राष्ट्रपति चुनाव में तो कोई शहादत देने को तैयार नहीं हुआ, लेकिन लगता है 2024 के आम चुनाव में नीतीश कुमार को सूली पर चढ़ाने की तैयारी होने लगी है. फारूक अब्दुल्ला तक के इनकार कर देने के बाद यशवंत सिन्हा को मजबूरी में बलि का बकरा बनना पड़ा. और बाद में ममता बनर्जी की तरफ से जितनी भी फजीहत की जा सकती थी, कोई कसर बाकी भी नहीं रखा गया.
हो सकता है राजनीतिक बयानबाजी के जरिये माहौल बनाया जा रहा हो - और फीडबैक लेने की कोशिश चल रही हो, लेकिन राजनीति भी तो क्रिकेट की ही तरह खेली जाती रही है. और ये खेल तो तब तक चलता रहेगा जब तक कि चुनाव नतीजे आ नहीं जाते. 2019 में आपने देखा ही कि कैसे एन. चंद्रबाबू नायडू और विपक्ष के कई नेता वोटिंग के आखिरी दौर के बाद खासे एक्टिव हो गये थे, और नतीजे आने की पूर्वसंध्या तक आपसी संपर्क अभियान जारी रहा.
जेडीयू की तरफ से भले ही नीतीश कुमार के यूपी से चुनाव लड़ने की बात पर राजनीतिक बयान देकर चर्चा को गंभीर बनाने का प्रयास किया गया हो, लेकिन अगर वास्तव में गंभीरतापूर्वक इस मुद्दे पर विचार किया जा रहा हो और अंदर ही अंदर तैयारी भी हो तो इसे यूं ही खारिज भी नहीं किया जा सकता.
फूलपुर लोक सभा क्षेत्र से नीतीश कुमार चाहें तो एक बड़ा संदेश तो दे ही सकते हैं - खासकर, उस राजनीतिक माहौल में जब नेहरू और मोदी की तुलना करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काफी आगे, और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बहुत पीछे धकेल देने की धारणा बनाने की कोशिश चल रही हो.
वैसे भी जब 2014 में वाराणसी सीट पर नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने के दस साल बाद अरविंद केजरीवाल 2024 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन रहे हों, नीतीश कुमार ने तो ज्यादा ही दुनिया देखी है. हार जीत अपनी जगह है, 2024 में अगर विपक्ष नीतीश कुमार को...
राष्ट्रपति चुनाव में तो कोई शहादत देने को तैयार नहीं हुआ, लेकिन लगता है 2024 के आम चुनाव में नीतीश कुमार को सूली पर चढ़ाने की तैयारी होने लगी है. फारूक अब्दुल्ला तक के इनकार कर देने के बाद यशवंत सिन्हा को मजबूरी में बलि का बकरा बनना पड़ा. और बाद में ममता बनर्जी की तरफ से जितनी भी फजीहत की जा सकती थी, कोई कसर बाकी भी नहीं रखा गया.
हो सकता है राजनीतिक बयानबाजी के जरिये माहौल बनाया जा रहा हो - और फीडबैक लेने की कोशिश चल रही हो, लेकिन राजनीति भी तो क्रिकेट की ही तरह खेली जाती रही है. और ये खेल तो तब तक चलता रहेगा जब तक कि चुनाव नतीजे आ नहीं जाते. 2019 में आपने देखा ही कि कैसे एन. चंद्रबाबू नायडू और विपक्ष के कई नेता वोटिंग के आखिरी दौर के बाद खासे एक्टिव हो गये थे, और नतीजे आने की पूर्वसंध्या तक आपसी संपर्क अभियान जारी रहा.
जेडीयू की तरफ से भले ही नीतीश कुमार के यूपी से चुनाव लड़ने की बात पर राजनीतिक बयान देकर चर्चा को गंभीर बनाने का प्रयास किया गया हो, लेकिन अगर वास्तव में गंभीरतापूर्वक इस मुद्दे पर विचार किया जा रहा हो और अंदर ही अंदर तैयारी भी हो तो इसे यूं ही खारिज भी नहीं किया जा सकता.
