क्या नीतीश कुमार तूफान के पहले की खामोशी जैसा व्यवहार कर रहे हैं? लग तो ऐसा रहा है कि दिल्ली में दाल नहीं गली तो नीतीश कुमार पटना में सियासी चाल चलने लगे हैं.
लोक सभा चुनाव 2019 के बाद और 2020 के विधानसभा चुनाव के पहले नीतीश कुमार ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया है. खास बात ये है कि इस कैबिनेट विस्तार में न तो बीजेपी कोटे से किसी भी विधायक को मंत्री बनाया गया है और न ही एलजेपी कोटे से - सिर्फ जेडीयू नेताओं को नीतीश कुमार ने सरकार में साथी बनाया है.
गौर करने की बात ये है कि मोदी कैबिनेट 2.0 में सिर्फ एक नेता को मंत्री बनाये जाने का ऑफर नीतीश कुमार ने ठुकरा दिया था - और अब जेडीयू की ओर से कहा गया है कि भविष्य में भी वो सरकार में शामिल नहीं होगी. हां, जेडीयू की ओर से बार बार दोहराया जा रहा है कि मोदी सरकार को बाहर से सपोर्ट जारी रहेगा - यही वो बाद है जो भविष्य में दोनों दलों के रिश्तों को लेकर शक पैदा करती है.
मंत्रिमंडल और जातीय समीकरण
जब अमित शाह की ओर से जेडीयू को सिर्फ एक मंत्री पद ऑफर किया गया तो उन्होंने ठुकरा दिया. अमित शाह का कहना रहा कि सहयोगी दलों को कैबिनेट में एक से ज्यादा जगह देना मुमकिन नहीं है. नीतीश कुमार की दलील ये रही कि सहयोगी दलों को सीटों के हिसाब से प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिये. उनका इशारा बिहार से ही एलजेपी की ओर रहा जो महज छह सीटें जीत कर आयी है. वैसे सीट बंटवारे में उसे इतनी ही सीटें मिली भी थीं. जेडीयू को 17 सीटें मिली थीं और उनमें से वो 16 जीतने में कामयाब रही है.
वैसे नीतीश कुमार जिन्हें मंत्री बनाना चाहते थे उसमें भी जाती समीकरणों का पहले से ध्यान रखा गया था. नीतीश कुमार ने एक कुर्मी, एक कुशवाहा और एक भूमिहार नेता को मोदी सरकार में जगह दिलाना चाहते थे. ये तीन नेता हैं आरसीपी सिंह, संतोष कुशवाहा और लल्लन सिंह जो क्रमशः कुर्मी, कुशवाहा और भूमिहार हैं.
बिहार में 50 फीसदी से अधिक पिछड़ों और अति पिछड़ों का वोट है. चाहे वो मोदी कैबिनेट हो या फिर नीतीश का...
क्या नीतीश कुमार तूफान के पहले की खामोशी जैसा व्यवहार कर रहे हैं? लग तो ऐसा रहा है कि दिल्ली में दाल नहीं गली तो नीतीश कुमार पटना में सियासी चाल चलने लगे हैं.
लोक सभा चुनाव 2019 के बाद और 2020 के विधानसभा चुनाव के पहले नीतीश कुमार ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया है. खास बात ये है कि इस कैबिनेट विस्तार में न तो बीजेपी कोटे से किसी भी विधायक को मंत्री बनाया गया है और न ही एलजेपी कोटे से - सिर्फ जेडीयू नेताओं को नीतीश कुमार ने सरकार में साथी बनाया है.
गौर करने की बात ये है कि मोदी कैबिनेट 2.0 में सिर्फ एक नेता को मंत्री बनाये जाने का ऑफर नीतीश कुमार ने ठुकरा दिया था - और अब जेडीयू की ओर से कहा गया है कि भविष्य में भी वो सरकार में शामिल नहीं होगी. हां, जेडीयू की ओर से बार बार दोहराया जा रहा है कि मोदी सरकार को बाहर से सपोर्ट जारी रहेगा - यही वो बाद है जो भविष्य में दोनों दलों के रिश्तों को लेकर शक पैदा करती है.
मंत्रिमंडल और जातीय समीकरण
जब अमित शाह की ओर से जेडीयू को सिर्फ एक मंत्री पद ऑफर किया गया तो उन्होंने ठुकरा दिया. अमित शाह का कहना रहा कि सहयोगी दलों को कैबिनेट में एक से ज्यादा जगह देना मुमकिन नहीं है. नीतीश कुमार की दलील ये रही कि सहयोगी दलों को सीटों के हिसाब से प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिये. उनका इशारा बिहार से ही एलजेपी की ओर रहा जो महज छह सीटें जीत कर आयी है. वैसे सीट बंटवारे में उसे इतनी ही सीटें मिली भी थीं. जेडीयू को 17 सीटें मिली थीं और उनमें से वो 16 जीतने में कामयाब रही है.
