जो सवाल येदियुरप्पा के सामने रहा, वही एचडी कुमारस्वामी के सामने भी खड़ा है - कितने दिन कुर्सी पर बैठ पाएंगे वो? येदियुरप्पा के सामने ये सवाल इसलिए भी रहा क्योंकि वो कोई भी कार्यकाल पूरा नहीं कर सके थे. वैसे कर्नाटक में सिद्धारमैया को छोड़ कर किसी को भी कार्यकाल पूरा करने का सुख प्राप्त नहीं हो सका है.
येदियुरप्पा और कुमारस्वामी में काफी फर्क है. येदियुरप्पा के तो सामने एक ही दुश्मन रहा. कहने को दो दुश्मन भी कहे जा सकते हैं, लेकिन उनके खिलाफ एकजुट होकर ही वे मजबूत पड़े. अकेले दोनों में से कोई येदियुरप्पा का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, कम से कम मौजूदा हालात में. कुमारस्वामी के साथ ऐसी बात नहीं है. कुमारस्वामी का मामला थोड़ा अलग लगता है. कुमारस्वामी की एक दुश्मन तो सीधे सीधे बीजेपी है - और कांग्रेस भी कितने दिन तक दोस्त बनी रहेगी, कोई नहीं कह सकता. कांग्रेस भला दोस्ती निभाये भी तो क्यों?
येदियुरप्पा से कितना अलग कुमारस्वामी का केस
येदियुरप्पा से तो संभव नहीं हो पाया. क्या मान कर चला जा सकता है कि कुमारस्वामी आसानी से बहुमत साबित कर लेंगे? ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि कांग्रेस का मिशन कामयाब हो चुका है - और उसका भी अपना इतिहास रहा है. 1979 में चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गये लेकिन विश्वासमत से पहले ही हथियार डाल देने पड़े. तब इंदिरा गांधी का तर्क रहा कि कांग्रेस का सपोर्ट सिर्फ मोरारजी देसाई की सरकार गिराने तक था, न कि नयी सरकार चलाने देने के लिए.
देखा जाये तो कर्नाटक में भी कांग्रेस का मकसद पूरा हो चुका है. आखिर कांग्रेस ने कुमारस्वामी को सपोर्ट भी तो सिर्फ बीजेपी को रोकने के लिए ही दिया था. कांग्रेस ने मुख्यमंत्री की कुर्सी भी इसीलिए कुर्बान कर दी....
जो सवाल येदियुरप्पा के सामने रहा, वही एचडी कुमारस्वामी के सामने भी खड़ा है - कितने दिन कुर्सी पर बैठ पाएंगे वो? येदियुरप्पा के सामने ये सवाल इसलिए भी रहा क्योंकि वो कोई भी कार्यकाल पूरा नहीं कर सके थे. वैसे कर्नाटक में सिद्धारमैया को छोड़ कर किसी को भी कार्यकाल पूरा करने का सुख प्राप्त नहीं हो सका है.
येदियुरप्पा और कुमारस्वामी में काफी फर्क है. येदियुरप्पा के तो सामने एक ही दुश्मन रहा. कहने को दो दुश्मन भी कहे जा सकते हैं, लेकिन उनके खिलाफ एकजुट होकर ही वे मजबूत पड़े. अकेले दोनों में से कोई येदियुरप्पा का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, कम से कम मौजूदा हालात में. कुमारस्वामी के साथ ऐसी बात नहीं है. कुमारस्वामी का मामला थोड़ा अलग लगता है. कुमारस्वामी की एक दुश्मन तो सीधे सीधे बीजेपी है - और कांग्रेस भी कितने दिन तक दोस्त बनी रहेगी, कोई नहीं कह सकता. कांग्रेस भला दोस्ती निभाये भी तो क्यों?
येदियुरप्पा से कितना अलग कुमारस्वामी का केस
येदियुरप्पा से तो संभव नहीं हो पाया. क्या मान कर चला जा सकता है कि कुमारस्वामी आसानी से बहुमत साबित कर लेंगे? ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि कांग्रेस का मिशन कामयाब हो चुका है - और उसका भी अपना इतिहास रहा है. 1979 में चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गये लेकिन विश्वासमत से पहले ही हथियार डाल देने पड़े. तब इंदिरा गांधी का तर्क रहा कि कांग्रेस का सपोर्ट सिर्फ मोरारजी देसाई की सरकार गिराने तक था, न कि नयी सरकार चलाने देने के लिए.
