पिछले साढ़े तीन साल से हमें यही पता था कि नरेंद्र मोदी एक अजेय नेता हैं. उन्हें कोई हरा नहीं सकता. यहां तक की बिहार और दिल्ली की हार के बाद भी जनता का विश्वास उनकी इस छवि तो तोड़ नहीं पाया. उत्तर प्रदेश चुनावों ने उनकी इस अजेय छवि पर ठप्पा भी लगा दिया. गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद हाल ही में जब राज्य के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल ने विद्रोह का बिगुल फूंकने तक मोदी की छवि एक विजेता वाली ही थी.
अपनी ही जमीन पर मोदी को कांग्रेस से पार पाने में तारे दिख गए. जैसे तैसे उन्होंने चुनाव जीत लिया लेकिन राहुल गांधी अपनी धमक बताने में कामयाब रहे. लेकिन जो काम राहुल गांधी नहीं कर पाए थे वो खुद नितिन पटेल ने कर दिखाया. नितिन पटेल ने प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को झकझोर कर रख दिया.
नितिन पटेल ने भाजपा और गुजरात में एक मजबूत नेता के विश्वास को ध्वस्त कर दिया. पिछली सरकार में उन्हें वित्त, शहरी विकास और पेट्रोकेमिकल विभाग मिले थे. इस बार भी वो इन्हीं विभागों की मांग कर रहे थे. लेकिन मना कर दिया गया. बस इसके बाद उन्होंने गुजरात के दोनों महारथियों को घुटनों पर ला खड़ा किया. अमित शाह ने तुरंत उनसे मुलाकात की और वित्त विभाग नितिन पटेल को सौंपा गया.
नितिन पटेल ने मोदी पर वही हथियार आजमाया जिसे मोदी ने गुजरात चुनाव जीतने के लिए अपनाया था. स्वाभिमान और अस्मिता को मुद्दा बनाकर गुजरात के कई नेता पहले भी दिल्ली के नेताओं को झुकाते रहे हैं. गुजरात के स्थानिय नेताओं द्वारा 'अस्मिता' का मुद्दा तब हथियार बनाया जाता है जब दिल्ली से उन्हें नजरअंदाज किया जाता है.
नितिन पटेल ने पार्टी की परंपरा के विपरीत खुलकर विद्रोह किया. खासकर आरएसएस से आए पार्टी नेताओं को आज्ञा के पालन की शिक्षा ही दी जाती है,...
पिछले साढ़े तीन साल से हमें यही पता था कि नरेंद्र मोदी एक अजेय नेता हैं. उन्हें कोई हरा नहीं सकता. यहां तक की बिहार और दिल्ली की हार के बाद भी जनता का विश्वास उनकी इस छवि तो तोड़ नहीं पाया. उत्तर प्रदेश चुनावों ने उनकी इस अजेय छवि पर ठप्पा भी लगा दिया. गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद हाल ही में जब राज्य के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल ने विद्रोह का बिगुल फूंकने तक मोदी की छवि एक विजेता वाली ही थी.
अपनी ही जमीन पर मोदी को कांग्रेस से पार पाने में तारे दिख गए. जैसे तैसे उन्होंने चुनाव जीत लिया लेकिन राहुल गांधी अपनी धमक बताने में कामयाब रहे. लेकिन जो काम राहुल गांधी नहीं कर पाए थे वो खुद नितिन पटेल ने कर दिखाया. नितिन पटेल ने प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को झकझोर कर रख दिया.
नितिन पटेल ने भाजपा और गुजरात में एक मजबूत नेता के विश्वास को ध्वस्त कर दिया. पिछली सरकार में उन्हें वित्त, शहरी विकास और पेट्रोकेमिकल विभाग मिले थे. इस बार भी वो इन्हीं विभागों की मांग कर रहे थे. लेकिन मना कर दिया गया. बस इसके बाद उन्होंने गुजरात के दोनों महारथियों को घुटनों पर ला खड़ा किया. अमित शाह ने तुरंत उनसे मुलाकात की और वित्त विभाग नितिन पटेल को सौंपा गया.
नितिन पटेल ने मोदी पर वही हथियार आजमाया जिसे मोदी ने गुजरात चुनाव जीतने के लिए अपनाया था. स्वाभिमान और अस्मिता को मुद्दा बनाकर गुजरात के कई नेता पहले भी दिल्ली के नेताओं को झुकाते रहे हैं. गुजरात के स्थानिय नेताओं द्वारा 'अस्मिता' का मुद्दा तब हथियार बनाया जाता है जब दिल्ली से उन्हें नजरअंदाज किया जाता है.
नितिन पटेल ने पार्टी की परंपरा के विपरीत खुलकर विद्रोह किया. खासकर आरएसएस से आए पार्टी नेताओं को आज्ञा के पालन की शिक्षा ही दी जाती है, और पटेल ने उसे ही दरकिनार कर दिया. तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि नितिन पटेल सारी सीख और संस्कृति को भूल खुलेआम विद्रोह पर उतर आए और आलाकमान को भी पीछे हटकर उन्हें मनाने पर मजबूर होना पड़ा?