वैसे नीतीश कुमार जिन्हें मंत्री बनाना चाहते थे उसमें भी जाती समीकरणों का पहले से ध्यान रखा गया था. नीतीश कुमार ने एक कुर्मी, एक कुशवाहा और एक भूमिहार नेता को मोदी सरकार में जगह दिलाना चाहते थे. ये तीन नेता हैं आरसीपी सिंह, संतोष कुशवाहा और लल्लन सिंह जो क्रमशः कुर्मी, कुशवाहा और भूमिहार हैं.
बिहार में 50 फीसदी से अधिक पिछड़ों और अति पिछड़ों का वोट है. चाहे वो मोदी कैबिनेट हो या फिर नीतीश का मंत्रिमंडल, चुनाव आने वाले हैं इसलिए जातीय समीकरणों को साधना दोनों ही के लिए जरूरी है. वैसे बीजेपी ने भी बिहार से जिन पांच नेताओं को मंत्री बनाया है चार मंत्री सवर्ण और एक पिछड़े समुदाय से हैं - एक भूमिहार, एक ठाकुर, एक ब्राह्मण, एक कायस्थ और एक यादव है. गिरिराज सिंह, आरके सिंह, अश्विनी चौबे, रविशंकर प्रसाद और नित्यानंद राय क्रमशः भूमिहार, ठाकुर, ब्राह्मण, कायस्थ और यादव समुदाय से आते हैं.
नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में कुल 25 मंत्री थे और 8 नये मंत्रियों के साथ ये संख्या 33 हो गयी है. मंत्रियों की संख्या 36 तक हो सकती है. 2017 में जब नीतीश कुमार महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में शामिल हुए तो बीजेपी के लिए मंत्रियों का कोटा 14 तय हुआ था. फिलहाल बीजेपी के 13 मंत्री हैं - और सिर्फ एक मंत्री का कोटा बाकी है. वैसे जो विभाग बीजेपी के कोटे में आये थे वे सभी बीजेपी के मंत्रियों के पास ही हैं. डिप्टी सीएम सुशील मोदी के पास वित्त मंत्रालय के अलावा चार विभाग और भी हैं.
अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर नीतीश कुमार ने सभी को साधने की कोशिश की है. अति पिछड़ा समाज से आने वाली बीमा भारती को भी कैबिनेट में शामिल किया है. दरअसल, सृजन घोटाले में नाम आने के बाद मंजू वर्मा को समाज कल्याण मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था - और तब से नीतीश सरकार में कोई भी महिला मंत्री नहीं थी. बीमा भारती को इसी वजह से लाया गया है.
मंत्रिमंडल के तीन सदस्यों के लोक सभा के लिए चुन लिये जाने से विभाग खाली हो गये थे जिनकी भरपाई जरूरी थी. लोकसभा चुनाव राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह मुंगेर से दिनेश चन्द्र यादव मधेपुरा से और पशुपति कुमार पारस हाजीपुर से चुनाव जीत कर पटना से दिल्ली पहुंच चुके हैं. पशुपति कुमार पारस एलजेपी के नेता हैं और रामविलास पासवान के भाई हैं. यानी कैबिनेट में एलजेपी कोटे की भी एक सीट खाली हो गयी है.
मंत्रिमंडल विस्तार के बाद जेडीयू प्रवक्ता केसी त्यागी ने बड़े साफ लहजे में कहा कि केंद्रीय कैबिनेट में जेडीयू के शामिल न होने का फैसला आखिरी है. यही वो बात है जो दोनों दलों के रिश्तों में दरार की ओर इशारा कर रहा है.
तो शिवसेना के रोल में होगी जेडीयू!
कैबिनेट से दूरी बनाने का वाकया तो बाद का है, नीतीश कुमार ने रंग दिखाने तो पहले से ही शुरू कर दिये थे. आम चुनाव के आखिरी दौर में नीतीश कुमार ने बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग शुरू कर दी थी जिसे बीजेपी पर राजनैतिक दबाव के तौर पर देखा गया. बगैर घोषणा पत्र के ही जेडीयू का चुनाव लड़ना तो जाहिर कर ही चुका था कि सब कुछ ठीक ठाक नहीं है. अब कैबिनेट में शामिल न होने से लेकर दूसरे जो मुद्दे जेडीयू नेता उठा रहे हैं वो रिश्तों में बढ़ती दरार की ही तो पुष्टि करता है.
महागठबंधन तो सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर बना था और भ्रष्टाचार के नाम पर नीतीश कुमार ने छोड़ दिया. जितने विरोध नीतीश कुमार के महागठबंधन में आरजेडी से थे उससे कहीं ज्यादा एनडीए में बीजेपी के साथ है. धारा 370, धारा 35 ए, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, तीन तलाक और समान नागरिक कानून ये सब ऐसे मसले हैं जिन पर नीतीश कुमार बीजेपी नेतृत्व से इत्तफाक नहीं रखते.
