहां सत्ता की भूख नहीं है. यही वो समझने वाली बात है जो आडवाणी अब तक नहीं समझ सके - संघ को अपना एजेंडा लागू करने के लिए ऐसे ही नेतृत्व की जरूरत थी जो सत्ता का भूखा हो. जब उसे मोदी-शाह के रूप में ऐसी उम्मीद दिखायी थी तो उसने आडवाणी के खिलाफ हरी झंडी दे दी. देखा जाये तो मोदी-शाह की जोड़ी उसी नींव पर इमारत बना रही है जिसे रखने वालों में आडवाणी भी शुमार रहे.
नयी बीजेपी उसी का नेक्स्ट वर्जन है - जो चुनावी राजनीति को भी आगे बढ़ कर लेती है. बिलकुल किसी जंग की तरह. एक जंग की तरह जिसमें सब कुछ...
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जब गांधीनगर में खुद को लालकृष्ण आडवाणी के उत्तराधिकारी के रूप में प्रोजेक्ट कर रहे थे, तो वो वाजपेयी-आडवाणी युग को आखिरी सलामी दे रहे थे. पांच साल पहले आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में पहुंचा कर बीजेपी ने अब उन्हें बेटिकट भी कर दिया है. आडवाणी ये सब चुपचाप देखते रहे और बीजेपी की स्थापना के दो दिन पहले एक ब्लॉग लिखा - 'नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट' यानी सबसे पहले देश और सबसे आखिर में वो खुद - बीजेपी बीच में. 6 अप्रैल 1980 को बीजेपी की स्थापना हुई थी जो अब 39 साल की हो चुकी है.
आडवाणी के 'मन की बात'
बीजेपी में राजनीतिक सक्रियता से लालकृष्ण आडवाणी की विदाई पर औपचारिक मुहर लगने पर उन्होंने लंबी खामोशी के बाद 'मन की बात' कही है - लेकिन वे बातें नयी बीजेपी के लिए बहुत मायने नहीं रखतीं. बीजेपी उन बातों से काफी आगे बढ़ चुकी है.
एक दौर रहा जब सिर्फ 13 दिन में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर जाने पर बीजेपी ने गर्व महसूस किया था कि उसने अपनी 'पार्टी विद डिफरेंस' की छवि बरकरार रखी. तब बीजेपी का संदेश रहा कि वो कांग्रेस की तरह सत्ता की भूखी नहीं है. अब वो बदल चुका है. सिर्फ अपना ही नहीं अब उसे दूसरे का खाना भी छीन कर खाने में उसे कोई संकोच नहीं है. गोवा और मणिपुर में बीजेपी की सरकारें सिद्धांत इसी बदलाव के चलते बन पायीं. लेकिन क्या बीजेपी का पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी सोच ऐसी ही है - क्या वहां सत्ता की भूख नहीं है. यही वो समझने वाली बात है जो आडवाणी अब तक नहीं समझ सके - संघ को अपना एजेंडा लागू करने के लिए ऐसे ही नेतृत्व की जरूरत थी जो सत्ता का भूखा हो. जब उसे मोदी-शाह के रूप में ऐसी उम्मीद दिखायी थी तो उसने आडवाणी के खिलाफ हरी झंडी दे दी. देखा जाये तो मोदी-शाह की जोड़ी उसी नींव पर इमारत बना रही है जिसे रखने वालों में आडवाणी भी शुमार रहे.
नयी बीजेपी उसी का नेक्स्ट वर्जन है - जो चुनावी राजनीति को भी आगे बढ़ कर लेती है. बिलकुल किसी जंग की तरह. एक जंग की तरह जिसमें सब कुछ जायज होता है - सब कुछ मतलब सबकुछ मतलब कुछ भी. आडवाणी के मन की बातें अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं - ये उन्हें बहुत पहले ही समझ लेना चाहिये था.
आखिर सत्ता की भूख भी तो सियासत का पेशवराना अंदाज ही है - बीजेपी वैसे भी समाजसेवा के लिए बना कोई गैर-सरकारी संगठन तो है नहीं.