देखा जाये तो कर्नाटक में भी कांग्रेस का मकसद पूरा हो चुका है. आखिर कांग्रेस ने कुमारस्वामी को सपोर्ट भी तो सिर्फ बीजेपी को रोकने के लिए ही दिया था. कांग्रेस ने मुख्यमंत्री की कुर्सी भी इसीलिए कुर्बान कर दी. कांग्रेस को भी पता था कि कुमारस्वामी बगैर मुख्यमंत्री पद के मानेंगे नहीं. कांग्रेस को ये भी मालूम था कि अगर उसने बड़ा ऑफर नहीं दिया तो कुमारस्वामी का बीजेपी से गठजोड़ होने में देर नहीं लगेगी. कांग्रेस ये भी जानती थी कि बीजेपी तो कुमारस्वामी को सीएम की पोस्ट देने से रही. यही सब सोच कर कुमारस्वामी के सामने चारा फेंका गया और उन्होंने लपक लिया.
अब कांग्रेस का काम हो चुका है. कुमारस्वामी का जितना इस्तेमाल होना था फिलहाल इससे ज्यादा मुमकिन नहीं था. कांग्रेस ने पहले कोई शर्त नहीं रखी थी. अब मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी टकराव का केंद्र बन सकती है.
अभी तक 20-13 की तस्वीर दिखायी जा रही है. इसमें 20 मंत्री कांग्रेस कोटे से होंगे और 13 जेडीएस से. सपोर्ट के बदले निर्दलीय भी कुछ न कुछ चाहेंगे ही.
हो सकता है दोनों पक्ष आपसी हित का ध्यान रखते हुए टकराव को टालने की कोशिश करें - और पहले की ही तरह कुछ दिन और समझौता कर लें, लेकिन बात वहीं अटक जाती है - आखिर कब तक?
आखिर कुमारस्वामी कब तक?
कुमारस्वामी के शपथ को लेकर पहला कन्फ्यूजन तो तारीख को लेकर हो चुका है. पहले पता चल कुमारस्वामी 21 मई को शपथ लेंगे. फिर बताया गया कि 21 नहीं, बल्कि वो दो दिन बाद 23 को शपथ लेंगे. वैसे इस बारे में एक वाजिब कारण सामने आया है. दरअसल, 21 मई को राजीव गांधी की पुण्यतिथि होती है, इसलिए शपथग्रहण दो दिन के लिए टाल दिया गया.
खैर, मान लेते हैं कि कुमारस्वामी विश्वासमत हासिल कर लेते हैं. कैबिनेट भी तैयार हो जाती है. मंत्रियों के विभागों का भी बंटवारा हो जाता है. फिर क्या सरकार भी कार्यकाल पूरा कर पाएगी?
कुमारस्वामी के कार्यकाल पर सवाल उठना येदियुरप्पा के ही एक बयान से लाजिमी हो जाता है. येदियुरप्पा ने अपने त्यागपत्र-भाषण में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कॉपी करने की कोशिश तो की ही, जाते जाते 'लेने के देने' वाले अंदाज में एक हिडेन-वॉर्निंग भी छोड़ गये. अपने भाषण के आखिर में येदियुरप्पा ने कहा, "...जब भी चुनाव होंगे मैं तैयार रहूंगा. अब मैं जा रहा हूं."
"जब भी चुनाव होंगे..." इस बयान के साथ येदियुरप्पा ने आखिर किस ओर इशारा किया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि येदियुरप्पा ने इसमें भी वैसा ही कुछ बताने की कोशिश की हो जैसे उन्होंने अपने शपथग्रहण की तारीख बतायी थी. येदियुरप्पा के इस बयान में कोई तारीख तो नहीं है, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि येदियुरप्पा ये जताने की कोशिश कर रहे हों कि अभी चूक गये तो क्या हुआ. 'हार नहीं मानूंगा...' वाले अंदाज में सदन से निकले येदियुरप्पा और उनके साथी निश्चित रूप से नये मिशन पर काम कर रहे होंगे.
येदियुरप्पा का नया मिशन कर्नाटक की नयी सरकार में सकारात्मक विपक्ष वाला होगा, हाल फिलहाल की हरकतों से ऐसा तो कतई नहीं लगता. पिछले चार साल में अरुणाचल से उत्तराखंड तक बीजेपी के ट्रैक रिकॉर्ड को देखें तो कर्नाटक का भविष्य अंधेरे में ही दिखता है. ये तो 2017 का विधानसभा चुनाव आ गया वरना सीबीआई के नोटिसों ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री कुर्सी पर हरीश रावत को चैन से बैठने कितने दिन दिया. किन हालात में कलिखो पुल को खुदकुशी करनी पड़ी किसे पता. वैसे भी कुमारस्वामी, अरविंद केजरीवाल तो हैं नहीं. केजरीवाल भी तो दिल्ली पुलिस के पचड़े में फंसे ही हैं.
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