फूलपुर लोक सभा क्षेत्र से नीतीश कुमार चाहें तो एक बड़ा संदेश तो दे ही सकते हैं - खासकर, उस राजनीतिक माहौल में जब नेहरू और मोदी की तुलना करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काफी आगे, और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बहुत पीछे धकेल देने की धारणा बनाने की कोशिश चल रही हो.
वैसे भी जब 2014 में वाराणसी सीट पर नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने के दस साल बाद अरविंद केजरीवाल 2024 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन रहे हों, नीतीश कुमार ने तो ज्यादा ही दुनिया देखी है. हार जीत अपनी जगह है, 2024 में अगर विपक्ष नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे दो-दो हाथ करने का मौका देता है तो मुकाबला दिलचस्प तो होगा ही.
शिगूफे भी कई बार काम के होते हैं
फूलपुर से नीतीश कुमार के 2024 का लोक सभा चुनाव लड़ने की बात उठी कहां से? और कयासों और अटकलों से होते हुए जब ये बात आगे बढ़ी तो हवा किसने दिया - और बात कितना आगे बढ़ पायी है? ऐसी खबरों को लेकर बरबस ही ऐसे सवाव ख्यालों में आने लगते हैं.
जिस तरीके से नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने में जुटे हैं - और डंके की चोट पर कहते फिर रहे हैं, मालूम नहीं 2014 में जो आये थे 2024 में आएंगे या नहीं? फिर तो किसी की भी दिलचस्पी हो सकती है कि ये महज अफवाह ही है या अंदर ही अंदर कुछ पक भी रहा है.
चिंगारी तो कहीं से भी उठ सकती है, और कहीं से भड़काई भी जा सकती है. तो जानने वाली बात ये है कि ये चिंगारी उड़ते हुए एक सवाल के रूप में जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह के सामने आयी - और मौके की नजाकत समझते हुए थोड़ा सा घी छिड़क कर अपने नेता के लिए उन्होंने आग भड़काते हुए आगे बढ़ा दी.
ललन सिंह ने एक इंटरव्यू में नीतीश कुमार के फूलपुर सीट से चुनाव लड़ने की बात पर ऐसे तरीके से रिएक्ट किया है जैसे कंफर्म ही कर रहे हों - कंफर्म भी ऐसे कि बाद में यूटर्न की नौबत भी आये तो कोई नुकसान न हो. राजनीतिक बयान होते तो ऐसे ही हैं, बशर्ते सवाल की अहमियत समझते हुए आगे पास कर दिया जाये.
नीतीश कुमार को लेकर ऐसी चर्चा तो उनके राज्य सभा जाने को लेकर भी गंभीरतापूर्वक हो चुकी है. बात आगे बढ़ी तो उनको राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति तक बनाये जाने के कयास लगाये जाने लगे. जबकि हकीकत ये थी कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ही खतरा मंडरा रहा था. राज्य सभा जाने और उसके जरिये उपराष्ट्रपति बनाये जाने की चर्चाओं को तो हरी झंडी भी नीतीश कुमार ने ही हंसते हंसते दिखा दी थी.
वैसे ललन सिंह ने नीतीश कुमार के फूलपुर से चुनाव लड़ने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया है. राजनीति में तो इनकार और इकरार में थोड़ा सा ही फर्क होता है - हो सकता है शिगूफा ही हो, लेकिन राजनीतिक विमर्श के लिए मुद्दा तो अच्छा है ही.
रही बात नीतीश कुमार के लोक सभा चुनाव लड़ने की तो अभी 2014 जैसा कोई माहौल तो बना नहीं है. और नीतीश कुमार की पार्टी भी अब तक वैसी स्थिति में नहीं पहुंच पायी है, जैसी बीजेपी तब थी. और सिर्फ नीतीश कुमार की पार्टी की ही कौन कहे, अभी तो हाल ये है कि पूरे विपक्ष को मिला कर भी देखें तो वैसी कोई सूरत बनती नहीं नजर आती.