'राजधर्म' और 'राजनीतिक धर्म'
बरसों पहले नरेंद्र मोदी को मिले 'राजधर्म' की नसीहत की चर्चा जब तब होती रहती है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बाद, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व को 'राजनीतिक धर्म' की सलाहियत दी है. हैरान करने वाली बात ये है कि आडवाणी ने जो सलाह दी है उसका फोकस बीजेपी के राजनीतिक विरोधी दल हैं. कांग्रेस सहित सारे विपक्षी दल आडवाणी के ब्लॉग को अपने पक्ष में और बीजेपी के खिलाफ सर्टिफिकेट के तौर पर ले रहे हैं.
अपने ब्लॉग में आडवाणी ने समझाने कि कोशिश की है कि केंद्र और कई राज्यों में सत्ताधारी बीजेपी राजनीतिक विरोधियों के साथ जिस तरह पेश आ रही है वो बिलकुल गलत है - और बीजेपी के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है. आडवाणी का कहना है कि बीजेपी ने राजनीतिक विरोधियों को कभी राष्ट्रविरोधी नहीं समझा, बल्कि अपने ही समाज का हिस्सा समझा है. मौजूदा नेतृत्व कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों पर पाकिस्तान की भाषा बोलने का आरोप लगा रहा है. कह रहा है कि देश का विपक्ष अपनी बातों से पाकिस्तान में हीरो बन रहा है.
सवाल ये है कि आडवाणी को ऐसी बातों का एहसास इतनी देर से क्यों हुआ? ये बातें तो पांच साल से चल रही हैं. बीजेपी के तमाम नेता लोगों को कहते रहे कि जिन्हें 'ऐसा नहीं करना, वैसा नहीं करना', उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिये. आखिर आडवाणी ने देश में हुई मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर कभी कोई ब्लॉग क्यों नहीं लिखा?
अब आडवाणी ने सिर्फ एक बार देश में इमरजेंसी जैसे हालात की आशंका जतायी है, उसके अलावा तो कभी किसी मुद्दे पर ब्लॉग लिख कर विरोध नहीं जताया. लगता तो यही है कि आडवाणी के सब्र का बांध तभी टूटा जब गांधीनगर से उनका टिकट काट दिया गया. आडवाणी के साथ जो कुछ हुआ उसकी तो पूरी आशंका उन्हें भी रही ही होगी. क्या ऐसा नहीं लगता कि दुरुस्त आने में आडवाणी ने बहुत देर कर दी?
चुनाव हुआ नहीं और तैयारी शुरू
बीजेपी का मौजूदा नेतृत्व किस सोच के साथ राजनीति करता है, टाइम्स ऑफ इंडिया के एक रिपोर्ट से साफ हो जाता है. रिपोर्ट के मुताबिक देश में नई सरकार के आने के लिए वोट डाले जाने से पहले से ही बीजेपी नेतृत्व अगली पारी की तैयारी में जुट चुका है. मतलब बीजेपी नेतृत्व ये मान कर चल रहा है कि सत्ता में उसकी वापसी तय है - और वैसी सूरत में पहले 100 दिन में क्या किन कामों पर जोर रहेगा उसकी अनौपचारिक तैयारी चालू है. रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री कार्यालय ने कई मंत्रालयों को उन योजनाओं की पहचान कर लेने के लिए कह दिया है जिन पर प्राथमिकता के आधार पर काम होने हैं - ताकि बगैर वक्त गवांये काम चलता रहे.
समझने और समझाने के लिए तो ये भी कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात की परवाह नहीं कर रहे हैं कि अगली सरकार कौन बनाएगा, बल्कि कामकाज में रुकावट न आये उसका भी इंतजाम कर दे रहे हैं - अगर नीतिगत तौर पर काम में कोई बड़ी बाधा न खड़ी हो रही हो. कहने को तो 2004 में भी बीजेपी नेतृत्व सत्ता में वापसी तय मान कर चल रहा था, लेकिन 'शाइनिंग इंडिडा' की चुनावों में चमक फीकी पड़ गयी - और कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए न सिर्फ पांच साल का एक कार्यकाल पूरा किया, बल्कि 2009 में बीजेपी की 'आडवाणी फॉर पीएम' मुहिम बेअसर साबित हुई. अब तो आडवाणी को भी समझ आ चुका होगा कि संघ को भी सत्ता का भूखा नेतृत्व ही पसंद है, वो सिद्धांतों के लिए सत्ता गवां कर अपना एजेंडा लागू करने के लिए लंबे समय तक इंतजार नहीं कर सकता.
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