पहली बात ये कि पटेल को पता था कि उनका आधार मजबूत है. दो दिन के उनके विरोध में सारे पटेल या पाटीदार नेता उनके समर्थन में आ खड़े हुए. यहां तक की हार्दिक पटेल और कांग्रेस ने भी हाथ बढ़ा दिया.
दूसरी और सबसे जरुरी बात ये कि नितिन पटेल को पता था कि आज के समय में गुजरात में मोदी और शाह की हालत खास्ता है. 182 सीटों वाली विधानसभा में सिर्फ 99 विधायकों के बहुमत के साथ भाजपा तलवार की धार पर चल रही है. वहीं 77 विधायकों के साथ कांग्रेस गले की फांस बनी हुई है. खासकर तब जब अधिकतर पटेल नेता कांग्रेस के समर्थन में हैं.
लेकिन सबसे चिंताजनक तो ये है कि 2014 की धुंआधार लोकसभा जीत के बाद से पहली बार मोदी शाह की जोड़ी इतना सशक्त विरोध झेलना पड़ रहा है. भले ही पार्टी के नेता शत्रुघ्न सिंहा और वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा समय समय पर पार्टी पर हमले करते रहे हैं लेकिन वो गोली हवा में ही चल रही है. नितिन पटेल जितना नुकसान कोई नहीं कर पाता.
नितिन पटेल के विरोध ने मोदी मॉडल की कलई खोलकर रख दी है. मोदी मॉडल को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से प्रेरणा लेकर बनाया गया था. जिसतरह इंदिरा गांधी को अपने कैबिनेट में अकेला मर्द माना जाता था, मोदी भी अपने कैबिनेट में वही दमदार छवि बनाना चाहते हैं. वो चाहते हैं कि इंदिरा गांधी के बाद अगर किसी पीएम को याद किया जाए तो वो ही हों.
कांग्रेस के मजबूत संगठन को तोड़ने के बाद इंदिरा गांधी ने पार्टी में कमजोर लोगों को आगे बढ़ाने की प्रथा की शुरुआत की. ऐसे लोग जिनका कोई मास अपील नहीं था और मजबूत आधार नहीं था, उन्हें राज्यों के मुख्यमंत्री बनाने शुरु किए. और राज्य के मजबूत नेताओं को किनारे लगाना शुरु किया. इसमें मोदी ने इंदिरा गांधी का अनुसरण किया. मोदी और अमित शाह द्वारा नामित अधिकतर मुख्यमंत्री वैसे हैं जिनका कोई मजबूत जनाधार नहीं है. वो सभी मोदी और शाह के दिखाए रस्ते पर चलने वाले हैं.
गुजरात में आनंदी बेन पटेल के बाद विजय रुपानी, झारखंड में रघुवर दास, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर और महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. इन सभी के मुख्यमंत्री बनने का आधार अपने नेता के प्रति निष्ठा थी न की कर्मठता. शासन को कहीं पीछे धकेल दिया गया. मोदी की छवि और शाह की रणनीति ने 2014 के बाद से भाजपा को लगभग हर राज्य में विजय दिलाई है. लेकिन गुजरात चुनावों में दिखा की इनकी छवि अब धूमिल हो रही है. रणनीति फेल हो रही है.
2018 में कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव मोदी शाह जोड़ी के लिए मुश्किल साबित हो सकते हैं. हालांकि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह जैसे कद्दावर नेता हैं भाजपा के पास लेकिन वहां पर सत्ता विरोधी लहरों के चलते पार्टी को मुश्किल हो सकती है. यहां मोदी मॉडल की सबसे कठिन परीक्षा होगी.
मोदी के गुजरात छोड़ने के दो साल के अंदर ही जी हजुरी की प्रथा टूटने लगी. इसकी शुरुआत 2016 में आनंदी बेन पटेल ने की थी. हालांकि वो एक पाटीदार नेता थी लेकिन उनका कोई आधार नहीं था. लोगों को अपेक्षा थी कि हार्दिक पटेल से निपटने के लिए मोदी शाह किसी पाटीदार को ही सत्ता सौपेंगे. लेकिन इस जोड़ी ने एक कमजोर को गुजरात का नेता बनाना सही समझा और रुपानी के सिर पर ताज रख दिया. यहां तक की दिसम्बर के चुनावों में कड़ी टक्कर मिलने के बाद भी इन्होंने रुपानी को ही मुख्यमंत्री बनाया.
नितिन पटेल के विरोध ने मोदी शाह के गढ़ में सेंध लगाने की शुरुआत कर दी है. इसलिए इंदिरा गांधी की नकल करते हुए मोदी को मजबूत नेताओं की बद्दुआओं का भी ध्यान रखना चाहिए.
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