ऐसे में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिये जाने की सूरत में भी नीतीश कुमार के कहीं से लोक सभा चुनाव लड़ने की संभावना कम ही लगती है - और अगर ये समझा गया कि नीतीश कुमार के चुनाव मैदान में होने से पूरे देश को मैसेज जाएगा तो भी नीतीश कुमार अपने लिये कोई ऐसी सीट की तलाश करेंगे जहां पहले से ही जीत पक्की नजर आ रही हो. जाहिर है, उत्तर प्रदेश की फूलपुर सीट अभी ऐसी तो लगती नहीं. फिलहाल, फूलपुर सीट बीजेपी के कब्जे में है.
अब वो बात भी जान लेना जरूरी है, जिसके बाद नीतीश कुमार के फूलपुर सीट से चुनाव लड़ने की चर्चा चल पड़ी है. असल में जब ये सवाल ललन सिंह के सामने आया तो वो फटाफट अपने अंदाज में चर्चा को लोक भावना से जोड़ दिये. ललन सिंह ने एक चैनल से बात करते हुए बोल दिया कि फूलपुर के लोगों की भावना होगी कि नीतीश कुमार यहां से चुनाव लड़ें - और लगे हाथ कह डाले, हम लोगों को गर्व हो रहा है कि हमारे नेता के लिए उत्तर प्रदेश के लोग भी भावुक हैं - और वो चाहते हैं कि सीएम नीतीश कुमार यहां से चुनाव लड़ें.
मौके का फायदा उठाते हुए ललन सिंह ने ये भी दावा कर डाला कि अगर नीतीश कुमार और अखिलेश यादव मिल कर यूपी में चुनाव प्रचार करते हैं तो बीजेपी 20 सीटों पर सिमट सकती है. बढ़ चढ़ कर दावा करने का एक फायदा तो ये होता ही है कि कार्यकर्ताओं का जोश कायम रहता है, वरना ये तो ललन सिंह को भी नहीं भूला होगा कि अभी अभी बीजेपी ने अखिलेश यादव से आजमगढ़ और रामपुर की सीट झटक ली है.
नीतीश कुमार के यूपी से चुनाव लड़ने की चर्चा पर जोर लगाने के पीछे अखिलेश यादव को लेकर जेडीयू नेता का ताजा बयान भी हो सकता है. अपने दिल्ली दौरे में अखिलेश कुमार के साथ मीडिया से नीतीश कुमार उनको महागठबंधन का नेता बताया था. नीतीश कुमार ने कहा था कि यूपी में अखिलेश यादव ही महागठबंधन के नेता होंगे. हालांकि, इस पर तस्वीर अभी साफ होनी है. जब तक सोनिया गांधी से लालू यादव और नीतीश कुमार की मुलाकात में मुहर नहीं लग जाती, तब तक अखिलेश यादव के यूपी का नेता बनने की खबर भी उतनी ही पक्की समझनी चाहिये जितनी फिलहाल नीतीश कुमार के फूलपुर से चुनाव लड़ने की खबर आयी है.
शिगूफा ही सही, ये चर्चा बने रहने का नीतीश कुमार वैसा ही फायदा उठा सकते हैं, जैसा अपने राज्य सभा जाने और उपराष्ट्रपति बनने की चर्चाओं का उठाया है. एक तरफ लोग ऐसी बातों में उलझे रहे, दूसरी तरफ नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ने से लेकर महागठबंधन का मुख्यमंत्री बनने का पूरा एक्शन प्लान बना डाला. ये चर्चा कुछ दिन और बनी रही तो नीतीश कुमार विपक्षी खेम में और भी महत्वपूर्ण हो जाएंगे.
फूलपुर से क्या मैसेज जाएगा?
फूलपुर के लोग देश को दो दो प्रधानमंत्री दे चुके हैं - पहले जवाहरलाल नेहरू और फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह. नेहरू तो 1952 से लेकर आखिरी सांस तक फूलपुर का ही प्रतिनिधित्व करते रहे, लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह जब प्रधानमंत्री बने तो फूलपुर से सांसद नहीं थे. पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह 1971 में फूलपुर से लोक सभा पहुंचे थे.