मंत्रियों के शपथ लेने के बाद केसी त्यागी में बयान में खास तौर पर इन मुद्दों का उल्लेख कई राजनीतिक इशारे भी करता है - 'यूनिफॉर्म सिविल कोड और 35 ए को लेकर हमारा रुख साफ है. समाज में पहले से काफी मतभेद हैं, इसलिए हम इसे और बढ़ाना नहीं चाहते.'
ऐसा लगने लगा है कि जो भूमिका शिवसेना ने मोदी सरकार 1 में निभायी वैसा ही रोल जेडीयू मोदी सरकार 2 में निभाने वाले हैं. शिवसेना और जेडीयू के विरोध के रवैये में फर्क जरूर लगता. शिवसेना अयोध्या और पाकिस्तान जैसे मसलों पर मोदी सरकार पर हमलावर हुआ करती थी - जेडीयू का एजेंडा धारा 370, धारा 35 ए और यूनिफॉर्म सिविल कोड होगा.
बतौर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह चुनावों में धारा 370 और 35 ए खत्म करने का वादा कर चुके हैं - और अब उनके गृह मंत्री बन जाने के बाद ये सभी मामले उन्हें ही डील करने हैं - फिर तो इन्हें लागू करने की कोशिश और विरोध की संभावना भी पूरी लगती है.
बिग ब्रदर की जंग फिर से
चुनाव प्रचार के दौरान देश के बाकी हिस्सों के साथ साथ बिहार में भी बीजेपी जितने आक्रामक रही, नीतीश कुमार में वो तेवर नहीं देखने को मिला. नीतीश की अपनी मजबूरी भी थी, बीजेपी के एजेंडा वाले मसलों पर भला सपोर्ट करते भी तो कैसे? एक रैली का वो वाकया तो बार बार याद आता है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'भारत माता की जय' के नारे लगवा रहे थे और मंच पर बैठे नीतीश कुमार मंद मंद मुस्कुरा रहे थे - लेकिन बोले कुछ नहीं.
नीतीश कुमार के शांत रहने की वजह भी साफ थी. बीजेपी और जेडीयू के बीच लोक सभा सीटों का बंटवारा तो 17-17 हो गया था, लेकिन फिक्र इस बात की थी कि नतीजों के बाद क्या होगा? क्या होता अगर बीजेपी की सीटें काफी ज्यादा और जेडीयू की काफी कम आ गयी होतीं?
अब जबकि बीजेपी और जेडीयू की सीटों में सिर्फ एक का ही अंतर है, नीतीश कुमार फॉर्म में लौटने लगे हैं. आम चुनाव में बीजेपी को 17 में से 17 और जेडीयू को 17 में से 16 सीटों पर जीत मिली है. राज्य सभा में जेडीयू के छह सांसदों सहित संसद में कुल संख्या 22 हो जा रही है.
नीतीश कुमार की मोदी कैबिनेट में वैसे भी खास दिलचस्पी नहीं लगती. एक मंत्रालय का ऑफर ठुकराने की असल वजह तो ये रही कि तीन में से किसे चुनते. एक को चुनते तो बाकी दो की नाराजगी झेलनी पड़ती. अब कैबिनेट में न शामिल होने को फाइनल फैसला बताया जाने लगा है.
असल में नीतीश कुमार के लिए कैबिनेट में हिस्सेदारी से ज्यादा महत्वपूर्ण 2020 का विधानसभा चुनाव है. लोक सभा चुनाव में तो आधी आधी सीटें बांट कर काम चल गया और नतीजे भी मनमाफिक आ गये - सीटों के बंटवारे पर एक बार फिर तकरार होने वाली है.
विधानसभा के लिए सीटों का बंटवारा भी और नतीजे भी ज्यादा टकराव पैदा करने वाले होंगे. जेडीयू नेताओं ने आम चुनाव से पहले बिहार में बिग ब्रदर का मुद्दा उठाया था - उनका कहना रहा कि बिहार में नीतीश कुमार ही एनडीए का चेहरा रहेंगे लेकिन बाद में सब रफा दफा हो गया. विधानसभा चुनाव में बवाल ज्यादा हो सकता है.
विधानसभा चुनाव में बिग-ब्रदर की लड़ाई इसलिए भी गहरा सकती है क्योंकि मुद्दा मुख्यमंत्री पद से जुड़ा होगा. नीतीश कुमार तो मजबूती के साथ दावेदार रहेंगे ही, बीजेपी भी बिहार में महाराष्ट्र वाला खेल करने की ताक में बैठी हुई है. महाराष्ट्र की तरह बीजेपी को बिहार में भी अपना मुख्यमंत्री चाहिये - ये जंग खत्म कहां और तेज होने वाली है.
इन्हें भी पढ़ें :
Modi govt 2.0 के शुरुआती फैसले से ही NDA में दरार!
ममता और केजरीवाल के पास भी अब नीतीश की तरह ऑप्शन नहीं है
मोदी कैबिनेट के गठन में आगामी विधानसभा चुनावों का गणित दिखाई दे रहा है
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.