फूलपुर सीट अब तक तो ज्यादातर कांग्रेस के पास रही है, लेकिन उसके बाद समाजवादी पार्टी का ही कब्जा रहा है. बीजेपी को पहली बार फूलपुर में कामयाबी तब मिली जब 2014 में केशव प्रसाद मौर्य चुनाव जीते, लेकिन उनके डिप्टी सीएम बनने का बाद हुए उपचुनाव में ही बीजेपी को झटका खाना पड़ा था.
2018 में फूलपुर और गोरखपुर दोनों सीटों पर एक साथ ही उपचुनाव हुए थे. गोरखपुर सीट योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बन जाने से खाली हुई थी. उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों ने दोनों ही सीटे अखिलेश यादव को गिफ्ट कर दी थी. योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य चुपचाप देखते रह गये थे.
वो उपचुनाव, दरअसल, 2019 में बने सपा-बसपा गठबंधन का पूर्वाभ्यास था. दोनों ही सीटों पर अखिलेश यादव ने अपने उम्मीदवार उतारे थे और मायावती की बहुजन पार्टी ने सपोर्ट किया था. फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों जैसा ही नतीजा कैराना लोक सभा उपचुनाव का भी रहा. बाद में सपा-बसपा गठबंधन बना और 2019 में सपा की 5 सीटों के मुकाबले बीएसपी ने 10 सीटें जीत ली थीं - लेकिन एक साल बाद ही योगी आदित्यनाथ ने बदला पूरा करते हुए गोरखपुर के साथ फूलपुर जीत कर बीजेपी की झोली में डाल दिया था.
बहरहाल, मुद्दे की बात ये है कि अगर नीतीश कुमार फूलपुर से संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार बनते हैं तो क्या विपक्ष को कोई खास फायदा मिल सकता है?
ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि 2024 तक विपक्ष किस हद तक एकजुट हो पाता है और तब तक नीतीश कुमार की हैसियत क्या रह जाती है. बेशक नीतीश कुमार राजनीति में बीजेपी को चैलेंज करके भी राजनीति में टिके हुए हैं, लेकिन बिहार की बात और है और बाहर की और ही है.
बिहार की राजनीतिक हालत ऐसी है कि नीतीश कुमार खुद को स्थापित कर चुके हैं - और लालू यादव जैसे मजबूत जनाधार वाले नेता का सपोर्ट मिल जा रहा है. दूसरी तरफ बीजेपी अभी तक ऐसा कोई नेता नहीं खड़ा कर पायी है जो चुनावों में नीतीश कुमार को आमने सामने से चैलेंज कर पाये.
अगला आम चुनाव बिहार चुनाव जैसा तो होने से रहा. 2024 के मैदान में उतरने के लिए नीतीश कुमार को बीजेपी के सबसे मजबूत और लोकप्रिय नेता से टक्कर लेनी होगी - और नीतीश कुमार से नेता के लिए फील्ड में उतर कर टक्कर देना नामुमकिन जैसा ही टास्क होगा.
फूलपुर से एक बार मायावती को भी चुनाव लड़ाने की काफी चर्चा रही. ये तब की बात है जब मायावती ने दलितों के मुद्दे पर नाराज होकर राज्य सभा से इस्तीफा दे दिया था. तब मायावती को फूलपुर से विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार बनाये जाने की चर्चा रही. जब चर्चा ज्यादा होने लगी तो मायावती ने सतीशचंद्र मिश्रा की ओर से कहलवा दिया कि बीएसपी नेता का ऐसा कोई इरादा नहीं है. तब अखिलेश यादव ने भी मायावती के चुनाव लड़ने की स्थिति में सपोर्ट देने की घोषणा की थी.
खबर है कि नीतीश कुमार लखनऊ जाने पर मायावती से भी मिलने वाले हैं. बताते हैं कि मायावती ने चाय पर एक छोटी सी चर्चा की मंजूरी भी दे दी है. ये भी मालूम हुआ है कि नीतीश कुमार यूपी में कम से कम तीन रैलियों की तैयारी कर रहे हैं - खास बात ये है कि ये रैलियां वो अखिलेश यादव और लालू यादव के साथ करना चाहते हैं.
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